गांधी जी के करीबी रहे थे ई0 स्टैनले जोन्स, ब्रिटिश सरकार हो गई थी नाराज़
सभी धर्मों, जातियों, नसलों व संस्कृतियों में एकजुटता के समर्थक थे ई. स्टैनले जोन्स
एली स्टैन्ले जोन्स 20वीं शताब्दी के एक प्रख्यात अमेरिकन मैथोडिस्ट मसीही मिशनरी एवं प्रचारक थे। भारत में सभी धर्मों को आपस में जोड़ कर रखने में उनका योगदान वर्णनीय रहा है। भारत के शिक्षित वर्ग में वह बहुत ही लोकप्रिय थे आपसी भेदभाव रखने एवं स्वयं को ऊँचा समझने का अहंकार मनुष्य में बहुत थोड़ी सी उपलब्धियों के पश्चात् ही आ जाता है। परन्तु विभिन्न धर्मों, जातियों, नसलों, रंगों एवं संस्कृतियों के लोगों को आपस में जोड़ कर रखने वाले लोगों की संख्या प्रारंभ से ही बहुत कम है। ऐसे सभी गुण श्री जोन्स में थे। उनका मानना था कि सभी धर्म एकसमान होते हैं, केवल उनके रास्ते ही अलग-अलग होते हैं। उनके ऐसे गुणों के कारण ही वह हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, पारसी, बोद्धी, जैनी, यहूदी आदि सभी समुदायों में बहुत लोकप्रिय थे।
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलनों को सदैव उचित ठहराया स्टैनले जोन्स ने
उन्होंने 1907 में भारत आने के पश्चात् ही इस देश के स्वतंत्रता आन्दोलनों को उचित ठहराया था तथा सदा यही दलील दी थी कि भारत को अवश्य ही स्वतंत्र होना चाहिए। इसी लिए वह महात्मा गांधी जी, नेहरु परिवार सहित भारत के प्रमुख आज़ादी संग्रामियों व नेताओं के साथ जुड़ गए थे। उन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखीं, जो सभी बहुत प्रसिद्ध हुईं। उनके द्वारा 1925 में रचित एक पुस्तक ‘दि क्राईस्ट ऑफ़ दि इण्डियन रोड’ (भारतीय मार्ग के मसीह) की समस्त विश्व में अब तक 10 लाख से भी अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। 1938 में ‘टाईम’ मैगज़ीन ने उन्हें ‘विश्व के महान मसीही मिशनरी प्रचारक’ का दर्जा दिया था।
स्टैनले जोन्स द्वारा रचित गांधी जी की जीवनी से प्रेरित हुए थे मार्टिन लूथर किंग-जूनियर
डॉ. ई. स्टैन्ले जोन्स क्योंकि महात्मा गांधी जी के अत्यंत करीब रहे थे, इसी लिए उन्होंने गांधी जी की हत्या के पश्चात् उनकी जीवनी भी लिखी थी। उसी जीवनी से प्रभावित हो कर डॉ. मार्टिन लूथर किंग-जूनियर ने प्रभावित हो कर अमेरिका में अहिंसा एवं नागरिक अधिकारों की एक लहर चलाई थी।
मसीही मिशनों के 20वीं शताब्दी के पितामह थे स्टैनले जोन्स
श्री जोन्स ने अपना पहला चर्च लखनऊ में स्थापित किया था, जिसे ‘ब्रिटिश-अमेरिकन एंग्लो-इण्डियन चर्च’ के नाम से जाना जाता रहा है। उत्तर प्रदेश के ही नगर सीतापुर में किए उनके प्रचार एवं कल्याण कार्य भी महत्वपूर्ण रहे हैं। उन्होंने 1930 में भारत में ही ‘क्रिस्चियन आश्रम’ लहर भी प्रारंभ की थी। उन्होंने अपना पहला मसीही आश्रम उत्तराखण्ड के नैनीताल ज़िले के सत-ताल नामक स्थान (जहां पर ताज़ा जल की सात झीलें हैं और यह अत्यंत ख़ूबसूरत पर्यटक स्थल है) पर खोला था। श्री जोन्स को ‘भारत का बिली ग्राहम’ भी कहा जाता है। यदि विलियम केरी को 18वीं शताब्दी में ‘आधुनिक मसीही मिशनों का पितामह’ माना जाता था तो श्री जोन्स को यही दर्जा 20वीं शताब्दी में प्राप्त था।
दलितों के साथ रहना अधिक पसन्द करते थे स्टैनले जोन्स
1928 में चाहे उन्हें बिश्प नियुक्त कर दिया गया था, परन्तु उन्होंने एक मिशनरी के तौर पर ही कार्य करते रहने को प्राथमिकता दी। श्री जोन्स का जन्म अमेरिकन राज्य मेरीलैण्ड के नगर बाल्टीमोर में 3 जनवरी, 1884 को हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने बाल्टीमोर के स्कूलों से प्राप्त की तथा फिर 1906 में अमेरिकन राज्य कैन्टकी के नगर विल्मोर स्थित एशबरी कॉलेज से ग्रैजुएशन करने से पूर्व सिटी कॉलेज में कानून (लॉअ) विषय का भी अध्ययन किया था। 1907 में जब उन्हें 23 वर्ष की आयु में मैथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च द्वारा मिशनरी कार्यों हेतु भारत भेजने हेतु बुलाया गया था, तब वह एशबरी कॉलेज में ही प्रोफ़ैसर थे।
भारत में आकर श्री जोन्स ने सदा ऐसे लोगों के साथ घुल-मिल कर कार्य किए, जिन्हें यहां के बहु-संख्यक लोग ‘निम्न जातियों’ (दलित समुदाय) के नाम से पुकारा करते थे। उनका मानना था कि सभी मनुष्य यदि आपस में मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहें, तो वहां पर परमेश्वर अवश्य रहते हैं। उनकी अन्य बहुत सी पुस्तकें या उनके कुछ अध्याय अथवा कुछ भाग विश्व के विभिन्न भागों में मसीही धार्मिक संस्थानों एवं सरकारी कॉलेजों की पाठ्य पुस्तकों के तौर पर पढ़े-पढ़ाए जाते हैं।
भारतियों के पक्षधर होने के कारण ब्रिटिश सरकार हो गई थी स्टैनले जोन्स के विरुद्ध
डॉ. स्टैन्ले जोन्स क्योंकि महात्मा गांधी जी के करीबी मित्रों में से थे तथा भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर थे, इसी लिए 1940 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत वापिस जाने के लिए वीज़ा देने से साफ़ इन्कार कर दिया था।
7 दिसम्बर, 1941 से कुछ माह पूर्व तक फ्ऱैंकलिन डी. रूज़वैल्ट (1933 से लेकर 1945 तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे। श्री रूज़वैल्ट एकमात्र ऐसी शख़्सियत हैं, जो चार बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने) तथा जापान के ऐसे नेताओं से जुड़े रहे, जो आखि़री दम तक द्वितीय विश्व युद्ध को टालना चाहते थे। उस युद्ध के दौरान श्री ई स्टैन्ले जोन्स तो अमेरिका में फंसे रहे, जब कि उनका स्मस्त परिवार भारत में था; क्योंकि तब केवल सैनिकों/सेनाओं को ही समुद्री यात्राएं करने की अनुमति थी।
अपने भारत के ‘क्रिस्चियन आश्रम’ की शाखाएं अमेरिका एवं कैनेडा में भी कीं स्थापित
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही ई0 स्टैनले जोन्स ने अपने भारत के ‘क्रिस्चियन आश्रम’ की शाखाएं अमेरिका एवं कैनेडा में भी स्थापित की थीं। वह तब प्रत्येक शहर एवं गांव में जा कर मसीही प्रचार कार्य किया करते थे। उन्होंने विश्व के लगभग प्रत्येक देश में जाकर हमारे उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह के सुसमाचार का प्रचार किया।
उन्हें एशिया, अफ्ऱीका, जापान तथा अमेरिका के बीच एकता स्थापित करने के उनके प्रयत्नों के लिए नोबल शांति पुरस्कार हेतु भी नामांकित किया गया था। 1947 में उन्होंने अमेरिका में ‘क्रूसेड फ़ार ए फ़ैडरल युनियन ऑफ़ चर्चेज़’ की शुरुआत की। तब उन्होंने समस्त अमेरिका के पूर्वी से पश्चिमी तथा उत्तर से दक्षिणी कोनों तक पांच सौ से भी अधिक महानगरों, शहरों एवं कसबों में धार्मिक जन-सभाओं के आयोजन किए। उनका सदा यही प्रयत्न रहा कि सभी चर्च एक जगह एकत्र हो सकें।
ई.स्टैनले जोन्स ने खोला भारत का पहला मसीही मनोचिकित्सा केन्द्र व क्लीनिक
1950 में डॉ. स्टैन्ले जोन्स ने भारत के पहले मसीही मनोचिकित्सा केन्द्र एवं क्लीनिक (क्रिस्चियन साइक्याट्रिक सैन्टर एण्ड क्लीनिक) को वित्तीय सहायता प्रदान करवाई, जिसे अब लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में ‘नूर मंज़िल साइक्याट्रिक सैन्टर एण्ड मैडिकल युनिट’ के नाम से जाना जाता है। इसके स्टाफ़ में भारत के साथ-साथ समस्त एशिया, अफ्ऱीका, यूरोप एवं अमेरिका के विशेषज्ञ शामिल हैं।
1959 में डॉ. ई. स्टैन्ले जोन्स को मैथोडिस्ट मिशनरी पत्रिका ‘वर्ल्ड आऊटलुक’ द्वारा ‘मिशनरी एक्स्ट्राऑर्डिनरी’ (असाधारण मसीही प्रचारक) का ख़िताब भी दिया गया था।
गांधी शांति पुरुस्कार से सम्मनित हुए थे स्टैनले जोन्स
1963 में श्री जोन्स को गांधी शांति पुरुस्कार दिया गया था। दिसम्बर 1971 में 88 वर्ष की आयु में अमेरिका के ओकलाहोमा स्थित क्रिस्चियन आश्रम में डॉ. जोन्स को दौरा पड़ा, जिससे वह शारीरिक तौर पर तो सामान्य ढंग से कार्य करने में अक्षम हो गए थे परन्तु मानसिक एवं आध्यात्मिक तौर पर वह पहले जैसे ही सशक्त बने रहे। वह अच्छी तरह से बोल भी नहीं पाते थे। उन्होंने अपनी अंतिम पुस्तक ‘दि डिवाईन यैस’ एक टेप रेकार्डर में अपनी आवाज़ रेकार्ड करके तैयार करवाई थी। जून 1972 में उन्होंने येरुशलेम में पहली ‘क्रिस्चियन आश्रम वर्ल्ड कांग्रेस’ को व्हील चेयर पर बैठ कर संबोधित किया था। उनका वह भाषण बहुत ही भावपूर्ण था।
25 जनवरी, 1973 को भारत में उनका निधन हुआ।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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