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आज भी केरल के चर्चों में गाए जाते हैं पादरी वॉलब्रैख़्त नेगल द्वारा लिखे मल्यालम मसीही गीत



 




 


वॉलब्रैख़्त नेगल 1893 में जर्मनी से पहुंचे थे तामिल नाडू

श्री वॉलब्रैख़्त नेगल एक जर्मन पादरी थे, जो दिसम्बर 1893 ई. में भारत में तामिल नाडू के मालाबार क्षेत्र के कन्नोर तट पर पहुंचे थे। प्रारंभ में वह इवैन्जल्किल लूथरन चर्च के साथ जुड़े रहे थे ओर बाद में वह ‘प्लाईमाऊथ ब्रैदरन’ नामक एक अलग मसीही मिशन के साथ जुड़ गए थे। आज भी उन्हें ‘केरल ब्रैदरन’ लहर प्रारंभ करने वाले अग्रणी के तौर पर स्मरण किया जाता है। श्री नेगल का जन्म उत्तर जर्मन कन्फ़ैड्रेशन के नगर हैसी में 3 नवम्बर, 1867 को हुआ था। उनका परिवार अत्यंत धार्मिक था। उनके माँ-बाप का साया उनके बचपन में ही सर से उठ गया था। जब वह 18 वर्ष के थे, तो उन्होंने यीशु मसीह के बारे में बहुत बारीकी से जाना। वह मिशनरी बनने के उद्देश्य से 1886 में स्विटज़रलैण्ड के नगर बेसल चले गए और वहां बेसल मिशन ट्रेनिंग इनस्टीच्यूट में दाख़िला ले लिया और 1892 में वहां से ग्रैजुएशन संपूर्ण की।


केरल की एंग्लो-इण्डियन अध्यापिमका से विवाह रचाया

1893 में वह इवैन्जल्किल लूथरन मिशन के पादरी नियुक्त हो गए और उसी वर्ष वह भारत पहुंच गए। 1897 में उन्हेंने केरल के वर्तमान थ्रिसुर ज़िले के नगर कुन्नमकुलम की एक एंग्लो-इण्डियन अध्यापिका हैरियट मिचेल से विवाह रचाया। उनके पांच पुत्र एवं दो पुत्रियां हुईं, जिनमें से एक पुत्र एवं एक पुत्री का निधन उनके बचपन में ही हो गया था। श्रीमति हैरियट नेगल का निधन 27 जनवरी, 1935 को हुआ।


तब मसीहियत का गढ़ था कुन्नमकुलम

पादरी नेगल वानियनकुलम स्थित बेसल मिशन सैन्टर के मुख्य बने। उन दिनों इस मिशन के कुछ स्कूल व कुछ लघु उद्योग भी चला करते थे। उनका प्रबन्धकीय काम भी पादरी नेगल को ही देखना पड़ता था, जिसके कारण उन्हें लगता था कि उन्हें आध्यात्मिकता के लिए समय नहीं मिल पाता। इसी लिए 1896 में उन्होंने लूथरन चर्च छोड़ दिया और वानियनकुलम को भी अलविदा कह कर दक्षिण की ओर चल पड़े। कुन्नमकुलम में वह एक नए मसीही बने परामेल इतूप को मिले और तब उन्होंने वहीं उसी नगर में रहने का मन बना लिया। मसीही मिशनरी पहले काफ़ी समय से इस नगर में आते रहे थे, जिसके कारण यह शहर मसीहियत का गढ़ बना हुआ था।


पादरी नेगल द्वारा खोला यतीमखाना व विधवाओं हेतु गृह आज भी सक्रिय

स्थानीय लोगों से जुड़ने हेेतु उन्होंने मल्यालम भाषा सीखी और लोगों ने भी उन्हें बहुत सम्मान दिया। कुछ माह पश्चात् वह नीलगिरी पहाड़ियों की ओर गए और वहां पर इंग्लिश ब्रैदरन मिशनरी हैण्डले बर्ड से मिले। आगामी जून माह में स्वयं पादरी बर्ड ने कोयम्बटूर में पादरी नेजल को गोते का बप्तिसमा दे कर अपनी मिशन में सम्मिलित कर लिया। 1906 में पादरी नेगल ने केरल के नगर थ्रिसुर में एक यतीमखाना एवं विधवाओं के रहने के लिए एक गृह खोले, जिन्हें उन्होंने ‘रीहोबोथ’ नाम दिया। यह दोनों संस्थान आज भी चल रहे हैं।


प्रथम विश्व युद्ध के कारण जर्मनी में फंस गए, भारत नहीं लौट पाए

1914 में पादरी नेगल अपने देश जर्मनी वापिस चले गए। उनकी योजना अपने बड़े बच्चों को शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेजने एवं 6 माह में वापिस भारत आने की थी। परन्तु उन्हीं दिनों प्रथम विश्व युद्ध छिढ़ गया और वह अपनी योजना के अनुसार भारत वापिस न आ सके। जर्मन साम्राज्य के नागरिक होने के कारण वह ब्रिटिश हकूमत वाले मालाबार में नहीं आ सकते थे। इसी लिए वह 1914 में स्विटज़रलैण्ड चले गए। हैरियट एवं उनके तीन बच्चे भारत में मालाबार वापिस चले गए, जबकि दो बड़े बच्चे इंग्लैण्ड जाकर शिक्षा ग्रहण करने लगे। पादरी नेगल की बहुत इच्छा थी कि वह भारत लौटें पर तब वह कुछ कर नहीं सकते थे, क्योंकि परिस्थितियां ही कुछ ऐसी थीं।


पक्षाघात से हुआ था निधन

पादरी नेगल ने अपने देहांत से 4 वर्ष पूर्व एक पत्र भी पारावूर स्थित असैम्बली फ़ैलोशिप को लिखा था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि उनके मीठे ख़ज़ाने भारत में हैं और उनका दिल भी वहीं पर है। परन्तु तभी वह पक्षाघात (लकवा या पैरालाईसिस) रोग से पीड़ित हो गए और फिर जैसे बिस्तर ने ही उन्हें पकड़ लिया। परन्तु फिर भी वह वीडनैस्ट बाईबल स्कूल में पढ़ाने के लिए जाया करते थे और एक दिन वहीं पर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और 12 मई, 1921 को उनका निधन हो गया। उन्हीं दिनों उनकी पत्नी हैरियट उन्हीं के पास जर्मनी में ही थीं। 1898 में पादरी नेगल ने एक पुस्तक ‘क्रिस्चियन बैप्टिज़्म’ (मसीही बपतिस्मा) लिखी थी। उन्होंने अनेक मसीही गीत व भजन भी मल्यालम भाषा में लिखे थे, जो आज भी केरल की लगभग सभी मिशनों के गिर्जाघरों में गाए जाते हैं। उन्होंने कई पुस्तकों के अनुवाद भी किए थे।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

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