भारत में विशुद्ध भारतीय चर्च बनाया जैक कोपले विन्सलो ने
भारत में ब्रिटिश राज्य का सदा विरोध किया जैक कोपले विन्सलो ने
जैक कोपले विन्सलो (जिन्हें जौन कोपले विन्सलो या जे.सी. विन्सलो के नाम से भी जाना जाता है) इंग्लैण्ड से भारत में यीशु मसीह का सुसमाचार सुनाने हेतु आए थे। उन्होंने अधिकतर पूना (अब पुणे) एवं कोंकण क्षेत्रों में कार्य किए। यह दोनों क्षेत्र तब बॉम्बे प्रैज़ीडैन्सी का एक भाग हुआ करते थे। श्री विन्सलो ने ‘क्राईस्ट सेवा संघ’ की स्थापना की थी, जिसे ‘क्रिस्चियन फ़ैलोशिप ऑफ़ सर्विस’ भी कहा जाता रहा है। 1919 में अमृतसर के जल्लियांवाला बाग में अंग्रेज़ पुलिस अधिकारियों द्वारा पंजाबियों के कत्लेआम के बाद श्री विन्सलो ने महसूस किया कि भारत में अब यीशु मसीह का सुसमाचार पूर्णतया भारतीय संस्कृति में रह कर ही सुनाना होगा अन्यथा उनके सभी प्रयास व्यर्थ जाएंगे। इसी लिए उन्होंने कभी ब्रिटिश राज्य का समर्थन नहीं किया, अपितु उसका विरोध ही किया।
‘यदि अत्याचारी व व्यापारी किस्म के अंग्रेज़ न होते, तो भारत में कहीं अधिक फैलती मसीहियत’
श्री विन्सलो सदा गांधी जी तथा भारत की स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आन्दोलनों के नेताओं के समर्थक बने रहे। उन्होंने भारत में अपना नाम ‘स्वामी देवदत्त’ भी रख लिया था, जिसका अर्थ होता है ‘परमेश्वर द्वारा दिया गया’। उन्होंने यह भी महसूस किया कि यदि भारत में अत्याचारी एवं व्यापारी किस्म के अंग्रेज़ों का राज्य न होता, तो भारत में यीशु मसीह को कुछ अधिक तेज़ी से लोगों ने अपना लेना था। इसी लिए वह अंग्रेज़ राज्य को मिशनरी कार्यों में बड़ी रुकावट मानते थे। वैसे वह भारत के राष्ट्रीय आन्दोलनों से कभी प्रतिबद्ध भी नहीं रहे, उन्होंने स्वयं को सदा स्वतंत्र ही रखा। वैसे उन्होंने वैरियर एल्विन के साथ मिल कर ‘दि डॉअन ऑफ़ इण्डियन फ्ऱीडम’ (भारतीय स्वतंत्रता की भोर) नामक पुस्तक भी लिखी।
विन्सलो ने सदा किया ब्रिटिश सरकार की भारत में मनमानियों का विरोध
जैक कोपले विन्सलो ने ब्रिटिश सरकार की मनमानियों व धक्केशाहियों का ज़ोरदार विरोध किया। उन्होंने गांधी जी के सत्याग्रहों की सदा प्रशंसा की और उन्होंने भारत की राष्ट्रवादी इच्छाओं की पूर्ति यीशु मसीह द्वारा परिपूर्ण होने संबंधी सन्देश भी प्रचारित एवं प्रसारित किए।
यीशु को कहा ‘जगदगुरु’ व लिखे अनेक मसीही भजन
1930-31 में शहरी अवमानना आन्दोलन के दौरान श्री विन्सलो ने ‘हेल टू दि मदर’ (मातृभूमि की प्रशंसा) नामक पुस्तक लिखी।
श्री विन्सलो ने और भी अनेक पुस्तकें लिखीं। वह यही चाहते थे कि भारत का चर्च पूर्णतया भारतीय होना चाहिए, न कि विदेशी। इसी लिए वह अपने संभाषणों में यीशु मसीह को प्रायः ‘जगदगुरु’ के नाम से संबोधन किया करते थे। उन्होंने भारतीय मसीही लोगों के लिए भी अनेक भजन लिखे थे, जो पुस्तक रूप में ‘दि गार्लैंड ऑफ वर्स’ के नाम से प्रकाशित की गई थी। उनकी पुस्तक ‘युखारिस्ट इन इण्डिया’ भी बहुत प्रसिद्ध हुई थी।
भारत में सीखा सी.एफ. एण्ड्रयूज़ से
श्री विन्सलो का जन्म 18 अगस्त, 1882 को इंग्लैण्ड के मिडलसैक्स के हैनवर्थ गांव में हुआ था। उनके पिता एक एंग्लिकन पादरी थे। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने ईटन के स्कूलों तथा ग्रैजुएशन ऑक्सफ़ोर्ड के बालियल कॉलेज से की थी। पढाई करते समय ही 1902 से 1905 के मध्य वह नव-हीगलियन दार्शनिक एडवर्ड केयर्ड, एंग्लो-कैथोलिक विद्वान तथा ‘लक्स मण्डी’ के संपादक चार्ल्स गोर तथा बालियल के चैपलेन एडविन जेम्स पामर (जो बाद में बम्बई के भी बिशप बने) जैसी शख़्सियतों के संपर्क में आ गए थे।
जब वह भारत में आए तो उन्होंने देखा कि दिल्ली एवं कलकत्ता जैसे शहरों में यीशु मसीह का सुसमाचार पूर्णतया भारतीय संदर्भ में ही सुनाया व समझाया जाता है। फिर वह दिल्ली में श्री सी.एफ. एण्ड्रयूज़ से मिले, उसके पश्चात् वह सदा के लिए श्री विन्सलो के मार्ग-दर्शक बन गए। श्री विन्सलो ने बम्बई में अपना एक मसीही आश्रम भी स्थापित किया। उन्होंने अपने आश्रम को राबिन्द्रनाथ टैगोर द्वारा बंगाल के बोलपुर स्थित आश्रम की तर्ज़ पर बनाया।
फिर वह इंग्लैण्ड वापिस लौट गए, जहां उन्होंने एक वर्ष सालिसबरी के वैल्स थ्योलोजिकल कॉलेज में और चार वर्ष विम्बलडन के पैरिश (चर्च) में बिताए। फिर वह डीकन बन गए तथा 1908 में चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड के पादरी नियुक्त हुए। कैन्टरबरी स्थित सेंट ऑग्सटीन’ज़ कॉलेज में वह तीन वर्ष लैक्चरार भी रहे।
भारतीय भक्ति लहर के बारे में सीखा नारायण वामन तिलक से
1914 में उन्हें ‘सोसायटी फ़ार दि प्रोपेगेशन ऑफ़ दि गॉस्पल’ (एस.पी.जी.) द्वारा बॉम्बे प्रैज़ीडैन्सी के कोंकण क्षेत्र में मिशनरी कार्यों हेतु भेजा गया। वह कोंकण क्षेत्र के दापोली नामक स्थान पर रहे, जो बम्बई से 100 मील दक्षिण में स्थित है। उन्होंने वहां पर अपना अधिकतर समय मराठी भाषा सीखने में लगाया। उन्हें डायोसीज़ ऑफ़ बम्बई का लाईसैन्स पहले ही मिल चुका था, जिसके बिशप एडविन पामर ही थे, जो बालियल कॉलेज में उनके शिक्षक रह चुके थे तथा वह भी श्री एण्ड्रयूज़ की तरह उनके मार्ग-दर्शक बने रहे। उन पर साधु सुन्दर सिंह का भी प्रभाव बना रहा। 1915 से लेकर 1919 तक वह अहमदनगर स्थित मिशन हाई स्कूल के प्रिन्सीपल रहे, जहां उनकी मुलाकात एक भारतीय मसीही कवि नारायण वामन तिलक (जिनके बारे में हम पहले विस्तारपूर्वक चर्चा कर चुके हैं) से हुई। श्री तिलक भी अहमदनगर के ही निवासी थे तथा अमेरिकन-मराठी मिशन के पादरी थे। श्री वामन से श्री विन्सलो ने भारतीय भक्ति लहर के बारे में सीखा।
अपने गिर्जाघर में लगवाए महात्मा बुद्ध व सीता माता के भी चित्र
भारत में उन्होंने भारतीय संस्कृति के अनुसार ही अपने चर्च की स्थापना की थी। उन्होंने अपने बिशप पामर की अनुमति से अपने गिर्जाघर की दीवारों पर एक ओर यशायाह नबी का चित्र बनवाया तो दूसरी ओर गया के बौद्ध वृक्ष के नीचे बैठे महात्मा बुद्ध का चित्र भी उन्होंने तैयार करवाया। श्रीराम की अर्द्धांगिनी सीता माता का चित्र भी उन्होंने पत्नी की वफ़ादारी को दिखलाने हेतु वहां पर बनवाय तो दूसरी ओर स्व-बलिदान की मूर्त रूथ का चित्र भी गिर्जाघर की दीवार पर सजाया। 11 जून, 1932 को उन्होंने अहमदनगर के सेंट बर्नाबास चर्च की स्थापना करवाई।
कई बार भारत आते-जाते रहे विन्सलो
श्री विन्सलो ने 1914 से लेकर 1934 के बीच भारत में रह कर मिशनरी कार्य किए। परन्तु बाद में आश्रम में कुछ विवाद उत्पन्न होने लगे थे। इसी लिए वह ऑक्सफ़ोर्ड ग्रुप मूवमैन्ट ‘मौरल रीयरमैन्ट’ के साथ जुड़ गए। तब उन्होंने एक पुस्तक ‘वैन आई अवेक’ (जब मैं जागा) लिखी। इंग्लैण्ड में रह कर तब उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं फिर 1942 से लेकर 1948 तक वह ब्रायनस्टोन स्कूल में चैपलेन (पादरी) नियुक्त रहे। 1948 से लेकर 1962 तक उन्होने नॉर्थ डेवॉन के ली ऐबे के धार्मिक केन्द्र में प्रथम चैपलेन के तौर पर भी कार्य किया।
जनवरी 1974 में वह फिर भारत के पूना में लौट आए तथा वहां पर अपने आश्रम में तीन सप्ताह तक रहे परन्तु शीघ्र ही वह इंग्लैण्ड लौट गए।
29 मार्च, 1974 को 91 वर्ष की आयु में उनका देहांत इंग्लैण्ड के सरी क्षेत्र के गांव गोडालमिंग में हो गया। उन्हें उनकी बहनों ईवलिन, मिल्डर्ड एवं वॉयलेट ने ईशिंग स्थित कब्रिस्तान में दफ़नाया।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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