मदर टैरेसा ने संपूर्ण जीवन भारत में ही ज़रूरतमन्दों की सेवा करके बिताया
[ महान मदर टैरेसा का जीवन विवरण हमने ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विदेशी मसीही जन के योगदान’ खण्ड के साथ-साथ ‘भारत के मसीही स्वतंत्रता सेनानी’ खण्ड में भी दोहराया है, क्योंकि वह एक बार भारत में आईं, तो यहीं की हो कर रह गईं। उन्होंने भारत को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। ]
अल्बानिया मूल के मदर टैरेसा ने भारत को चुना अपनी कर्मभूमि
अल्बानिया मूल के माता-पिता की पुत्री मदर टैरेसा (जिनका वास्तविक नाम अन्जेज़े गौन्गज़ी बोजैकिस्यू था) का जन्म चाहे 26 अगस्त, 1910 को मक्दूनिया गणराज्य की राजधानी स्कोपजे (तब यह ओट्टोमैन साम्राज्य में कोसोवो विलायत का भाग था) में हुआ था परन्तु उन्होंने समस्त विश्व में से केवल भारत को ही रहने के लिए चुना और स्वयं को सदा भारतीय कहला कर गर्व महसूस किया। 18 वर्ष तक वह आइरलैण्ड में रहीं और उसके बाद वह सदा के लिए भारत आ गईं थीं व अपने जीवन का अधिकतर भाग उन्होंने यहीं बिताया। उन्हें ‘कलकत्ता की सन्त टैरेसा’ भी कहा जाता है। वह एक रोमन कैथोलिक नन एवं मसीही मिशनरी थीं।
1950 में ‘मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी’ का किया गठन
(मदर टैरेसा एक बच्चे को आशीर्वाद देते हुए - चित्रः एएफ़पी)
1950 में मदर टैरेसा ने एक रोमन कैथोलिक मसीही क्लीसिया ‘मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी’ का गठन किया था जो 5 सितम्बर, 1997 को उनके देहांत के बाद भी 133 देशों में सक्रिय है तथा इसमें 4,500 से अधिक नन्ज़ कार्यरत हैं। यह संगठन एच.आई.वी./एड्स, कुष्ट व तपेदिक (ट्यूबरक्युलोसिस या टी.बी.) जैसे रोगों से जूझने वाले अंतिम चरण के रोगियों की देखभाल की ज़िम्मेदारी संभालती है तथा ज़रूरतमन्दों को भोजन देती है, डिस्पैन्सरियां, मोबाईल क्लीनिक, बच्चों एवं परिवारों को सही सलाह देने के कार्यक्रम चलाती है तथा यतीमखाने व स्कूल चलाती है।
अनेक प्रतिष्ठित पुरुस्कारों से हुई सम्मानित
‘मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी’ का सदस्य बनने के लिए कभी विवाह न करवाने, सदा ग़रीबी में जीवन व्यतीत करने अर्थात कभी धन का लालच न करने, सभी धार्मिक नियमों का अनुपालन करने तथा निर्धन से निर्धन लोगों की दिल से सेवा करने के संकल्प लेने पड़ते हैं।
मदर टैरेसा को अपने जीवन में अनेक उच्च मान-सम्मान प्राप्त हुए; जिनमें 1962 में उन्हें मिला रेमन मैगसेसे शांति पुरुस्कार, उसी वर्ष भारत का पद्मश्री, 1969 में अंतर्राष्ट्रीय समझ के लिए जवाहरलाल नेहरु पुरुस्कार तथा 1979 में नोबेल शांति पुरुस्कार के साथ-साथ भारत का सर्वोच्च पुरुस्कार ‘भारत रत्न’ प्रमुख हैं। भारत सहित विश्व की अनेक युनिवर्सिटीज़ ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद (ऑनरेरी) डिग्रियां प्रदान की थीं। 4 सितम्बर, 2016 को वैटिकन के रोमन कैथोलिक चर्च ने उन्हें सन्त घोषित करने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी थी। उन के जीवन से प्रेरित हो कर देश-विदेश में अनेक फ़िल्मों का निर्माण हो चुका है तथा अनेक पुस्तकें भी उन पर लिखी जा चुकी हैं। 1992 में नवीन चावला ने उनकी संपूर्ण जीवन-गाथा को एक पुस्तक रूप दिया था। उनके समय के सभी विश्व नेताओं ने उनकी सदा प्रशंसा की है। कोलकाता में कुछ हिन्दु परिवार मदर टैरेसा को एक देवी मान कर पूजा करते हैं।
9 वर्ष की थीं टैरेसा, जब पिता का साया सर से उठ गया
मदर टैरेसा के पिता का नाम निकोले (जो कोसोवो नगर प्रिज़रेन से थे) तथा माँ का नाम ड्रैनाफ़ाईल बोजैकस्यू (जो गजाकोवा के समीपवर्ती एक गांव से थीं) था। उनके पिता मक्दूनिया में अल्बानिया मूल के समुदाय की राजनीति में सक्रिय थे परन्तु उनका देहांत 1919 में ही हो गया था, जब टैरेसा अभी केवल 8-9 वर्ष की ही थीं।
जोआन ग्राफ़ क्लुकस द्वारा लिखित उनकी जीवनी के अनुसार टैरेसा को बचपन में मिशनरियों की जीवन-गाथाएं पढ़ने का बहुत शौक था, विशेषतया जिन्होंने भारत के बंगाल क्षेत्र में काम किया था। बारह वर्ष की आयु में उन्हें यह निर्णय ले लिया था कि उन्होंने धार्मिक जीवन व्यतीत करना है। एक बार जब 15 अगस्त 1928 को वह अल्बानिया में विटिना-लैटनिस स्थित ब्लैक मैडोना नामक मसीही धार्मिक स्थल के दर्शन करते समय प्रार्थना करने गईं, तभी उन्होंने आजीवन धार्मिक जीवन को अपनाने का संकल्प ले लिया था।
टैरेसा ने 1928 में 18 वर्ष की आयु में आइरलैण्ड के रैथफ़ारनहैम क्षेत्र के नगर लॉरैटो ऐबे स्थित एक मसीही संगठन ‘सिस्टर्स ऑफ़ लौरैटो’ के साथ अंग्रेज़ी भाषा सीखने के लिए जुड़ गईं। भारत में ‘सिस्टर्स ऑफ़ लौरैटो’ के सभी काम उन दिनों अंग्रेज़ी भाषा में ही हुआ करते थे। उन्होंने उसके बाद कभी अपनी मां या बहन को नहीं देखा। उनका परिवार 1934 तक तो स्कोपजे में रहा तथा फिर तिराना में जा कर रहने लगा।
1929 में पहली बारा भारत आईं थीं मदर टैरेसा
1929 में मदर टैरेसा भारत आ गईं और दार्जीलिंग में आकर रहने लगीं। उन्होंने पहले बंगाली भाषा सीखी तथा अपने कान्वैंट (धार्मिक लोगों का समूह, जो एक ही स्थान पर रहता है) के समीप ही सेंट टैरेसा स्कूल में पढ़ाया भी। उन्होंने मिशनरियों के संरक्षक सन्त थैरेसा डी लिसियक्स का नाम अपने नाम के साथ लगाया। उन्होंने सन्त थैरेसा के स्पेनी भाषा में शब्द-जोड़ लिखना प्रारंभ किया जो ‘टैरेसा’ पढ़ा जाता है और यह नाम सदा के लिए उनके नाम के साथ जुड़ गया।
भारत में विभिन्न प्रकार की समस्याओं से अत्यंत दुःखी होती थीं मदर टैरेसा
मदर टैरेसा ने एक नन के तौर पर 14मई, 1937 को पूर्वी कलकत्ता के एन्ताली क्षेत्र में स्थित लॉरैटो कान्वैंट स्कूल में शपथ ली थी, तब वह वहीं पर पढ़ाती थीं। 1944 में वह इसी स्कूल की मुख्य-अध्यापिका बनीं। वह कलकत्ता में अधिक ग़रीबी से प्रायः बहुत दुःखी हुआ करती थीं। 1943 में बंगाल में जब अकाल पड़ा, तो शहर में बहुत से लोग मारे गए तथा फिर अगस्त 1946 में हिन्दु मुस्लिम दंगे शुरु हो गए। इन सब बातों ने मदर टैरेसा को बहुत अधिक दुःखी किया तथा वह मानवता की और अधिक सेवा करने में लीन हो गईं।
जन-सेवा करते हुए 1948 में वह सिस्टर टैरेसा से ‘मदर टैरेसा’ बन चुकी थीं। ग़रीबों के साथ मिशनरी कार्य प्रारंभ किया और तभी से उन्होंने लॉरैटो के पारंपरिक वस्त्र त्याग कर नीले बॉर्डर वाली एक श्वेत सूती साड़ी को सदा के लिए अपना लिया। उन्होंने भारत की नागरिकता को अपनाया तथ पटना स्थित होली फ़ैमिली अस्पताल में मैडिकल प्रशिक्षण भी लिया तथा उसके बाद झुग्गी-झौंपड़ियों में भी काम किया। कोलकाता के मोती-झील क्षेत्र में उन्होंने एक स्कूल की भी स्थापना की।
ग़रीबों को खिलाने हेतु लोगों से भोजन व अन्य वस्तुएं मांगनी पड़ती थीं
जन-सेवा के प्रारंभिक वर्षों में मदर टैरेसा को बहुत तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा था। तब उनके संगठन को कोई आय भी नहीं हुआ करती थी। ग़रीबों को खिलाने व स्वयं खाने के लिए उन्हें भोजन व अन्य वस्तुएं मांगनी पड़ती थीं।
7 अक्तूबर, 1950 को वैटिकन ने डायोसीज़ क्लीसिया की स्थापना की आज्ञा दे दी तथा बाद में वह ‘मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी’ कहलाई। यह संगठन तब से लेकर अब तक भूखे, वस्त्रहीनों, बेघर लोगों, विकलांग लोगों, नेत्रहीनों, कुष्ट व एड्स रोगियों, प्यार व देखभाल के लिए तरसने वाले तथा समाज पर बोझ समझे जाने वाले लोगों की सेवा करता आ रहा है। इस संगठन के अब अनेक यतीमखाने, एड्स हौसपाईसज़ व चैरिटी केन्द्र समस्त विश्व में हैं; जहां शरणार्थियों, नेत्रहीनों, विकलांगजन, नशे के पीड़ितों, निर्धनों, बाढ़-पीड़ितों, महामारियों व अकाल या अन्य प्राकृतिक आपदाओं के शिकार लोगों की देखभाल की जाती है।
अपने जीवन में 100 से अधिक देशों में खोलीं 517 मिशनें
वैसे तो मदर टैरेसा ने अनेक जन-कल्याण संगठनों व संसथाओं की स्थापना की तथा उन सभी का विवरण यहां देना असंभव है (क्योंकि 1996 तक वह 100 से अधिक देशों में 517 मिशनें खोल चुकी थीं) परन्तु 1952 में उनके द्वारा कलकत्ता में वीरान पड़े कालीघाट हिन्दु मन्दिर को ‘निर्मल हृदय लोगों का घर’ का नाम दिया; जहां पर अंतिम चरण की विभिन्न बीमारियों का सामना कर रहे लोगों का निःशुल्क उपचार किया जाता था। वहां पर सभी धर्मों के लोग जा सकते थे और जब कभी वहां पर किसी रोगी का निधन हो जाता, तो उसी के धर्म के अनुसार उनकी अंतिम क्रियाएं की जातीं थीं।
मदर टैरेसा बंगाली, अल्बानियन, सर्बियन, अंग्रेज़ी व हिन्दी पांच भाषाएं धारा-प्रवाह बोलती थीं। वह प्रायः कहा करती थीं,‘‘मेरा ख़ून अल्बानियन है परन्तु नागरिकता से मैं भारतीय हूं। धर्म से मैं एक कैथोलिक नन हूं और आप मुझे समस्त विश्व से संबंधित कह सकते हैं। दिल से मैं पूर्णतया यीशु मसीह के दिल से जुड़ी हूं।’’
मदर टैरेसा की ‘मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी’ की संख्या अब हज़ारों में है, तथा अति-निर्धन लोगों (पूअरैस्ट ऑफ़ दि पूअर) की सेवा में कार्यरत हैं। अमेरिका में उन्होंने पहला ‘मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी होम’ न्यू यार्क महानगर के साऊथ ब्रौंक्स क्षेत्र में स्थापित किया था तथा 1984 तक उनके केवल अमेरिका में ही 19 संस्थान स्थापित हो चुके थे।
विभिन्न रोगों के कारण कई बार मैडिकल समस्याओं का सामना करना पड़ा था मदर टैरेसा को
मदर टैरेसा को 1983 में पहली बार रोम में दिल का दौरा पड़ा था, जब वह पोप जौन पॉल-द्वितीय से मिलने के लिए गईं थीं। फिर 1989 में उन्हें दूसरी बार दिल का दौरा पड़ा था। 1991 में जब मैक्सिको में उन्हें निमोनिया हो गया था, तो उनके बनावटी पेसमेकर लगाना पड़ा था। अप्रैल 1996 में वह अचानक गिर पड़ी थीं तथा उनकी हंसली (कॉलर बोन) टूट गई थी। चार माह के बाद उन्हें मलेरिया हो गया तथा फिर दिल फ़ेल होने लगा। 13 मार्च, 1997 को उन्होंने मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी के मुख्य के पद से त्याग-पत्र दे दिया था तथा 5 सितम्बर, 1997 को उनका निधन हो गया।
विश्व में श्रद्धापूर्वक बहुत कुछ स्थापित है मदर टैरेसा के नाम से
मदर टैरेसा के नाम से विश्व में अनेक अजायबघर व चर्च तथा सड़कें, कॉम्पलैक्स स्थापित हैं। अल्बानिया का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी मदर टैरेसा के नाम पर है। अल्बानिया में प्रत्येक वर्ष 19 अक्तूबर को ‘मदर टैरेसा डेअ’ मनाया जाता है और उस दिन समस्त देश में अवकाश रहता है। तामिल नाडू के नगर कोडाईकनाल में:1984 में मदर टैरेसा वोमैन’ज़ युनिवर्सिटी’ स्थापित की गई थी, जिसे सरकार चलाती है। 1999 में पुद्दुचेरी सरकार ने पांडिचेरी में मदर टैरेसा पोस्ट-ग्रैजुएट एण्ड रीसर्च इनस्टीच्यूट ऑफ़ हैल्थ साइंसज़ की भी स्थापना की थी। 26 अगस्त, 2010 को भारतीय रेलवे ने उनकी याद में उन्हीं के जन्म दिन के उपलक्ष्य में ‘मदर एक्सप्रैस’ भी चलाई थी।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]