भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय विदेशी मसीही मिशनरी सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर
स्पेन से 1542 में भारत आए थे सर्वाधिक लोकप्रिय मसीही मिशनरी सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर
स्पेन से 1542 में भारत आए रोमन कैथोलिक मसीही मिशनरी सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर का भारत की मसीहियत पर बहुत अधिक प्रभाव दिखाई देता है तथा उनका शुमार विदेश से भारत आए सर्वाधिक लोकप्रिय मसीही मिशनरियों में होता है। उनका वास्तविक नाम फ्ऱांसिसको डी जैसे वाई एज़पिलक्युटंा था, जिनका जन्म नवारे राज्य (इस समय स्पेन में है) के अरैगोनीज़, जिसे बास्क भी कहते हैं, के शाही किले में 7 अप्रैल, 1506 ईसवी को हुआ था। वह ‘सोसायटी ऑफ़ जीसस’ के सह-संस्थापक भी थे।
जापान जाने वाले पहले मसीही मिशनरी थे सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर
सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर तब लोयोला के सेंट इग्नाशियस के साथी थे और उन पहली सात जैसुईट मसीही शख़्सियतों में भी शामिल थे, जिन्होंने 1534 में मौंटमार्टे, पैरिस में एक साथ मिल कर सदा ग़रीबी में रहने (अर्थात दुनियावी बातों की लालसा कभी न करने) तथा कभी विवाह न करने (अर्थात कभी किसी से शारीरिक संबंध न बनाने) की शपथ ली थी। एशिया में उन्होंने बड़े स्तर पर यीशु मसीह की शिक्षाओं का प्रचार किया था। दक्षिण भारत के अधिकतर भागों में जब पुर्तगाल का शासन था, तब सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर ने इन्हीं क्षेत्रों में बहुत अधिक धार्मिक व सामाजिक कार्य किए थे। जापान, बौर्नियो, मलुकू आईलैण्ड्स व अन्य क्षेत्रों में जाने वाले वह पहले मसीही मिशनरी थे। दरअसल, उन क्षेत्रों में उन्हें स्थानीय भाषाएं सीखने में कुछ कठिनाई हुई थी, इसी लिए उन्हें वहां इतनी सफ़लता नहीं मिल पाई थी, जितनी उन्होंने भारत में पाई। दूसरे उन देशों में उनका विरोध भी कुछ अधिक हुआ।
1622 में पोप ग्रैगरी ने सेंट घोषित किया था फ्ऱांसिस ज़ेवियर को
सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर अपना मसीही प्रचार का अभियान चीन में प्रारंभ करने ही वाले थे, कि 3 दिसम्बर, 1552 को चीन के दक्षिणी तट के समीप शांगचुआन नामक टापू में उनका निधन हो गया। पोप पॉल-पांचवें ने 25 अक्तूबर, 1619 ने उन्हें पहली बार सन्त (सेंट) घोषित करने का निर्णय लिया था और 12 मार्च, 1622 को पोप ग्रैगरी-15वें ने पादरी फ्ऱांसिस ज़ेवियर को विधिवत सेंट घोषित कर दिया। 1624 में उन्हें सैंटियागो के साथ-साथ नवारे का भी को-पैट्रन घोषित किया गया। नवारे के को-पैट्रन सान फ़ेरमिन भी हैं। उन्हें ‘इण्डीज़ का प्रेरित,’ तथा ‘जापान का प्रेरित’ भी कहा जाता है। सन्त पौलूस के बाद सेंट ज़ेवियर को महान मिशनरियों में से भी एक माना गया है। इसके अतिरिक्त 1927 में पोप पायस-11वें ने सेंट ज़ेवियर के साथ-साथ लिसियक्स के सेंट देरीज़ को सभी विदेशी मिशनों का को-पैट्रन घोषित किया था।
सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर जितना सम्मान किसी मसीही मिशनरी को नहीं मिल पाया
अन्य किसी मसीही मिशनरी को कभी इतना मान-सम्मान नहीं मिल पाया, जितना सेंट ज़ेवियर को मिला है। स्पेन देश में प्रत्येक वर्ष 3 दिसम्बर को ‘नवारे दिवस’ मनाया जाता है, जो कि सेंट ज़ेवियर की बरसी का दिन होता है।
फ्ऱांसिस ज़ेवियर के पिता जुआन डी जैसे वाई अतोन्डो उस समय ज़ेवियर किले के प्रबन्धक (सेनेशल) थे, जो एक समृद्ध किसान परिवार से संबंधित थे। उन्होंने युनिवर्सिटी ऑफ़ बोलोगना से डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की थी। बाद में वह नवारे के राजा जौन-तृतीय के प्रिवी काऊँसलर और बाद में वित्त मंत्री भी बने थे। फ्ऱांसिस ज़ेवियर की माँ का नाम डौना मारिया डी एज़पिलकुएटा वाई एनारेज़ था, जो नवारे में रहने वाले दो कुलीन परिवारों की एकमात्र उत्तराधिकारी थीं। अपने समय के प्रसिद्ध धर्म-शास्त्री तथा दार्शनिक मार्टिन डी एज़पिलकुएटा भी सेंट ज़ेवियर के रिश्तेदार थे।
9 वर्ष की आयु में उठ गया था पिता का साया
1512 में ऐरागौन के राजा फ़र्डिनैंड ने नवारे राज्य पर आक्रमण कर दिया और वह युद्ध 18 वर्षों तक चलता रहा। तीन वर्षों के बाद फ्ऱांसिस ज़ेवियर के पिता का निधन हो गया, जब उनकी आयु अभी केवल नौ वर्ष की थी। 1516 ई. में फ्ऱांसिस ज़ेवियर के भाईयों ने नवारे-फ्ऱांस की सेनाओं के साथ मिल कर स्पेन के आक्रमणकारियों को खदेड़ने के असफ़ल प्रयत्न किए। परन्तु तब स्पेन के गवर्नर कार्डिनल सिसनेरोस ने सेंट ज़ेवियर के परिवार की सारी संपत्ति ज़ब्त कर ली, परिवार के किले की बाहरी दीवार ढाह दी, सभी गेट, दोनों टॉवर तोड़ दिए और किले के आस-पास बनी व पानी से भरी गहरी खाई को मिट्टी से भरवा दिया। उस किले में बस सेंट ज़ेवियर का घर नहीं ढाया गया था, उसे छोड़ दिया गया था।
कॉलेज में बहुत ऊँची छलांग लगाते थे सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर
1525 में फ्ऱांसिस ज़ेवियर युनिवर्सिटी ऑफ़ पैरिस के पैरिस स्थित कॉलेज सेंटे-बार्बे में पढ़ने के लिए चले गए। अगले 11 वर्ष उन्होंने वहीं पर बिताए। वह अच्छे एथलीट भी थे और बहुत बढ़िया हाई जम्प (ऊँची छलांग) लगाते थे।
1529 में फ्ऱांसिस ज़ेवियर अपने मित्र पीयरे फ़ावरे के साथ एक ही कमरे में रहते थे कि उनके कमरे में एक अन्य साथी इग्नाशियस भी रहने के लिए आए। इग्नाशियस की आयु तब 38 वर्ष थी, जबकि पीयरे व फ्ऱांसिस ज़ेवियर दोनों की आयु अभी 23 वर्ष की थी। इग्नाशियस के प्रभाव के कारण पीयरे कुछ पहले पादरी बनने को तैयार हो गए परन्तु फ्ऱांसिस ज़ेवियर को अभी कुछ दुनियावी चीज़ें पाने की लालसा थी। इसी लिए पहले वह इग्नाश्यिस से कुछ कम ही बोलते थे। उन दिनों में तो वह इग्नाश्यिस का मज़ाक भी उड़ाया करते थे।
युनिवर्सिटी ऑफ़ पैरिस में पढ़ाया भी
1530 में फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने एम.ए. की परीक्षा पास कर ली। उसके बाद उन्होंने युनिवर्सिटी ऑफ़ पैरिस के बीओवायस कॉलेज में अरस्तु की फ़िलासफ़ी का विषय पढ़ाया।
फिर 15 अगस्त, 1534 का वह ऐतिहासिक दिन आया, जब वे पैरिस के बाहर मौंटमार्टे स्थित चर्च ऑफ़ सेंट डैनिस (जिसे अब सेंट पीयरे डी मौंटमार्टे कहा जाता है) के नीचे बेसमैन्ट में बने कब्रिस्तान में सात विद्यार्थी मिले, उनके नाम ये हैं- फ्ऱांसिस ज़ेवियर, लोयोला के इग्नाश्यिस, स्पेन के एल्फ़ौंसो साल्मेरौन, डीएगो लाएनेज़, निकोलस बौबाडिला, सैवोई के पीटर फ़ेबर तथा पुर्तगाल के सिमाओ रौड्रिग्ज़। उन सब ने मिल कर सदा ग़रीबी, ब्रह्मचार्य जीवन व्यतीत करने, पोप की आज्ञाओं का अनुपालन करने एवं अधिक से अधिक लोगों को यीशु मसीह का सुसमाचार सुनाने की शपथ ली।
1539 में सूत्रीकृत हुई एक नई धार्मिक व्यवस्था ‘दि सोसायटी ऑफ़ जीसस’
उसके बाद 1534 में ही फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने धर्म का अध्ययन प्रारंभ किया तथा 24 जून, 1537 को उन्हें बाकायदा पादरी नियुक्त कर दिया गया।
1539 में बहुत लम्बे विचार-विमर्श के पश्चात् इग्नाश्यिस ने एक नई धार्मिक व्यवस्था ‘दि सोसायटी ऑफ़ जीसस’ का सूत्रीकरण किया, जिसे मानने वाले बाद में जैसुइट कहलाए। इग्नाश्यिस की योजना को 1540 में पोप पौल-तृतीय ने स्वीकृति दे दी।
भारत में आए पहले जैसुइट मिशनरी थे सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर
1540 ई. में पुर्तगाल के राजा जौन द्वारा वैटिकन सिटी में नियुक्त अपने देश के दूत श्री पैड्रो मासकेयरन्हास थे। श्री पैड्रो ने जैसुइट मसीही मिशनरियों को सलाह दी कि वे भारत के उन क्षेत्रों में जाकर मसीही प्रचार करें, जहां अब तक बहुत कम विदेशी गए हैं। पुर्तगाल के राजा को भी तब लगता था कि भारत में रह रहे पुर्तगाली मूल के लोगों में मसीही मूल्य अब गिरते जा रहे हैं; इसी लिए वह भी चाहते थे कि कुछ मिशनरी भारत जाएं और वहां के मसीही लोगों में एक नई रूह फूंकें। फिर पोप से इस बात की विशेष अनुमति ली गई। इग्नाश्यिस लोयोला ने पहले पादरी निकोलस बौबाडिल्ला एवं सिमाओ रॉड्रिग्ज़ को भारत जाने के लिए नियुक्त किया था परन्तु श्री बौबाडिल्ला अचानक बीमार पड़ गए तो इग्नाश्यिस को तत्काल फ्ऱांसिस ज़ेवियर को भारत जाने हेतु तैयार करना पड़ा। इस प्रकार ज़ेवियर इस प्रकार से भारत जाने वाले पहले जैसुइट मिशनरी बन गए।
फ्ऱांसिस ज़ेवियर 15 मार्च, 1540 को रोम से रवाना हुए। उन्होंने अपने साथ केवल लातीनी भाषा की एक पुस्तक ‘डी इनस्टीच्युशने’ ली थी, जो क्रोएशिया के मानववादी मार्को मारुलिक द्वारा लिखी गई थी। फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने तब तक पवित्र बाईबल के अतिरिक्त केवल यह एक पुस्तक पढ़ी थी। यह पुस्तक उन दिनों अत्यंत लोकप्रिय थी।
6 मई, 1542 को पहली बार गोवा पहुंचे थे सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर
फ्ऱांसिस ज़ेवियर रोम से पहले पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन गए और वहां से 7 अप्रैल, 1541 को भारत के लिए रवाना हुए। और उस दिन उनका 35वां जन्म दिन भी था। तब उनके साथ ‘सैन्टियागो’ नामक समुद्री जहाज़ पर दो अन्य जैसुइट मिशनरियों के अतिरिक्त भारत के नए नियुक्त पुर्तगाली वॉयसरॉय मार्टिम एफ़ौन्सो डी सूज़ा भी मौजूद थे। परन्तु अगस्त से लेकर मार्च 1542 तक उन्हें अफ्ऱीकी देश मौज़म्बीक में रुकना पड़ा, क्योंकि उस समय वहां पर पुर्तगाल का ही शासन चलता था। अंततः 6 मई, 1542 को फ्ऱांसिस ज़ेवियर गोवा पहुंचे। वहां पहुंच कर उन्होंने देखा कि गोवा में गिर्जाघर (चर्च) तो हैं, पादरी भी है, एक बिशप भी है परन्तु प्रचारक कोई नहीं है और गोवा के अतिरिक्त और कहीं भी कोई पादरी नहीं है। इसी लिए पहले फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने पुर्तगाली बस्तियों में बच्चों को मसीही प्रचार प्रारंभ करने का निर्णय लिया। पहले पांच माह उन्होंने इधर-उधर प्रचार करने व अस्पतालों में बीमारों के पास प्रार्थना करते हुए बिताए। उस समय वहां पर सेंट पॉल’ज़ कॉलेज हुआ करता था, जो वास्तव में नए पादरी साहिबान को प्रशिक्षण देने की एक सैमिनरी थी। फ्ऱांसिस ज़ेवियर को उस कॉलेज का नेतृत्त्व करने हेतु बुलाया गया। और उसके पश्चात् वही कॉलेज एशिया में पहला जैसुइट मुख्यालय भी बन गया।
सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने विशेष तौर पर सीखी थी तमिल भाषा
भारत में फ्ऱांसिस ज़ेवियर के नाम के साथ अनेक चमत्कार भी जोड़े जाते हैं। रोमन कैथोलिक मसीही समुदाय उन्हें अक्षरशः सत्य मानता है।
फ्ऱांसिस ज़ेवियर को तभी यह जानकारी मिली कि मछली पकड़ने के लिए उस समय तय पर्ल समुद्री तट, जो तब दक्षिण भारत के अंतिम छोर केप कोमोरिन से लेकर श्री लंका तक था, के समीपवर्ती क्षेत्रों में पारव नामक जाति के लोग रहते हैं। उनमें से अधिकतर ने 10 वर्ष पूर्व मूर आक्रमणकारियों से बचने व पुर्तगाली शासकों को प्रसन्न करने के लिए बप्तिसमा तो ले लिया था परन्तु उन्हें अभी तक सच्चे मसीही विश्वास व सिद्धांतों के अनुसार जीवन व्यतीत करने संबंधी कभी कुछ सिखलाया नहीं गया था। अक्तूबर 1542 में फ्ऱांसिस ज़ेवियर विशेष तौर पर अपनी सैमिनरी के कुछ पादरी साहिबान को साथ लेकर केप कोमोरिन की ओर रवाना हुए और वहां जाकर पारव लोगों के रहन-सहन को देखा। वह माइलापुर स्थित सन्त थोमा (सेंट थॉमस, जो यीशु मसीह के 12 शिष्यों में से एक थे) की कब्र भी देखने के लिए गए।
उसके बाद फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने पारव लोगों की भाषा, जो तामिल ही थी, सीखी। फिर उन्होंने तीन वर्ष वहां दक्षिण भारत व श्री लंका तक के लोगों को प्रभु यीशु मसीह का सुसमाचार सुनाने में बिताए। बहुत से नए लोग अपनी मर्ज़ी से मसीही बनने लगे। वहां के लोगों में तब बहुत सी ग़लत आदतें पड़ी हुई थीं, वह सभी उन्होंने छुड़वाईं। उन्होंने समुद्री तटों के पास लगभग 40 चर्च स्थापित करवाए। कोम्बूथुराई स्थित सेंट स्टीफ़न’ज़ चर्च उसी समय सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर द्वारा ही स्थापित किया गया था।
1547 में जापान पहुंचे थे सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर
फिर 1545 में फ्ऱांसिस ज़ेवियर पूर्व में स्थित मलाका, मलुकु आईलैण्ड्स, एम्बन टापू की ओर निकल गए। पूर्व के देशों की ओर बढ़ते हुए वह 1547 में जापान पहुंचे।
जनवरी 1548 में फ्ऱांसिस ज़ेवियर गोवा लौट आए। फिर 15 अप्रैल, 1549 को वह वर्तमान मलेशिया के राज्य मलाका पहुंचे और कैन्टन गए। 27 जुलाई, 1549 को फ्ऱांसिस ज़ेवियर एक बार फिर जापान पहुंचे परन्तु उनके समुद्री जहाज़ को किसी भी बन्दरगाह पर रुकने की अनुमति न मिल सकी। 15 अगस्त तक ऐसे ही चला। अंततः वह क्युशु टापू के सतसुमा राज्य की मुख्य बन्दरगाह कागोशिमा के तट पर पहुंचे। वहां पर फ्ऱांसिस ज़ेवियर का स्वागत पुर्तगाल के शाही प्रतिनिधि के तौर पर हुआ। स्थानीय शासक शिमाज़ू तकाहिसा (1514-1571) ने 29 सितम्बर, 1549 को उनका औपचारिक स्वागत किया परन्तु अगले ही वर्ष उन्होंने फ्ऱांसिस ज़ेवियर पर प्रतिबन्ध लगा दिया कि वह उनके राज्य के किसी भी नागरिक का धर्म-परिवर्तन करवा कर उसे मसीही नहीं बना सकते।
जापान के क्योटो क्षेत्र तक गए सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर
फ्ऱांसिस ज़ेवियर चाहे बाद में वहां से आगे बढ़ कर जापान के क्योटो क्षेत्र तक भी गए परन्तु उन्हें स्थानीय जापानी भाषा ठीक से नहीं आती थी, इसी लिए वह स्थानीय लोगों में रच-बस नहीं सके। वैसे इस प्रकार वह जापान जाने वाले पहले जैसुइट मसीही मिशनरी अवश्य बन गए। उन चार-पांच दशकों में एशिया में केवल जैसुइट मसीही मिशनरी ही सक्रिय थे परन्तु उसके बाद फ्ऱांसीसी मसीही मिशनरी आने प्रारंभ हो गए थे।
3 दिसम्बर, 1552 को किश्ती में हुआ था निधन
फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने फिलीपीन्ज़ में भी काफ़ी मसीही प्रचार किया था। पूर्वी देशों व उनके संबंधित टापूओं ने उन्होंने खुल कर प्रचार किया। इसी दौरान दक्षिण चीन में शांगचुआन में उन्हें बुख़ार हो गया और 3 दिसम्बर, 1552 को उनका किश्ती में ही निधन हो गया। पहले उनके मृत शरीर को शांगचुआन में दफ़नाया गया। फिर 22 मार्च, 1553 को उनके शरीर को मलेशिया के मलाका में दफ़नाया गया। तब तक उनके शरीर को कोई नुक्सान नहीं पहुंचा था वह ज्यों का त्यों था अर्थात उनका शरीर आम मनुष्यों की तरह बिल्कुल गला-सड़ा नहीं था। फिर 11 दिसम्बर, 1553 को सेंट ज़ेवियर का मृत शरीर गोवा लाया गया और तब से वह गोवा के ‘बेसिलिका ऑफ़ बॉम जीसस’ (चर्च) में ही कांच के एक कन्टेनर में पड़ा है। कांच के इस कन्टेनर में इस शरीर को 2 दिसम्बर, 1637 को रखा गया था। कांच के इर्द-गिर्द बड़ी मात्रा में चान्दी की प्लेटें लगी हुईं हैं। उनका शरीर अब भी नष्ट नहीं हुआ है।
सदियों के पश्चात् भी बिना किसी औषधि के सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर का शरीर अब भी काफ़ी हद तक सही-सलामत
आम तौर अब तक यही परंपरा रही है कि सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर के मृत शरीर व उनकी अपनी कुछ निजी वस्तुओं को प्रत्येक 10 वर्षों के बाद आम जनता के दर्शनों हेतु रखा जाता है। परन्तु ऐसा करना अनिवार्य बिल्कुल भी नहीं है। पिछली बार 22 नवम्बर, 2014 से लेकर 4 जनवरी, 2015 तक इन्हें प्रदर्शित किया गया था और उससे पहले ऐसा 21 नवम्बर, 2004 से लेकर 2 जनवरी, 2005 तक किया गया था। उनके मृत शरीर का निरीक्षण 23 जून, 1951 को हैल्थ सर्विसेज़ के निदेशक डॉ. एन्टोनियो डी सूज़ा सोब्रिन्हो एवं मैडिकल स्कूल के निदेशक डॉ. जोआओ मेन्युल पेशेको डी फ़िग्रेडो ने किया था। तब उन्होंने देखा था कि सेंट ज़ेवियर की खोपड़ी पर कुछ स्थानों पर तब भी त्वचा मौजूद थी और कुछ बाल भी थे। दाईं आंख तब भी देखी जा सकती थी। नथुने बिल्कुल सही सलामत थे। चेहरे का अधिकतर भाग सही सलामत था। त्वचा पर कुछ स्थानों पर दाढ़ी भी देखी जा सकती थी। दायां कान भी मौजूद था, परन्तु बाएं कान का बाहर का भाग नहीं था। पैरों के अंगूठे व छोटी अंगुली के नाखून भी थे। बाएं पांव का तला (गद्दी) बिल्कुल सही सलामत था। शरीर के कुछ भागों पर नसों को अब भी देखा जा सकता है। शरीर की स्थिति अब भी सेंट ज़ेवियर के देहांत के अब वर्ष 2020 में 468 वर्षों के बाद भी ज्यों की त्यों है। हां, सर अवश्य धड़ से अलग हो चुका है। यह माना जाता है कि मलेशिया में उन्हें अच्छी तरह से दफ़नाया नहीं गया था, और वह सर तभी धड़ से अलग हो गया था। इसे भी कुदरत का चमत्कार माना जाता है क्योंकि शरीर को संभाल कर रखने के लिए किसी भी औषधि या लेप का कभी कोई इस्तेमाल नहीं किया गया।
सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर की मान्यता बहुत से देशों में है।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]