भारतीय स्वतंत्रता संग्राम व देश के समाज में महत्त्वपूर्ण योगदान डालने वाले विदेशी मसीही जन
ज़िन्दा ज़मीर वाले विदेशियों ने दिया भारतियों का दिल से साथ
भारत पर जब विदेशी (ब्रिटिश अर्थात अंग्रेज़ों का) शासन था, तब उनका ज़ोरदार विरोध करना तथा उनसे छुटकारा अर्थात स्वतंत्रता पाने के प्रयत्न करना तत्कालीन प्रत्येक भारतीय नागरिक का पहला फ़र्ज़ (दायित्व) था। परन्तु यह शायद मसीही संस्कारों की ही शक्ति है कि बहुत से विदेशियों ने भी भारत के स्वतंत्रता आन्दोलनों में अपना बहुमूल्य योगदान डाला है क्योंकि ऐसे देश बहुत कम हैं, जहां पर विदेशियों ने आकर इस ढंग से उन देशों के स्थानीय नागरिकों का इस हद तक साथ दिया है - जैसे कि भारत में कई दर्जनों विदेशियों ने आकर किया है। यहां पर हम यही देखेंगे कि विदेशियों, विशेषतया बहुत से ब्रिटिश नागरिकों, ने किन नैतिक आधारों पर अपने ही देश के लोगों के विरुद्ध तथा भारत के पक्ष में स्टैण्ड लिया था। उनमें से अधिक सच्चे मसीही मिशनरी व पादरी साहिबान ही थे, जो सचमुच यीशु मसीह की शिक्षाओं पर चलते थे तथा उन्होंने इसी कारण सही स्टैण्ड भी लिया। वे ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के व्यापारियों जैसे नहीं थे, उनकी ज़मीर ज़िन्दा थी। यह खोज का अत्यावश्यक विषय है, जिसे अब तक लगभग नज़रअंदाज़ ही किया गया है। हम से भी बहुत सी ऐसी विदेशी शख़्सियतें रह गई होंगी, जो हम यहां पर नहीं दे सके परन्तु उनके बारे में हम जानकारी निरंतर अपलोड कर रहे हैं। विदेशियों की कुछ गतिविधियों को जानबूझ कर संदिग्ध बना कर पेश करते हैं कुछ लोग सचमुच, इस देश में विदेशी मिशनरियों के योगदान को भी कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह बात अलग है कि देश के कुछ मुट्ठी-भर कट्टर किस्म के बहुसंख्यक लोग जानबूझ कर उनकी प्रत्येक बात को नकारात्मक बनाने पर तुले रहते हैं परन्तु इसके बावजूद भारत में विदेशी मसीही मिशनरियों के योगदान का मूल्यांकन करना भी आवश्यक है। दरअसल, ईस्ट इण्डिया कंपनी के लोग क्योंकि व्यापारी किस्म के लोग थे, उनका ध्यान और एकमात्र उद्देश्य केवल ‘सोने की चिड़िया’ कहलाए जाने वाले हमारे देश से किसी न किसी तरह धन एवं कच्चा माल एकत्र करके अपने देश इंग्लैण्ड भेजना ही हुआ करता था। भारत का साथ देने वाले विदेशी थे सच्चे मसीही यहां यह बात स्पष्ट करनी अनिवार्य है कि हम केवल उन्हीं विदेशी मिशनरियों के जीवन-विवरण यहां पर दे रहे हैं, जिन्होंने भारतीय समाज के लिए कुछ किया या वे पीड़ित भारतियों के पक्ष में व तत्कालीन अत्याचारी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध डटे क्योंकि वही सच्चे मसीही थे वरना विगत 400 वर्षों में तो अन्य लाखों विदेशी भारत आए होंगे, उन्हें कोई याद तक नहीं करता। परन्तु आज जिस ढंग से ‘विदेशी मसीही मिशनरी’ शब्द को ही आज कल के तथाकथित राजनीतिज्ञ एक ‘अछूत’ शब्द बना कर रख देना चाहते हैं - हमारा ऐसे अज्ञानी प्रकार के बरसाती मेंढकों (क्योंकि जब केन्द्र में किसी एक पार्टी की सरकार स्थापित होती है, वे तभी बाहर निकलते हैं, नहीं तो चूहे बन कर अपने-अपने बिल में छिपे रहते हैं, तब उनकी बिल्कुल कोई हिम्मत कहीं दिखाई नहीं पड़ती या ऐसे कुछ मुट्ठी भर गीदड़ प्रकार के लोग (केवल वही इस समय देश की सांप्रदायिक एकता का संतुलन ख़राब करने पर तुले हुए हैं) ऐसे स्थानों पर शेर की खाल पहन कर घूमते दिखाई देते हैं, जहां पर उन्होंने घक्केशाही से अपना वर्चस्व कायम कर रखा है और अपनी मनमानियां करते रहते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों के कुछेक नगरों में ऐसी मिसालें आम देखी जा सकती हैं) से यही अनुरोध है कि वे इन विदेशी मसीही मिशनरियों की उपेक्षा न करें, जो अपने-अपने समय में भारतीयों के कल्याण-कार्यों में जुटे रहे थे और बहुत से मसीही मिशनरयिों के सख़्त परिश्रम, उनकी अथाह प्रतिभा से बहुत से लोग आज भी प्रेरणा ले रहे हैं और लेते रहेंगे। वास्तव में भारत में विदेशी मिशनरियों का विरोध केवल कुछ उन पुजारियों ने करना प्रारंभ किया था, जिनको लगता था कि अब उनकी सरदारी समाप्त होने वाली है। अंग्रेज़ों के आने से पूर्व तक वही हर प्रकार से जन-साधारण पर अपनी हकूमत चलाया करते थे - कहीं पर धर्म की आड़ में और कहीं पर क्षत्रिय राजा का समर्थन लेकर। 1857 के विद्रोह के पश्चात् ही ईस्ट इण्डिया कंपनी को इंग्लैण्ड वापिस बुलाने की प्रक्रिया हो गई थी शुरु ईस्ट इण्डिया कंपनी का सुसंस्थापन 31 दिसम्बर, 1600 को जॉन वाट्स एवं जॉर्ज व्हाईट्स ने किया था तथा 1 जून, 1874 को इस कंपनी की सभी गतिविधियां बन्द कर दी गईं थीं। वैसे तो भारत में हुए 1857 के विद्रोह के पश्चात् 1858 में ही इंग्लैण्ड की सरकार ने इसे वापिस बुलाने की कार्यवाहियां प्रारंभ कर दीं थीं परन्तु फिर भी इस देश में इसका कारोबार समेटते-समेटते 16 वर्ष और लग गए। 1757 में प्लासी के युद्ध के उपरान्त जब कंपनी को दीवानी का अधिकार दे दिया गया और वह बंगाल एवं विहार में राजस्व (रैवेन्यू) इकट्ठा करने लगी, तो उसने अपने पांव भारत में मज़बूत करने प्रारंभ कर दिए थे। कंपनी ने कलकत्ता में अपनी राजधानी स्थापित कर ली थी तथा वारेन हेस्टिंग्ज़ को पहला गवर्नर-जनरल बना कर भारत भेजा गया था, तो यह कंपनी सीधे तौर पर प्रशासन में भागीदार बन गई थी। ईस्ट इण्डिया कंपनी के कारण विदेशी मसीही मिशनरी नहीं आना चाहते थे भारत जब तक ईस्ट इण्डिया कंपनी का राज्य भारत पर रहा, तब तक विदेशी मसीही मिशनरी भारत में आना अधिक पसन्द नहीं करते थे क्योंकि ईसट इण्डिया कंपनी के प्रशासकों ने मसीही प्रचार को कभी बढ़ावा नहीं दिया, उल्टे ऐसे कार्यों को उन्होंने निरुत्साहित ही किया; क्योंकि वे जानते थे कि यदि वे धार्मिक प्रचार की ओर अपना ध्यान लगाएंगे, तो वे इस देश से धन एकत्र नहीं कर पाएंगे। ईस्ट इण्डिया कंपनी के बन्द होने के पश्चात् ही बड़ी संख्या में भारत आने प्रारंभ हुए विदेशी मसीही मिशनरी फिर 1858 में ईस्ट इण्डिया कंपनी के बन्द होने के उपरान्त औपचारिक रूप से इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया तथा उस देश की लोकतांत्रिक सरकार का राज्य भारत में स्थापित हुआ, तो मसीही मिशनरियों ने अचानक बिल्कुल वैसे ही भारत की ओर अपना रुख़ कर लिया, जैसे देश के केन्द्र में अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार स्थापित होने के बाद देश के कुछ कट्टर-पंथी लोग अचानक ही सक्रिय होने लगते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी धार्मिक मनमानियों को अब रोकने वाला कोई नहीं होगा; जबकि लोकतांत्रिक सरकारें कभी ऐसा नहीं कर सकतीं। हम यहां पर सभी विदेशी मसीही मिशनरियों की बात तो नहीं कर सकते, क्योंकि हमारा विषय केवल स्वतंत्रता संग्राम में अपना सकारात्मक योगदान डालने वाले विदेशी मसीही लोगों पर अधिक केन्द्रित रहेगा। वैसे उन विदेशी मसीही लोगों की बात भी की जाएगी, जिन्होंने भारत एवं समूह भारतियों का सदा कल्याण चाहा व भारत के लिए सकारात्मक कार्य किए। -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]