Tuesday, 25th December, 2018 -- A CHRISTIAN FORT PRESENTATION

Jesus Cross

स्वतंत्र भारत में आख़िर कोई मसीही क्यों नहीं बन पाया प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति?



 




 


भारत में विभिन्न मसीही मिशनें सक्रिय

भारत के प्रथम मसीही लोग, जिन्हें सीरियन क्रिस्चियन्ज़ कहा जाता है, वे अधिकतर केरल में ही रहते हैं। ये वे मसीही हैं, जो यीशु मसीह के शिष्य (प्रेरित) सन्त थोमा (थॉमस) के प्रभाव व प्रचार से प्रभावित होकर सन् 52 ई. सन् से लेकर 72 ई. सन् के दौरान मसीही बने थे। सेवियो अब्रियू के अनुसार ये सीरियन मसीही तथा मंगलौर व गोवा के समुद्री तटों के साथ-साथ रहने वाले मसीही समुदायों में से अधिकतर भारत की ‘उच्च जातियों’ से संबंधित हैं। वे शिक्षा के मामले में बहुत अग्रणी हैं तथा वे आर्थिक एवं राजनीतिक तौर पर भी बहुत समृद्ध हैं। लेकिन केरल व तामिल नाडू के समुद्री तटों पर मौजूद अधिकतर लैटिन मसीही समुदाय वे हैं, जो ग़रीब वर्गों से थे एवं जिन्होंने 16वीं शताब्दी ईसवी में यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण किया था। उनके साथ-साथ 17वीं. एवं 18वीं शताब्दी ईसवी में भी अधिकतर ‘निम्न एवं पिछड़े वर्गों’ के लोग मसीही बने थे। 19वीं एवं 20वीं शताब्दी ईसवी में मसीही बने अधिकतर (सभी नहीं) मसीही लोग भारत के दलित समुदायों से संबंधित रहे हैं। उधर छोटा नागपुर (वर्तमान झारखण्ड का अधिकतर क्षेत्र) एवं देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों के ज़्यादातर मसीही पहले कबाईली हुआ करते थे। भारतीय चर्च में सीरियन आर्थोडॉक्स, कैथोलिक्स, विभिन्न प्रोटैस्टैंट मिशनों, पैन्तीकौस्तल एवं बौर्न अगेन मसीही समुदायों के लोग सम्मिलित हैं। मसीही समुदाय में ऐसे विभाजन अकेले भारत में ही नहीं, बल्कि समस्त विश्व में ही हैं। ऐसे विभाजन का आधार केवल धार्मिक व सैद्धांतिक है।


एकता की कमी खलती है मसीही समुदाय में

Interesting Christian Fact इस प्रकार, भारत के मसीही सत्ता एवं सामाजिक रुतबों के लिहाज़ से कुछ दूर ही रहे हैं। विभिन्न मिशनों एवं समुदायों में बंटे होने तथा एकता की कमी के कारण भारतीय चर्च काफ़ी कमज़ोर रहा है। वह कभी ऐसी स्थिति में नहीं रहा कि वह दिल्ली की सरकार से कभी कोई अपनी बात मनवा सके। उदाहरण के तौर पर हम भारत के सिक्ख कौम को लें, तो उनकी संख्या देश में मसीही कौम से कुछ कम है, परन्तु उनके प्रतिनिधि राष्ट्रपति एवं प्रधान मंत्री जैसे पदों पर भी रह चुके हैं। वर्ष 2016 में, भारत सरकार को सिक्ख कौम के दबाव के चलते सिक्ख गुरुद्वारा अधिनियम में संशोधन करके सहजधारी सिक्खों को शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के चुनावों में मतदान करने से वंचित करना पड़ा। चाहे 70 लाख सहजधारी सिक्खों का प्रतिनिधित्व करने वाली ‘सहजधारी सिक्ख पार्टी’ के अध्यक्ष डॉ. परमजीत सिंह राणू मतदान का अपना लोकतांत्रिक अधिकार वापिस लेने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। परन्तु भारत की मसीही कौम में एकता की कमी के चलते कानून में इस प्रकार के परिवर्तन कभी संभव नहीं हैं। हां, भविष्य में यदि कहीं कभी एकता हो जाए, तो मसीही लोग भी इसी प्रकार अपनी देश की केन्द्र सरकार एवं संसद से अपनी बात मनवा पाएंगे परन्तु आज की तारीख़ में मसीही कौम में ऐसी एकता असंभव ही लगती है और ऐसा केवल मसीही नेताओं के अपने स्वयं के ‘अहं’ के कारण ही है। प्रत्येक मसीही मिशन व समुदाय को ऐसे लगता है कि यीशु मसीह के पास जाने व सच्चा उद्धार पाने का मार्ग केवल उन्हीं के पास है तथा शेष मसीही लोग ‘पापी एवं ‘मूर्ख’’ हैं। और ऐसी बातें पूर्णतया निराधार हैं। परन्तु बात वही कि ऐसी स्थिति समस्त विश्व में ही बनी हुई है। यही कारण है कि आज दो हज़ार वर्ष के पश्चात् भी हम मसीही लोग यीशु मसीह की कब्र तक पर अपना पूर्ण अधिकार नहीं ले पाए। एक ‘युनाईटिड इण्डियन चर्च’ अर्थात ‘संयुक्त भारतीय चर्च’ आज समय की आवश्यकता है।


देश को तोड़ने वाले लोग हुए अधिक सक्रिय

भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय धार्मिक अल्प-संख्यक मसीही समुदाय की स्थिति विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक कारणों के चलते अन्य अल्प-संख्यक समुदायों के मुकाबले में कहीं अधिक बेहतर थी और उसकी प्रमुख भूमिका हुआ करती थी; क्योंकि मसीही लोगों का अपना शैक्षणिक एवं मैडिकल संस्थानों का अपना एक विशाल एवं सशक्त नैटवर्क हुआ करता था। वैसे भी मसीही समुदाय अत्यंत शांति-प्रिय माना जाता है। परन्तु हमारा मानना यह है कि यह ‘शांति’ इस हद तक नहीं होनी चाहिए कि कोई सरकार आपसे आपके प्रार्थना करने के बुनियादी मौलिक अधिकार तक भी छीनती चली जाए। आर.एस.एस. व उससे संबंधित पूर्णतया सांप्रदायिक आधार वाले संगठन आज केवल इस लिए भारत के अल्प-संख्यक समुदायों के विरुद्ध बिना किसी भय के सरेआम अपनी गतिविधियों को अंजाम दे रही है। क्योंकि उसे देश की वर्तमान सरकार का अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त है। आर.एस.एस. के एजेण्डों को क्रियान्वित किया जा रहा है और ऐसे लोग अन्य सभी लोगों को मूर्ख समझ रहे हैं। ऐसे हिन्दुवादी संगठन, जो देश पर केवल अपना अकेले का प्रभुत्व चाहते हैं, वे बेचारे तभी सक्रिय हो पाते हैं, जब इनकी सरकार केन्द्र में आती है। जब इनकी सरकार नहीं होती, तब इनमें से किसी की ऐसा कुछ करने की कभी हिम्मत ही नहीं होती - क्योंकि ऐसे संगठनों के नेता पूर्णतया देश के संविधान के विपरीत जाकर भड़काऊ ब्यानबाज़ियां करते हैं तथा देश की सांप्रदायिक एकता व सदभाव को निरंतर ख़तरा बने हुए हैं।


आर.एस.एस. नहीं करती किसी को बर्दाश्त

यह आर.एस.एस. ही है, जिसके अपने गोपनीय दस्तावेज़ों में हमारे संविधान के निर्माता बाबा साहिब डॉ. भीम राव अम्बेडकर तक के लिए कुछ अपमानजनक शब्द प्रयोग किए जाते हैं। उन दस्तावेज़ों में सरेआम यह बात दर्ज है कि ‘‘आर.एस.एस. एवं उससे जुड़े हिन्दु संगठनों ने ‘......’ डॉ. अम्बेडकर द्वारा तैयार किए संविधान के साथ-साथ ईसाईयों, मुसलमानों व अन्य अल्प-संख्यक समुदायों का पूर्णतया सफ़ाया करना है।’’ इस दस्तावेज़ में स्पष्ट लिखा गया है कि आर.एस.एस. जानबूझ कर मसीही समुदाय के प्रति देश में विरोध भाव उत्पन्न करने के विभिन्न प्रकार के बहाने ढूंढेगा व आरोप लगाएगा। यह भी लिखा गया है कि सरकार विदेशी कंपनियों का बड़ा पैसा देश में लगवाए और फिर उसी धन से हिन्दुवादी एजेण्डे के अनुसार अन्य धर्मों के धार्मिक स्थानों को नष्ट करके वहां पर मन्दिर स्थापित करवाए। सचमुच ऐसे सांप्रदायिक दस्तावेज़ सख़्त निंदा व भर्त्सना के काबिल हैं।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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