भारत में सदा ब्रिटिश शासकों से टकराते रहे अंग्रेज़ अधिकारी सर विलियम वैडरबर्न
भारत में ‘स्वराज’ स्थापित करने के पक्षधर थे सर विलियम वैडरबर्न
स्कॉटलैण्ड (इंग्लैण्ड) में जन्म लेने वाले सर विलियम वैडरबर्न, जो चतुर्थ बैरनेट भी थे, भारत में एक प्रशासकीय अधिकारी एवं राजनीतिज्ञ थे। वह भारत को स्वतंत्र करवाने के पक्षधर थे तथा चाहते थे कि भारतीय अपनी सरकार स्वयं चलाएं अर्थात भारत में ‘स्वराज’ स्थापित हो। अपनी सरकारी सेवा के कार्यकाल के दौरान उन्होंने किसानों की समस्याओं का समाधान ढूंढने हेतु अनेक सुधार लाने के प्रयत्न किए। जब उन्हें अपने प्रयत्नों में अधिक सफ़लता न मिली, तो वे सेवा-निवृत्त हो गए। उन्होंने 1885 में इण्डियन नैश्नल कांग्रेस पार्टी की स्थापना में सहायता की। इसी पार्टी के राष्ट्रीय आन्दोलनों के कारण अंग्रेज़ घबरा गए। महात्मा गांधी जी, पण्डित जवाहरलाल नेहरु, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे असंख्य नेताओं ने मिल कर इसी पार्टी के मंच से ब्रिटिश शासकों का सख़्त विरोध किया और अंततः भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हो पाया।
एडिनबरा युनिवर्सिटी से ग्रहण की थी उच्च शिक्षा
श्री विलियम वैडरबर्न का जन्म 25 मार्च, 1838 को एडिनबरा में हुआ था। उनके पिता द्वितीय बैरनेट (बैरनेट वास्तव में इंग्लैण्ड का शाही सम्मान था, जो ‘नाईट’ की उपाधि से ऊपर था परन्तु ‘बैरन’ की उपाधि से नीचे हुआ करता था) सर जॉन वैडरबर्न थे तथा मां का नाम हैनरीटा लुईस मिल्बर्न था। श्री विलियम ने प्रारंभिक शिक्षा हॉफ़वायल वर्कशॉप से प्राप्त की थी, जिसे तब लौरैटे स्कूल के नाम से जाना जाता था। उच्च शिक्षा उन्होंने एडिनबरा युनिवर्सिटी से ग्रहण की थी। वह भी अपने पिता एवं बड़े भाई की तरह इण्डियन सिविल सर्विस के अधिकारी बने।
एक सच्चे मसीही की तरह भारतियों के पक्ष में लिया विलियम वैडरबर्न ने सही निर्णय
श्री विलियम के बड़े भाई जॉन तथा पिता भारत में 1857 के विद्रोह के दौरान भारतीय विद्रोहियों के हाथों मारे गए थे। क्या विश्व में कोई अन्य व्यक्ति कभी ऐसा कर पाया होगा - कि जिन लोगों ने उसके भाई एवं पिता की जान ली हो, वह व्यक्ति उन्हीं की स्वतंत्रता हेतु अपनों से लड़े और उनकी ग़लतियों को उजागर करे! ऐसा कार्य करने की हिम्मत कोई सच्चा मसीही ही जुटा सकता है। कोई अन्य होता, तो इंग्लैण्ड से भारत आकर भारतियों से बदला लेता। परन्तु श्री विलियम जैसे सच्चे मसीही लोग ही यह निर्णय कर पाते हैं कि क्या सत्य एवं दरुस्त है और किसका पक्ष लेना चाहिए व किसका नहीं। यीशु मसीह ने सच का मार्ग दिखलाया तथा सदैव उसी पर चलते रहना सिखलाया है। श्री विलियम वैडरबर्न जैसे विश्व में ऐसे लाखों मसीही लोग हैं, जो कभी स्वयं को समस्त दुनिया के समक्ष प्रकट भी नहीं करना चाहते परन्तु पर्दे के पीछे रह कर वे यीशु मसीह के नेतृत्त्व में सत्यता के अग्निपथ पर चलते रहते हैं। सर विलियम वैडरबर्न 1860 में भारतीय प्रशासकीय सेवा में भर्ती हुए थे। धन्य थी वह माँ, जिसने अपने पति एवं एक पुत्र को भारत में गंवाने के बाद भी अपने एक अन्य पुत्र को भी स्कॉटलैण्ड से भारत जाने की अनुमति दी। जब श्री विलियम ने इण्डियन सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा 1859 में दी थी, तो कुल 160 अभ्यर्थी उस परीक्षा में बैठे थे और श्री विलियम तीसरे स्थान पर रहे थे।
विलियम वैडरबर्न ने समझीं भारतीय किसानों की समस्याएं
श्री विलियम के एक अन्य बड़े भाई डेविड तीसरे बैरनेट थे। श्री विलियम वैडरबर्न का जन्म 25 मार्च, 1838 ईसवी को हुआ था। वह 1860 में भारतीय प्रशासकीय सेवा हेतु बम्बई में आए थे। वह ज़िला जज रहे तथा फिर सिन्ध में जुडिश्यल कमिश्नर नियुक्त रहे। उसके पश्चात् वह बम्बई सरकार, न्यायिक (जुडिश्यल) एवं राजनीतिक विभागों के सचिव के पद पर भी रहे। 1885 में वह बम्बई हाई कोर्ट के न्यायधीश बने। 1887 में जब वह सेवा निवृत्त हुए, तो वह बम्बई सरकार के मुख्य सचिव थे।
अपने सरकारी सेवा के कार्यकाल के दौरान उन्होंने देखा कि गांवों में किसान जब किसी साहूकार से ऋण लेते हैं, तो उस पर ब्याज जंगली बेल की तरह बढ़ता चला जाता है। इससे किसानों की समस्याएं बढ़ती ही चली जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों में उन्होंने गांवों में सहकारी (कोआप्रेटिव) कृषि बैंक खोलने का सुझाव दिया था, ताकि कृषकों को वाजिब दरों पर कर्ज़ा उपलब्ध हो सके। भारत में इस प्रस्ताव का स्वागत तो हुआ परन्तु उच्च ब्रिटिश अधिकारियों को यह सब स्वीकार्य न हो पाया। लॉर्ड रिप्पन भारत में स्थानीय स्तर की सरकार विकसित करना चाहते थे और उन्होंने ऐसे कार्य किए भी। उन्होंने भारतीय न्यायधीशों को समानता दी। श्री विलियम वैडरबर्न इन सभी सुधारों का समर्थन करते थे।
सदा भारतियों के पक्ष में रहने के कारण अंग्रेज़ शासक विलियम वैडरबर्न हो गए थे नाराज़
एक बार जब उच्च ब्रिटिश अधिकारियों ने देखा कि वह सदा भारतियों के पक्ष की बात करते हैं, तो उन्होंने बम्बई उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) में जज नियुक्त करने से साफ़ इन्कार कर दिया। ऐसी परिस्थितियों को देखते हुए श्री विलियम ने समय से पूर्व ही 1887 में रिटायरमैन्ट ले ली। एक अन्य ब्रिटिश एलन ऑक्टेवियन ह्यूम के साथ उन्होंने इण्डियन नैश्नल कांग्रेस की स्थापना की तथा 1889 एवं 1910 में दो बार इस पार्टी के अध्यक्ष रहे। उन्होंने कांग्रेस पार्टी की एक पत्रिका प्रकाशित करने में सहायता की तथा इंग्लैण्ड में संसदीय कार्यवाही के द्वारा कांग्रेस के अभियानों को समर्थन दिलाने का प्रयत्न किया। 1892 में उन्होंने इंग्लैण्ड के नॉर्थ आयरशाइर से संसदयी चुनाव लड़ा परन्तु पराजित हो गए। फिर 1893 में उन्होंने पुनः लिबरल पार्टी की टिकेट से चुनाव लड़ा और बैनफ़शाइर से विजयी हुए और 1900 तक वह इंग्लैण्ड के संसद सदस्य रहे। संसद सदस्य रहते भी वह सदा भारत के पक्ष में ही बोला करते थे।
हिन्दु-मुस्लिम मतभेद दूर करने का भी किया भला कार्य
1895 में वह भारतीय ख़र्च संबंधी रॉयल कमिशन के सदस्य तथा भारतीय संसदीय समिति के अध्यक्ष रहे। वह इण्डियन नैश्नल कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी के भी अध्यक्ष रहे। 1910 में वह कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर भारत लौटे तथा हिन्दुओं एवं मुस्लमानों के बीच पड़ी सांप्रदायिक दरार को पूरने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इन दोनों ही समुदायों के कानून का अनुपालन करने वाले लोगों तथा हिंसक कार्यवाही के समर्थक लोगों भी ने श्री विलियम वैडरबर्न की बात मानी और भारत में सांप्रदायिक तनाव समाप्त हो गया। भारत में हिन्दु-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों के बारे में थोड़ी जानकारी लेनी भी आवश्यक है।
विलियम वैडरबर्न जैसे समझदार लोगों के कारण ब्रिटिश सरकार को लेना पड़ा था बंगाल के विभाजन का अपना निर्णय वापिस
दरअसल 18वीं शताब्दी से ही इंग्लैण्ड के स्वार्थी शासकों (जो वास्तव में व्यापारी लोग थे और कभी यीशु मसीह की शिक्षाओं पर चलना नहीं चाहते थे) ने जानबूझ कर भारतियों को हिन्दु एवं मुस्लिम दो भागों में विभाजित करके रखा। पहले जब भारत में मुग़लों का शासन था, तो ब्रिटिश के ‘‘स्वार्थी’’ शासक सदा मुस्लिम समुदाय का अधिक ध्यान रखते थे परन्तु फिर जब 1857 का विद्रोह हुआ, तो परिस्थितियां बदल गईं और फिर उन्होंने अपनी नीतियां परिवर्तित करके हिन्दु समुदाय को आगे रखना प्रारंभ कर दिया। 19वीं शताब्दी में भारत में बहुत बार हिन्दु-मुस्लिम दंगे हुए। 19वीं शताब्दी के अन्त में तो ऐसे दंगों का एक क्रम ही शुरु हो गया था। 1891, 1896 एवं 1897 में कलकत्ता में सांप्रदायिक दंगे हुए - जिससे ब्रिटिश शासकों को चिंता होने लगी। उधर भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति की इच्छा समस्त भारत वासियों में बढ़ती जा रही थी। तभी उन्होंने 1905 में बंगाल को सांप्रदायिक आधार पर दो भागों में बांट दिया। उन्होंने पूर्वी बंगाल बनाया (जिसे आज बांगलादेश के नाम से जाना जाता है) और उसे दस्तावेज़ों में मुस्लिम बहु-संख्यक के तौर पर दर्ज किया एवं पश्चिमी बंगाल को उन्होंने हिन्दु बहुल जनसंख्या वाला बताया। ऐसे सांपद्रायिक विभाजन से आम लोगों में रोष फैल गया। हिन्दु एवं मुस्लिम दोनों को ही लगा कि ब्रिटिश सरकार दूसरे पक्ष का समर्थन अधिक कर रही है। इसके कारण 1907 में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए। सैंकड़ों लोग मारे गए। श्री विलियम वैडरबर्न जैसे अन्य बहुत से समझदार लोगों के विरोध के कारण ब्रिटिश सरकार को बंगाल के विभाजन का अपना निर्णय 1911 में वापिस लेना पड़ा। परन्तु 1910 से लेकर 1930 के बीच हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच कई बार हिंसक दंगे हुए और बहुत बार मसीही नेताओं ने दोनों में सुलह करवाई।
विलियम वैडरबर्न ने लिखी थी ए.ओ ह्यूम की जीवनी
कांग्रेस पार्टी के प्रमुख सदस्य गोपाल कृष्ण गोखले जी के साथ श्री विलियम के बहुत निकटतम संबंध रहे। 18 सितम्बर, 1882 को ए.ओ ह्यूम का निधन हो गया, तब श्री विलियम वैडरबर्न ने उनकी जीवनी लिखी।
श्री विलियम ने 12 सितम्बर, 1878 को श्री हैनरी विलियम हौस्किन्ज़ की पुत्री मेरी ब्लैशन्ज़ हौस्किन्ज़ से विवाह किया। उनके घर एक पुत्री ने 1879 में पूना (पुणे) में जन्म लिया। दूसरी पुत्री मारग्रेट ग्रीसल्डा का जन्म 1884 में लन्डन में हुआ। श्री विलियम वैडरबर्न का निधन 25 जनवरी, 1918 को इंग्लैण्ड के ग्लूसैस्टरशाइर क्षेत्र के मीरिड्थ में स्थित उनके घर में हुआ।
श्री विलियम ने भारत की न्याय प्रणाली, कृषि सहकारी बैंकों, ग्रामीण पंचायतों से संबंधित कई बार अपने पेपर भी लिखे, जिनमें बहुत से नीतिगत सुझाव हुआ करते थे।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]