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महान तमिल कवि व ‘तमिल गद्य के पितामह’ बने इटली से आए कॉनस्टैंटाईन जोसेफ़ बेस्की



 




 


गोवा से पैदल 1,003 किलोमीटर पैदल चल कर 5 माह में मदुराई पहुंचे थे जोसेफ़ बेस्की

कॉनस्टैंटाईन जोसेफ़ बेस्की (उन्हें कॉनस्टैंज़ो जोसेफ़ बेस्की के नाम से भी जाना जाता है) इटलाी के एक जैसुइट (जैसुईट वास्तव में ‘सोसायटी ऑफ़ जीसस’ के सदस्य को कहते हैं, जिस की स्थापना 27 सितम्बर, 1540 में सन्त इग्नेशियस लोयोला ने की थी) पादरी तथा मसीही मिशनरी थे, जो मई, 1711 में तामिल नाडू के नगर मदुराई में पहली बार आए थे। परन्तु आज उन्हें एक मसीही पादरी के तौर पर कम परन्तु तमिल भाषा के एक महान् कवि के तौर पर अधिक याद किया जाता है। उन्हें तामिल नाडू में वीरामामुनिवर के नाम से भी जाना जाता है।

श्री जोसेफ़ बेस्की का जन्म 8 नवम्बर, 1680 को इटली के डशी, मन्तुआ क्षेत्र के छोटे से कस्बे कास्टीग्लियोन डेले स्टीवीयरे में हुआ था। उन्होंने अपनी माध्यमिक शिक्षा मन्तुआ के जैसुइट्स हाई स्कूल में ग्रहण की थी। 1698 में वह जैसुइट मसीही समुदाय में शामिल हो गए थे। उन्होंने रेवन्ना एवं बोलोग्ना में प्रशिक्षण प्राप्त किया; जहां उन्हें तत्कालीन सुपीरियर जनरल माईकलएंजलो तम्बुरिनी ने दक्षिण भारत के नगर मदुराई में जाने की अनुमति दी। वैसे तो वह अक्तूबर 1710 में ही गोवा की बन्दरगाह पर उतर गए थे, परन्तु फिर वहां से 1,003 किलोमीटर की यात्रा पैदल करते हुए मई 1711 में मदुराई (मदुरै) पहुंचे थे।


एक हिन्दु मित्र ने मुत्यु दण्ड से बचाया स्थानीय शासक से पादरी जोसेफ़ बेस्की को

पहले छः वर्ष उन्होंने तिरूवायरू के समीपस्थ नगर एलाकुरिकी में मसीही प्रचार का कार्य किया तथा वहां चर्च स्थापित किया। उन्होंने तंजावूर में व्यागुला माता चर्च तथा तंजावूर के समीप ही पल्लीयेरी में एक अन्य चर्च स्थापित किया। उसके पश्चात् उन्होंने तामिल नाडू के सब से पुराने मसीही मिशन केन्दों में से एक कामनायक्मपट्टी में एक पैरिश (स्थानीय चर्च की क्लीसिया को कहते हैं) पादरी के तौर पर कार्य किया। तमिल भाषा को अच्छी तरह सीखने हेतु वह तिरुनेलवेली, रामनाथपुरम, तंजावूर एवं मदुराई के अनेकों विद्वानों से ज्ञान प्राप्त किया। 1714-15 में एक स्थानीय शासक उन्हें अपने क्षेत्र में मसीही प्रचार करने के आरोप के कारण शायद मार ही डालता, यदि वहां श्री जोसेफ़ बेस्की का एक हिन्दु मित्र (उस मित्र को संपूर्ण भारतीय मसीही समुदाय की ओर से कोटि-कोटि प्रणाम) वहां पर मौजूद न होता। दरअसल, छोटे-छोटे स्थानीय राजाओं ने उन्हें अपने क्षेत्रों में मसीही प्रचार करने से वर्जित किया हुआ था। ख़ैर वहां मिले जीवन-दान के कारण श्री जोसेफ़ बेस्की को तामिल भाषा पर और भी अच्छी तरह से सुविज्ञता प्राप्त करने का अवसर मिल गया और फिर शीघ्र ही वह तामिल भाषा में पारंगत हो गए।


माता के चर्च स्थापित किए थे कॉनस्टैंटाईन जोसेफ़ बेस्की ने

उन दिनों में चीन देश में जो भी मसीही मिशनरी जाते थे, वे वहां की संस्कृति एवं वेश-भूषा को पूर्णतया अपना लेते थे। उसी तर्ज़ पर श्री जोसेफ़ बेस्की ने भी अपनी वेश-भूषा एवं रहन-सहन पूर्णतया तामिल कर लिया था। वह अपने मसीही प्रचार के दौरान कुछ हिन्दु उदाहरणें भी दिया करते थे। उनके द्वारा स्थापित किए चर्चों में शब्द ‘माता’ आता है। वास्तव में उन्होंने ‘माता के मन्दिर’ की तर्ज़ पर ‘माता के चर्च’ स्थापित किए थे; जैसे तंजाूवर के समीप पूण्डी में पूण्डी माता बेसिलिका (चर्च), कोनन्कप्पम क्षेत्र के मुगासापरूर में पेरियान्यागी माता गिर्जाघर तथा एलाकुरिची में अदाईकला माता गिर्जाघर। अब यह सभी गिर्जाघर कैथोलिक मसीही समुदाय के लिए तीर्थ-स्थल हैं।


पूर्णतया भारतीय सन्यासी बन गए थे पादरी जोसेफ़ बेस्की

श्री जोसेफ़ बेस्की ने तामिल नाडू के ही एक प्रसिद्ध गांव कामनायक्कनपट्टी (जहां का ‘लेडी ऑफ़ एज़म्पशन चर्च’ बहुत ही प्रसिद्ध है और जहां पर प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त को बहुत विशाल मसीही मेला लगता है) में चर्च के लिए सागौन (जिसे सागवान की लकड़ी भी कहा जाता है और अंग्रेज़ी में इसे ‘टीक-वुड’ भी कहते हैं) की लकड़ी की दो बड़ी कारें बनाईं थीं। उन्होंने स्वयं को पूर्णतया भारतीय सन्यासी बना लिया था तथा केसरी रंग का चोला भी ग्रहण कर लिया था। तामिल रंग में रंगने के कारण ही वह स्वयं एवं अन्य मसीही लोगों को उस समय के कानून से बचा पाए थे। तब शासकों ने मसीही लोगों को तंग करना व उन पर मुकद्दमे चलाना बन्द कर दिया था।


12,000 लोगों को दिया बप्तिसमा

जी जोसेफ़ बेस्की ने अपने जीवन में लगभग 12,000 लोगों को बप्तिसमा दिया। वर्ष 1738 तक वह तंजावूर में रहे तथा 1740 में कोरोमण्डल समुद्री तट पर जाकर रहने लगे थे। उनका निधन 4 फ़रवरी, 1742 को केरल के नगर थ्रिसुर के अम्बालाकाड़ू में हुआ था। उन्हें केरल के सम्पलूर में दफ़नाया गया था।


तमिल भाषा की एक साहित्यक व्याकरण तैयार की

जी जोसेफ़ बेस्की को आज भी तामिल साहित्य के एक प्रमुख साहित्यकार के तौर पर जाना जाता है। उन्होंने तामिल भाषा की एक साहित्यक व्याकरण भी तैयार की थी। उन्होंने तामिल भाषा की साधारण व्याकरण भी तैयार की थी - उससे पूर्व ऐसा विधिवत् एवं प्रणाली-बद्ध कार्य इस भाषा में किसी ने नहीं किया था। इसी लिए उन्हें ‘तामिल गद्य का पितामह’ (फ़ादर ऑफ़ तामिल प्रोज़) भी कहा जाता है। उन्होंने तामिल भाषा के कई शब्दकोश भी तैयार किए थे, जिनमें उन्होंने एक-एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द दिए। उन्होंने तामिल-लातीनी भाषा तथा तामिल-पुर्तगाली भाषा के शब्दकोश भी तैयार किए।


यादगार महान कार्य है जोसेफ़ बेस्की का महाकाव्य ‘थेम्बावनी’

जी जोसेफ़ बेस्की का सबसे महान् कार्य उनका महाकाव्य ‘थेम्बावनी’ को माना जाता है, जिसका अर्थ है ‘‘कभी न मुरझाने वाली फूलों की माला’’। इसके 3,615 छन्द हैं, जिसमें सेंट जोसेफ़ के मुक्ति प्राप्त करने का इतिहास एवं उनका जीवन-विवरण दर्ज है। तामिल साहित्य में इसे एक ‘उत्कृष्ट’ रचना (क्लासिक) का दर्जा प्राप्त है। उनकी अन्य बहुत सी पुस्तकें तामिल भाषा में मौजूद हैं। 1968 में तामिल नाडू सरकार ने मद्रास (चेन्नई) में मेरिना समुद्री तट पर जी जोसेफ़ बेस्की का एक बुत्त भी स्थापित करवाया था।


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