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55 वर्षों तक बिना कोई अवकाश लिए भारत के यतीम बच्चों व दुःखी महिलाओं की सेवा में कार्यरत रहीं एमी विल्सन कारमाईकल



 




 


भारत में एमी विल्सन के सामाजिक कार्यों को अत्यधिक मान्यता मिली

एमी विल्सन कारमाईकल आयरलैण्ड (इंग्लैण्ड) से 1886 में भारत आईं एक प्रोटैस्टैन्ट मसीही मिशनरी थीं। उन्होंने तामिल नाडू के एक छोटे से कसबे दोहनावूर में एक यतीमखाना खोला था तथा एक मसीही मिशन की स्थापना की थी। उन्होंने भारत में बिना कोई छुट्टी किए 55 वर्ष निरंतर आम लोगों, विशेषतया यतीम बच्चों की सेवा की। पूर्णतया भारतीय वेश-भूषा को अपनाया, मिशनरी कार्यों संबंधी अनेकों पुस्तकें लिखीं। सुश्री एमी विल्सन का जन्म 16 दिसम्बर, 1867 को आयरलैण्ड की काऊँटी डाऊन के गांव मिलायल में हुआ था। उनके पिता का नाम डेविड कारमाईकल था तथा माँ कैथरीन थीं। उनके माता-पिता प्रैसबाईटीरियन मसीही थे और सुश्री एमी विल्सन अपने सात भाई-बहनों में से बड़ी थीं। उनकी आंखें भूरी थीं, जबकि उनके सभी भाई-बहनों की आंखें नीली थीं। बचपन में बहुत देर उन्हें इसी बात का अफ़सोस बना रहा कि उनकी आंखों का रंग भी उनकी तरह नीला क्यों नहीं थीं। बचपन में वह यीशु मसीह के आगे कितने वर्ष प्रार्थना करती रहीं कि उनकी आंखें भी नीली हो जाएं परन्तु ऐसा कहां हो सकता था। परन्तु परमेश्वर ने तो उनसे भारत में बहुत से जन-कल्याणकारी काम लेने थे, यह प्रकृति का ही कुछ पहले से ही किया हुआ इन्तज़ाम था।। यदि सुश्री एमी विल्सन की आंखें नीली होतीं, तो शायद भारत में उन्हें इतनी मान्यता न मिल पाती, जितनी उन्होंने साढ़े पांच दशकों के दौरान भारत में कार्यरत रहते पाई।


प्रारंभ में ही धार्मिक कार्यों से जुड़ गईं थीं एमी विल्सन

सुश्री एमी विल्सन अभी 16 वर्ष की थीं, जब उनका परिवार उत्तरी आयरलैण्ड की राजधानी बैलफ़ास्ट में जाकर बस गया। उसके दो वर्षों के पश्चात् उनके पिता का देहांत हो गया। वहां पर सुश्री एमी विल्सन ने वैलकम इवैन्जलीकल चर्च की स्थापना की। धीरे-धीरे वहां पर कलीसिया (संगत) की संख्या बढ़ने लगी। उन्हें 500 श्रद्धालुओं के बैठने योग्य बड़े हॉल वाले चर्च की आवश्यकता थी। इसी दौरान सुश्री एमी विल्सन ने ‘दि क्रिस्चियन’ नामक समाचार-पत्र में एक विज्ञापन देखा, जिसमें लिखा था कि लोहे का एक हॉल केवल 500 पाऊण्ड में खड़ा हो सकता है, जिसमें 500 व्यक्ति आसानी से बैठ सकते हैं। तब एक मिल मालक ने चर्च की स्थापना हेतु एक बड़ा प्लॉट उपलब्ध करवाया तथा मिस केट मिचेल नामक एक श्रद्धालु ने 500 पाऊण्ड दान किए और इस प्रकार 1887 में कैम्ब्राई स्ट्रीट एवं हीथी स्ट्रीट के एक कोने में ‘वैलकम हॉल’ स्थापित हो गया। वहां पर अधिकतर मिल में काम करने वाले पुरुष व महिलाएं प्रार्थना हेतु आया करती थीं। मिल वर्कर सुश्री एमी विल्सन से बहुत ख़ुश थे। 1889 में मानचैस्टर में स्थित एक मिल की लड़कियों ने भी उन्हें अपने पास बुलाया और तब वह मसीही मिशनरी कार्य हेतु वहां चलीं गईं। परन्तु वहां पर वह ‘न्यूरलजिया’ रोग से पीड़ित हो गईं, जिसमें शरीर की सभी नसें कमज़ोर पड़ जाती हैं और सारा शरीर बहुत क्षीण होने लगता है तथा साथ में शरीर में दर्द बहुत होने लगता है। इसी कारण उन्हें कई-कई सप्ताह तक बिस्तर पर ही लेटे रहना पड़ता था।


बीमार पड़ने के कारण चीन जाते-जाते रह गईं

फिर 1887 में सुश्री एमी विल्सन ने केसविक कन्वैन्शन के दौरान ‘चाईना इनलैण्ड मिशन’ के संस्थापक श्री हडसन टेलर को सुना, जो अपने मिशनरी जीवन के बारे में बता रहे थे। उनका मन तो पहले ही इन बातों में रमता था। इसी लिए उन्होंने ‘चाईना इनलैण्ड मिशन’ में आवेदन-पत्र दे दिया। उनका चयन तुरन्त हो गया। फिर लन्डन में उन्हें महिला प्रशिक्षण गृह में रखा गया और जब वह चीन जाने की तैयारी कर ही रही थीं, वह फिर बीमार पड़ गईं और उनका जाना रद्द हो गया। फिर बाद में सुश्री एमी विल्सन ने चर्च मिशनरी सोसायटी के साथ जुड़ने का निर्णय लिया।


पहले जापान, फिर श्री लंका व अंततः भारत के नगर बंगलौर पहुंची एमी विल्सन

पहले सुश्री एमी विल्सन 15 माह के लिए जापान में रहीं, परन्तु वहां पर बीमार पड़ गईं और उन्हें आयरलैण्ड वापिस जाना पड़ा। फिर ठीक होने के पश्चात् उन्होंने कुछ समय के लिए सिलौन (श्री लंका) में मिशनरी कार्य किया और फिर चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड की ओर से भारत के नगर बंगलौर आ गईं। भारत में उनका मन बहुत अधिक लगा तथा वह कभी बीमार भी नहीं हुआ क्योंकि उन्हें यहां का जलवायु फ़िट बैठ गया था। भारत में सुश्री एमी विल्सन ने छोटी बच्चिों एवं महिलाओं के साथ अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य किए।


बहुत सी बच्चियों व महिलाओं को सदियों पुराने शोषण से बचाया

एमी विल्सन ने बहुत सी बच्चियों व महिलाओं को सदियों पुरानी सांस्कृतिक रीतियों के नाम से उनके साथ होते रहे शोषण से बचाया। तब दक्षिण भारत के कुछ मन्दिरों में पुजारियों द्वारा वेश्याएं (देवदासियां) रखने का प्रचलन था। बहुत सी महिलाएं ऐसी परंपराओं से बहुत अधिक परेशान थीं। सुश्री एमी विल्सन ने ऐसी बहुत सी महिलाओं एवं छोटी-छोटी बच्चियों का पुनर्वास किया।


एक फ़ैलोशिप की स्थापना की व अपने मिशनरी अनुभवों संबंधी कई पुस्तकें लिखीं

1901 में उन्होंने तामिल नाडू के कसबे दोहनावूर (जो भारत के दक्षिण छोर से केवल 30 मील की दूरी पर स्थित है) में एक फ़ैलोशिप की स्थापना की, जो दोहनावूर फ़ैलोशिप के नाम से ही प्रसिद्ध रही। उनके द्वारा अपने मिशनरी अनुभवों संबंधी लिखी गईं अनेक पुस्तकें; जैसे ‘दि गोल्ड कॉर्ड’ (1932) व ‘थिंग्ज़ एज़ दे आर: मिशन वर्क इन सदर्न इण्डिया’ (1903) बहुत चर्चित रहीं। दोहनावूर में उनके साथ एक हज़ार से अधिक बच्चियां रहती थीं। उन सभी की स्थिति ऐसी थी कि यदि सुश्री एमी विल्सन उन्हें अपने पास न लातीं, तो उनका जीवन अन्धकारमय होता। उन्हें बहुत सी धमकियां भी मिलतीं क्योंकि कुछ कथित धार्मिक लोगों द्वारा करवाई जा रही वेश्यावृत्ति का धन्धा बन्द हो गया था। परन्तु वह अडिग रहीं क्योंकि वह बच्चियां एवं महिलाएं उनके साथ थीं और वे कहती थीं ‘‘अम्मा हमें बहुत प्यार करती हैं, हम यहीं पर रहेंगी।’’


भारतीय मूल्यों का अत्यधिक सम्मान करती थीं एमी विल्सन

भारतीय संस्कृति का आदर करते हुए सुश्री एमी विल्सन स्वयं एवं उनके संगठन के सभी सदस्य विशुद्ध भारतीय वेश-भूषा ही धारण करते थे। सुश्री एमी विल्सन अपने शरीर पर काली कॉफ़ी मल लेती थीं, ताकि उनका शरीर भी कुछ भूरा या काला अर्थात भारतीय लगने लगे। कई बार तो उन्हें केवल एक बच्ची को शोषण से बचाने और उस तक पहुंचने के लिए मीलों तक पैदल धूल भरे कच्चे रास्तों पर चलना पड़ता था।


इंग्लैण्ड के महाराजा जॉर्ज-पंचम ने अस्पताल स्थापित करवाने हेतु एमी विल्सन को धन उपलब्ध करवाया

1912 में इंग्लैण्ड के महाराजा जॉर्ज-पंचम (पांचवें) की महारानी मेरी ने सुश्री एमी विल्सन द्वारा किए जा रहे मिशनरी कार्यों की बहुत सराहना की तथा उन्हें दोहनावूर में एक अस्पताल स्थापित करने हेतु धन उपलब्ध करवाया। 1813 तक उनकी फ़ैलोशिप में 130 लड़कियां आ चुकी थीं। 1916 में उन्होंने ‘सिस्टर्ज़ ऑफ़ दि कॉमन लाईफ़’ की भी स्थापना की, जो वास्तव में प्रोटैस्टैन्ट मिशन ही थी। 1918 में उन्होंने छोटे लड़कों के पुनर्वास के लिए भी एक गृह स्थापित किया, जहां पहले मन्दिरों में काम करने वाली ‘वेश्याओं’ के बच्चों की देखभाल की जाती थी।

घायल होने के पश्चात् बिस्तर पर लेटे-लेटे 16 पुस्तकें रच डालीं, कुल पुस्तकें ‘72 से भी अधिक’

1931 में सुश्री एमी विल्सन अचानक गिर कर बहुत बुरी तरह से घायल हो गईं और उन्हें फिर अपने अंतिम दो दशकों तक बिस्तर पर ही रहना पड़ा परन्तु तब भी अपनी प्रेरणादायक पुस्तकें व रचनाएं लिखने से नहीं रुकीं। उसी दौरान उनकी 16 पुस्तकें प्रकाशित हुईं; जिनमें से प्रमुख हैं - ‘हिज़ थौट्स सैड ... हिज़ फ़ादर सैड’ (1951), ‘इफ़’ (1953-मरणोपरांत), ‘ऐज्स ऑफ़ हिज़ वेज़’ (1955-मरणोपरांत) एवं ‘गॉड’ज़ मिशनरी’ (1957-मरणोपरांत)। कुछ विद्वान उनकी पुस्तकों की संख्या 35 और कुछ 72 से भी अधिक बताते हैं।


आज भी कार्यरत है एमी विल्सन द्वारा स्थापित दोहनावूर फ़ैलोशिप

सुश्री एमी विल्सन का निधन 18 जनवरी, 1951 को 83 वर्ष की आयु में हुआ। उन्होंने मरने से कुछ समय पहले कहा था कि उनकी कब्र पर पत्थर नहीं लगाना। जिन बच्चों व बच्चियों की उन्होंने देखभाल की थी, उन्होंने अपनी प्यारी एमी की कब्र पर केवल एक ही शब्द लिखा - ‘अम्मा’। उनके जीवन से प्रसिद्ध मिशनरी जिम इलियट एवं उनकी पत्नी एलिज़ाबैथ सहित अन्य बहुत से लोगों ने प्रेरणा हासिल की। सुश्री एमी विल्सन कारमाईकल द्वारा स्थापित ‘दोहनावूर फ़ैलोशिप’ अब भी कार्यरत है। उसके पास अपनी 400 एकड़ भूमि है, इस संस्थान का संचालन 500 व्यक्ति कर रहे हैं, 16 नर्सरियां तथा एक अस्पताल है। पीड़ित व दुःखी महिलाएं यहां पर रहती हैं। चर्च ऑफ़ साऊथ इण्डिया का तिरुनेलवेली डायोसीज़ इस संस्थान का पर्यवेक्षण करता है।


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