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संस्कृत व तमिल भाषाओं की समझ रखने वाले पहले यूरोपियन पादरी रॉबर्ट डी नोबिली



 




 


1577 ई. में पहले गोवा पहुंचे फिर तामिल नाडू में ‘विवेक का अध्यापक’ कहलाए

पादरी रॉबर्ट डी नोबिली इटली के एक जैसुइट मसीही मिशनरी थे, जो 20 मई, 1605 को दक्षिण-पश्चिमी भारत के तटीय नगर गोवा पहुंचे थे। उन्होंने मसीहियत के प्रचार के लिए नया ढंग अपनाया था तथा उन्होंने बहुत से स्थानीय रीति-रिवाजों को भी अपना लिया था, जो उनके विचारानुसार मसीहियत के विरुद्ध नहीं थे। उनका जन्म सितम्बर 1577 को इटली के टस्कनी के मौन्टेपुल्कियानो में हुआ था। यह संभव है कि वह गोवा में फ़ादर थॉमस स्टीफ़न्ज़ से भी मिले हों, जो 1579 में गोवा पहुंचे थे और जो उस समय ‘क्राईस्ट-पुराण’ लिखने में व्यस्त होंगे।

श्री नोबिली केरल के कोचीन में कुछ दिन रुकने के पश्चात् नवम्बर 1606 को तामिल नाडू के नगर मदुराई पहुंचे थे। शीघ्र ही उन्हें लोगों ने ‘विवेक का अध्यापक’ (टीचर ऑफ़ विस्डम) कहना प्रारंभ कर दिया था। वह भारतीय सन्यासियों की तरह ही रहा करते थे। वह स्वयं को इटली के उच्च घराने का कहा करते थे, इसी लिए वह भारत में भी उच्च जाति के लोगों से ही मिला करते थे। मसीहियत की सच्चाईयों संबंधी उनकी हिन्दु विद्वानों से बातचीत प्रायः होती ही रहती थी।


संस्कृत, तेलगु एवं तामिल भाषाओं में की सुविज्ञता प्राप्त

श्री नोबिली ने अपने एक अध्यापक की सहायता से संस्कृत, तेलगु एवं तामिल भाषाओं एवं इन भाषाओं के साहित्य में सुविज्ञता प्राप्त कर ली थी। उन्होंने अपने कुछ शब्द घड़ लिए थे और वह उनका प्रयोग अपनी बात-चीत में अवश्य किया करते थे; जैसे कि ‘प्रार्थना-गृह’ के लिए उन्होंने शब्द ‘कोविल’ बनाया था, इसी प्रकार ‘कृपा’ के लिए ‘आरुल’ एवं ‘प्रसादम’, पादरी/पुजारी या अध्यापक के लिए ‘गुरु’, ‘बाईबल’ के लिए ‘वेदम’, ‘सामूहिक प्रार्थना’ के लिए ‘पूसाई’ इत्यादि।

पूर्णतया भारतीय वेष-भूषा अपनाई नोबिली ने

उन्होंने भारत के कुछ रीति-रिवाज भी अपना लिए थे, जैसे कि सर पर उस्तरा फिरवा कर सर के पीछे केवल एक चोटी रखना। वह श्वेत धोती एवं पैरों में लकड़ी की खड़ाऊँ पहना करते थे। वह अपने छाती वे ऊपरी धड़ के गिर्द तीन धागों वाला जनेऊ भी धारण किया करते थे और वह उन्हें ‘पिता, पुत्र एवं पवित्र-आत्मा’ के चिन्ह माना करते थे। वह पहले ऐसे यूरोपियन थे, जिन्हें संस्कृत एवं तामिल भाषाओं की गहरी समझ थी। उन्होंने तामिल भाषा के आधुनिक गद्य-लेखन में भरपूर योगदान डाला। उन्हें ‘रोमन ब्राह्मण’ भी कहा जाता था। वह एक आश्रम में एक सन्त की तरह रहा करते थे तथा प्रार्थना के बाद ‘प्रसादम’ भी बांटा करते थे।


पादरी नोबिली के लिए पोप ग्रैगरी-15वें ने बदले कैथोलिक नियम

श्री नोबिली की ऐसी विधियों से उनके साथी जैसुइट मसीही एवं गोवा के आर्क-बिशप क्रिस्तोवाओ डी सा ए लिस्बोआ उनसे नाराज़ हो गए। परन्तु पोप ग्रैगरी-15वें ने तब उस विवाद का समाधान करने के साथ-साथ 31 जनवरी, 1623 को एक रोमन धार्मिक संविधान लागू किया। उसमें तीन धागों वाले जनेऊ, सर पर चोटी, माथे पर संदल की लकड़ी का लेप तथा स्नानों की अनुमति दे दी गई थी। परन्तु साथ ही यह शर्त भी रखी गई थी कि उनको लेकर किसी प्रकार का वहम-भ्रम मन में नहीं होना चाहिए।


पादरी नोबिली ने पवित्र बाईबल को कहा ‘पांचवां वेद’

पादरी नोबिली की शिक्षाओं से हिन्दु ब्राह्मण भी परेशान थे। एक बार 800 ब्राह्मणों ने एकत्र हो कर मांग की पादरी नोबिली को मदुराई से निकाला जाए। परन्तु पादरी नोबिली ने स्वयं का बचाव करते हुए कहा कि वे ‘फ़िरंगी’ नहीं है, बल्कि ‘दो बार जन्म लेने वाले रोम के सन्यासी’ हैं। उन्होंने कहा कि जो धर्म वह मानते हैं, वह जाति-प्रथा को समाप्त नहीं करता। अपनी विश्वसनीयता दिखलाने हेतु उन्होंने रोम का एक प्रमाण-पत्र भी दिखाया, जिस पर लिखा था ‘रोमाका ब्राह्मण’ अर्थात ‘रोमन ब्राह्मण’। उसी सर्टीफ़िकेट की एक प्रति उन्होंने अपने घर के द्वार पर भी चिपकाई हुई थी। उन्होंने आगे कहा कि वह ‘ब्रह्मा’ के वंशजों में से हैं और उनके पास पांचवां वेद (अर्थात बाईबल) है, जिसे ‘येसुर-वेद’ (यीशु का वेद) कहते हैं और उनकी शिक्षाएं उसी धर्म-ग्रन्थ पर आधारित हैं। तब उनके ब्राहण अध्यापक पण्डित शिवधर्म ने भी उनका दृढ़तापूर्वक बचाव किया, जिससे वे क्रोधित ब्राह्मण संतुष्ट हो गए। तब पादरी नोबिली मदुराई में ही रहते रहे तथा आगामी पांच दशकों तक ‘येसुर-वेद’ का प्रचार करते रहे। वह भाषण एवं लेखन-कला में पारंगत थे, इसी लिए अधिकतर लोगों से अपनी बात मनवा लेते थे।


रॉबर्टो डी नोबिली की दो पुस्तकें प्रसिद्ध

श्री रॉबर्टो डी नोबिली को संस्कृत धार्मिक ग्रन्थ एज़ूरवेदम का अनुवादक भी माना जाता है परन्तु मैक्स मुलर के अनुसार यह अनुवाद किसी अन्य का किया हुआ है, पादरी नोबिली का नहीं हो सकता। उन्होंने बहुत से प्रमाणों के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला था कि यह अनुवाद किसी फ्ऱैन्च विद्वान द्वारा किया हो सकता है। वैसे तामिल भाषा में लिखीं उनकी दो पुस्तकें प्रसिद्ध हैं - उनमें से एक का हिन्दी अनुवाद है ‘अनादि जीवन की वार्ता’ तथा दूसरी पुस्तक थी ‘जीवन की परख एवं अर्थ’।

पादरी डी नोबिली का देहांत 16 जनवरी, 1656 को 79 वर्ष की आयु में तामिल नाडू में चेन्नई के समीप मायलापुर में हो गया था।

2013 में लोयोला युनिवर्सिटी शिकागो के लेक शोर परिसर में डी नोबिली हॉल का उद्घाटन भी किया गया था। ज्ञानपीठ पुरुस्कार विजेता विश्वनाथ सत्यनारायण ने तेलगू भाषा में एक ऐतिहासिक नावल ‘एकावीरा’ लिखा था, जिसमें एक चरित्र था, जो पादरी नोबिली के बहुत समीप था।


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