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द्राविड़ भाषाओं को शिक्षा में स्थापित करने वाले बिशप रॉबर्ट काल्डवैल



 




 


‘दबे-कुचले वर्गों को उठाने ही भारत आए थे बिशप रॉबर्ट काल्डवैल’

बिशप रॉबर्ट काल्डवैल 1838 में आयरलैण्ड से भारत आए एक मसीही मिशनरी तथा भाषा-विज्ञानी थे, जिन्होंने द्राविड़ भाषाओं को शिक्षा में स्थपित किया था। वह 1877 में तिरुनेलवेली (तामिल नाडू) में असिस्टैंट बिशप बने थे। उन की छवि कुछ ऐसी बनी हुई थी कि वह दबे-कुचले वर्गों को उठाने तथा सच्चे अर्थों में समाज का सुधार करने हेतु भारत आए हैं।


भारत सरकार ने जारी किया था बिशप रॉबर्ट काल्डवैल की याद में डाक-टिकेट

तामिल नाडू सरकार ने भी उनकी याद व सम्मान में एक यादगार स्थापित की है तथा भारत सरकार द्वारा भी उनके नाम से एक डाक टिकेट भी जारी किया गया था। 1967 में उनका एक बुत भी चर्च ऑफ़ साऊथ इण्डिया द्वारा मद्रास (अब चेन्नई) के समुद्री तट के समीप स्थापित किया गया था।


9 वर्ष की आयु से काम करना प्रारंभ कर दिया था राबर्ट काल्डवैल ने

श्री राबर्ट काल्डवैल का जन्म 7 मई, 1814 को आयरलैण्ड की काऊँटी एन्ट्रिम के गांव क्लैडी के एक ग़रीब स्कॉटिश प्रैसबाइटिरियन मसीही परिवार में हुआ था। शीघ्र ही उनका परिवार ग्लासगो चला गया था व राबर्ट ने 9 वर्ष की आयु से ही कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने जो कुछ भी सीखा, जीवन की ठोकरों व अनुभवों से ही सीखा। 15 वर्ष की आयु में वह आरयलैण्ड लौट आए थे। डबलिन में वह अपने बड़े भाई के पास रहते थे तथा उसी समय वह 1829 से लेकर 1833 के बीच आर्ट विषयों की पढ़ाई भी किया करते थे। पढ़ाई के उपरान्त वह ग्लासगो लौट गए थे और फिर वहीं पर वह चर्च के लिए काम करने लगे।

आयरलैण्ड में पैदा होने के कारण इंग्लैण्ड के कॉलेज से निकाल दिए गए थे राबर्ट काल्डवैल

रॉबर्ट काल्डवैल ने ऑक्सफ़ोर्ड के बालियल कॉलेज में छात्रवृत्ति की परीक्षा पास कर ली थी परन्तु जब अधिकारियों को मालूम हुआ कि वह आयरलैण्ड में पैदा हुए हैं, तो उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। फिर वह लण्डन मिशनरी सोसायटी से जुड़ गए, जिन्होंने उन्हें प्रशिक्षण हेतु युनिवर्सिटी ऑफ़ ग्लासगो भेज दिया। वहां यूनानी भाषा के प्रोफ़ैसर वह एंग्लिक मसीही धर्म के प्रोमोटर डैनियल कीट सैण्डफ़ोर्ड का प्रभाव उन पर पड़ा। श्री रॉबर्ट काल्डवैल ने बहुत अच्छे अंकों से परीक्षा उतीर्ण की तथा उसके बाद उन्हें पादरी नियुक्त कर दिया गया।


भारतीयों का दिल जीतने हेतु राबर्ट काल्डवैल ने सीखी थी तमिल भाषा

श्री रॉबर्ट काल्डवैल 8 जनवरी, 1838 को लण्डन मिशनरी सोसायटी की ओर से मद्रास पहुंचे थे। बाद में वह ‘प्रोपेगेशन ऑफ दि गॉस्पल मिशन’ (एस.पी.जी.) के लिए काम करने लगे थे। यहां आकर उन्हें लगा कि यदि उन्होंने लोगों के दिलों को जीतना है, तो उन्हें पहले तमिल भाषा अवश्य सीखनी होगी।


रॉबर्ट काल्डवैल की पत्नी ने 40 वर्षों तक की तामिल महिलाओं की सेवा

1844 में बिशप रॉबर्ट काल्डवैल ने त्रावनकोर में लण्डन मिशनरी सोसायटी के मिशनरी पादरी चार्ल्स मॉल्ट (1791-1858) की बेटी एलिज़ा मॉल्ट (1822-1899) से विवाह रचाया था। उनके सात बच्चे हुए। श्रीमति एलिज़ा ने इडायनकुड़ी एवं तिरुनेलवेली में 40 वर्षों तक महिलाओं में अनेक कल्याण कार्य किए।


बिशप रॉबर्ट काल्डवैल ने पहली बार किया था शब्द ‘द्राविड़ियन’ का प्रयोग

यह बिशप रॉबर्ट काल्डवैल ही थे, जिन्होंने दक्षिण भारत में बोली जाने वाली संस्कृत व अन्य बहुत सी भाषाओं में से द्राविड़ भाषाओं को पहली बार अलग किया था। उन्होंने ही शब्द ‘द्राविड़ियन’ भी पहली बार इस्तेमाल किया था। दक्षिण भारत की मुख्य भाषाओं तामिल, तेलगू, कन्नड़, मल्यालम, तुलु जैसी भाषाओं के अतिरिक्त पाकिस्तान व अफ़ग़ानिस्तान के कुछ क्षेत्रों में बोली जानी वाली भाषा ब्रूही भी तामिल भाषा परिवार की ही है। 19वीं शताब्दी में बिशप रॉबर्ट काल्डवैल के आने से पहले विद्वान तामिल एवं अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं को भी संस्कृत से निकली हुई भाषाएं ही मानते थे। बिशप रॉबर्ट काल्डवैल ने द्राविड़ अथवा दक्षिण भारतीय भाषाओं की एक तुलनात्मक व्याकरण तैयार की थी।


तामिल इतिहास का किया गहन-गंभीर अध्ययन

बिशप रॉबर्ट काल्डवैल चाहे प्रशिक्षित पुरातत्त्व-विज्ञानी नहीं थे परन्तु उन्होंने तिरुनेलवेली का इतिहास जानने के लिए विशेष अनुसंधान किया था। उन्होंने पत्तों पर लिखी बहुत से पाण्डुलिपियों का अध्ययन किया था तथा बहुत से स्थानों की खुदाई भी करवाई थी। उन्हें प्राचीन भवनों की नींव मिली थीं, बहुत से पुराने बर्तन व सिक्के उस खुदाई के दौरान मिले थे। उन सिक्कों पर पाण्डयन राज्य का चिन्ह था। तब उन्होंने 1881 में ‘ए पोलिटिकल एण्ड जनरल हिस्ट्री ऑफ़ दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ तिरुनेलवेली’ (तिरुनेलवेली ज़िले का राजनीतिक एवं आम इतिहास) नामक पुस्तक भी लिखी थी, जिसे मद्रास प्रैज़ीडैन्सी सरकार ने प्रकाशित किया था।

बिशप रॉबर्ट काल्डवैल ने बहुत सी धार्मिक पुस्तकें भी लिखीं। उनकी मिशन 50 वर्षों तक चलती रही। दक्षिण भारत के आधुनिक इतिहास की वह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण शख़्सियत हैं। 28 अगस्त, 1891 को उनका निधन हुआ।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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