बंगाली मज़दूरों के हक में लिखने पर प्रताड़ित किया गया था शिक्षा-शास्त्री जेम्स लौंग को
एक प्रसिद्ध बंगला नाटक का अनुवाद करने पर जेल-यात्रा करनी पड़ी थी जेम्स लौंग को
श्री जेम्स लौंग (1814-1887) एंग्लिकन चर्च के एक एंग्लो-आईरिश मसीही मिशनरी व पादरी, एक मानवतावादी थे, जो मानव-हितैषी कार्यों में सक्रिय रहे शिक्षा-शास्त्री, अनुवादक तथा निबंधकार थे। वह भारत के महानगर कलकत्ता (अब कोलकाता) में 1840 से लेकर 1872 तक चर्च मिशन सोसायटी के सदस्य रहे तथा ठाकुरपुकुर स्थित चर्च व मिशन का नेतृत्त्व करते रहे।
पादरी जेम्स लौंग कैलकटा स्कूल बुक सोसायटी, बेथ्यून सोसायटी, दि बंगाल सोशल साइंस एसोसिएशन तथा एशियाटिक सोसायटी के साथ जुड़े रहे। उन्होंने दीनबन्धु मित्रा के प्रसिद्ध नाटक ‘नील दर्पण’ का अंग्रेज़ी अनुवाद भी प्रकाशित किया था। इस के लिए उन पर मुकद्दमा चलाया गया, जुर्माना किया गया तथा कुछ समय के लिए जेल भी भेज दिया गया था।
कई भाषाओं के ज्ञाता थे जेम्स लौंग
श्री जेम्स लौंग का जन्म 1814 में आइरलैण्ड की काऊँटी कॉर्क के बैण्डन नामक नगर में हुआ था और तब आइरलैण्ड, इंग्लैण्ड का ही भाग हुआ करता था। उनके पिता का नाम श्री जॉन लौंग तथा उनकी माँ का नाम ऐने था। बारह वर्ष की आयु में उन्होंने नए खुले बैण्डन एण्डाऊड स्कूल में दाख़िला लिया तथा वहां पर हैब्रियु, यूनानी, लातीनी, फ्ऱांसीसी एवं अंग्रेज़ी भाषाएं सीखीं। धर्म-विज्ञान तथा क्लासिक्स जैसे विषयों में वह पारंगत थे। 1838 में चर्च मिशन सोसायटी ने उनका आवेदन स्वीकार करके उन्हें इस्लिंग्टन स्थित चर्च मिशनरी सोसायटी कॉलेज में भेज दिया गया था। दो वर्षों के प्रशिक्षण के पश्चात् उन्हें 1840 में कलकत्ता भेज दिया गया था। उसके बाद वह केवल 1848 में एक बार थोड़े समय के लिए एमिली ऑरमे नामक लड़की (श्री विलियम ऑरमे की बेटी) से विवाह करने के लिए ही इंग्लैण्ड लौटे थे।
सभी वर्गों के बच्चों को निष्पक्ष ढंग से पढ़ाते रहे जेम्स लौंग व उनकी पत्नी
1840 से लेकर 1848 तक श्री जेम्स लौंग ने चर्च मिशनरी सोसायटी द्वारा संचालित व एम्हर्स्ट मार्ग पर स्थित एक स्कूल में ग़ैर-मसीही बच्चों को पढ़ाया। 1848 में उन्हें ठाकुरपुकुर चर्च व मिशन का प्रभारी नियुक्त कर दिया गया। 1851 में उन्होंने ठाकुरपुकुर में ही एक स्कूल स्थापित कर दिया था, जहां स्थानीय भाषाओं में पढ़ाया जाता था। उनकी पत्नी एमिली ने लड़कियों के लिए अलग से एक स्कूल स्थापित किया। 1854 तक उनके स्कूल में सभी धर्मों के 100 बच्चे पढ़ रहे थे।
बंगला साहित्य में सम्मानीय दर्जा प्राप्त है पादरी जेम्स लौंग को
पादरी जेम्स लौंग ने 1851 में ‘बंगाली प्रोवर्ब्स’ (बंगाली कहावतें) नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसे आज भी बंगाली/बंगला साहित्य में एक सम्मानीय दर्जा प्राप्त है। उन्होंने दो और दशकों के लिए बंगाली कहावतें व लोक साहित्य को पढ़ाया। उन्होंने 1818 से लेकर 1855 तक के बंगाली समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं की एक सूची (कैटलॉग) भी 1855 में प्रकाशित की। स्थानीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाली पुस्तकों की सूची उन्होंने अलग से प्रकाशित की। भारत सरकार ने 1867 में उनके इस कार्यों को पैरिस एक्सपोज़िशन में भी भेजा था।
बंगाल के कृषि मज़दूरों का डट कर साथ दिया था जेम्स लौंग ने
1861 नील के खेतों में काम करने वाले मज़दूरों ने विद्रोह कर दिया था और उसी के चलते ‘नील दर्पण’ नाटक का विवाद खड़ा हो गया। दरअसल यह नाटक नील (कपड़ों में चमक लाने वाला) की खेती के बारे में था और इसमें नील-उत्पादकों द्वारा खेत-मज़दूरों के ‘‘शोषण’’ का वर्णन था। उन्हीं उत्पादकों ने पादरी जेम्स लौंग तथा प्रकाशक व मुद्रक सभी पर अदालत में केस ठोक दिया था।
पादरी जेम्स लौंग ने यह नाटक अंग्रेज़ी में अनुवाद करके इंग्लैण्ड तक भी पहुंचा दिया था। 19 से 24 जुलाई, 1861 तक इस मामले की सुनवाई कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय में चली। श्री लौंग के साथ श्री पीटरसन एवं श्री कोवी भी आरोपी करार दिए गए। पादरी जेम्स लौंग को एक हज़ार रुपए का जुर्माना तथा एक माह कैद की सज़ा दी गई। यह सज़ा उन्होंने जुलाई-अगस्त 1861 में भुगती। उनके जुर्माने की राशि उस समय कालीप्रसन्ना सिंहा ने अदा की थी।
पत्नी के निधन उपरान्त पादरी कृष्ण मोहन बैनर्जी के घर रहे थे जेम्स लौंग
फरवरी 1867 में जब पादरी जेम्स लौंग की पत्नी इंग्लैण्ड वापिस जा रही थीं, तो रास्ते में उन्हें पेचिश रोग हो गया और उनका निधन हो गया। अपनी पत्नी के देहांत के बाद पादरी जेम्स लौंग कलकत्ता में पादरी कृष्ण मोहन बैनर्जी के घर में ही रहने लगे। पादरी बैनर्जी उनके पुराने मित्र थे तथा उनकी पत्नी का देहांत भी उसी वर्ष हुआ था।
भारतीय नृत्यांगनाओं को बाईबल की कहानियों पर कत्थक नाच करने का प्रशिक्षण दिया
1865 में पादरी जेम्स लौंग ने भारतीय नृत्यांगनाओं को बाईबल की कहानियों पर कत्थक नाच करने का प्रशिक्षण दिया था परन्तु कुछ कट्टर किस्म के मसीही लोगों ने उसका कड़ा विरोध किया था क्योंकि वे भारत के इस लोक-नाच को ग़लत दृष्टिकोण से केवल हिन्दु धर्म के साथ जोड़ कर देखते थे - जबकि लोक नाच, लोक गीत या लोक साहित्य तो कभी किसी एक धर्म या जाति के साथ बंध ही नहीं सकते। कट्टरता प्रत्येक स्थान पर ग़लत है, चाहे किसी भी धर्म में क्यों न हो। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं सकता।
शैक्षणिक कार्यों के लिए पादरी जेम्स लौंग 1863 तथा 1872 में सेवा-निवृत्ति के पश्चात् दो बार रूस भी जाकर आए थे। बाकी का समय उन्होंने इंग्लैण्ड की राजधानी लण्डन में ही बिताया। उनके लिखने व पुस्तकें प्रकाशित करने का कार्य उनके निधन अर्थात 23 मार्च, 1887 तक चलता रहा।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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