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वाई.एम.सी.ए. को स्वतंत्रता आन्दोलनों से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले सुरेन्द्र कुमार दत्ता



 




 


द्वितीय गोलमेज़ कान्फ्ऱेंस में शामिल हुए थे एस.के. दत्ता

सुरेन्द्र कुमार दत्ता (1878-1948), जो अपने समय के दौरान भारत में एस.के. दत्ता के नाम से अधिक जाने जाते थे, का देश के स्वतंत्रता संग्राम में काफ़ी सक्रिय योगदान रहा है। वह लन्दन में 7 सितम्बर, 1931 से लेकर 1 दिसम्बर, 1931 के मध्य हुई द्वितीय गोलमेज़ कान्फ्ऱेंस में एक भारतीय मसीही डैलीगेट के तौर पर शामिल हुए थे। वह ‘यंग मैन्ज़ क्रिस्चिियन्ज़ ऐसोसिएशन’ (वाई.एम.सी.ए.) के भी प्रमुख नेताओं में से एक रहे हैं। वह स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व 1924 से लेकर 1926 तक भारत की शाही सैन्ट्रल लैजिसलेटिव असैम्बली (जिसे वर्तमान लोक सभा के समकक्ष माना जा सकता है) के भी सदस्य रहे।


फ़ोरमैन क्रिस्चियन कॉलेज, लाहौर के भारतीय मूल के पहले प्रिंसीपल भी थे एस.के. दत्ता

SK Datta श्री सुरेन्द्र कुमार दत्ता का जन्म 1878 ई. सन् में लाहौर (अब पाकिस्तान में) हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा भी उन्होंने वहीं से ग्रहण की थी। फिर युनिवर्सिटी ऑफ़ एडिनबरा (इंग्लैण्ड) से उन्होंने मैडिसन की डिग्री प्राप्त की। उनका विवाह रेना कार्सवैल से हुआ था, जो स्कॉटिश आईरिश महिला थीं और जनेवा (स्विट्ज़रलैण्ड) में वर्ल्ड स्टूडैंट क्रिस्चियन फ़ैड्रेशन की सचिव भी रही थीं। श्री दत्ता 1909 से लेकर 1914 तक लाहौर के फ़ोरमैन क्रिस्चियन कॉलेज में इतिहास एवं बायलॉजी के लैक्चरार भी रहे। उसके बाद 2 नवम्बर, 1932 को बोर्ड ऑफ़ डायरैक्टर्स ने उन्हें इसी कॉलेज प्रिंसीपल भी नियुक्त किया। वह इस कॉलेज के भारतीय मूल के पहले प्रिंसीपल थे और इस प्रकार उन्होंने इस कॉलेज के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत की थी। जिस दिन उन्हें पिं्रसीपल नियुक्त किया गया था, उस समय प्रख्यात बैरिस्टर व एलुमनी ऐसोसिएशन के अध्यक्ष सर अब्दुल कादिर, बौम्बे युनिवर्सिटी के उप-कुलपति (वाईस चांसलर) पादरी डॉ. जौन मकैन्ज़ी, अलाहाबाद क्रिस्चियन कॉलेज के प्रिंसीपल डॉ. चार्ल्स हरबर्ट, बोर्ड ऑफ़ डायरैक्टर्स के अध्यक्ष डॉ. एच.सी. वेल्ते जैसी शख़्सियतों ने उस समारोह को संबोधित किया था।

दिसम्बर 1932 में उन्होंने अपने कॉलेज की पत्रिका में क्रिस्मस का सन्देश देते हुए लिखा थ कि अब भारत में कुछ ऐसे राजनीतिक व संवैधानिक निर्णय होने जा रहे हैं, जो धर्म को एक नया अर्थ दे सकते हैं। अब धर्म का अर्थ फूट डालना नहीं, अपितु परस्पर सौहार्द, सदभावना व एकता को बढ़ावा देना होगा।


वाई.एम.सी.ए. के प्रमुख नेताओं में से एक रहे

इससे पूर्व 1919 से लेकर 1927 तक वह वाई.एम.सी.ए. केे भारत, बर्मा (अब म्यांमार) तथा सिलोन (अब श्रीलंका) के राष्ट्रीय सचिव रहे। फिर वह इस युवा मसीही संस्था के महा-सचिव भी बने। उनसे पूर्व इस पद पर श्री के.टी. पॉल नियुक्त रहे थे। श्री पॉल, श्री दत्ता एवं बिश्प वी.एस. अज़रियाह वाई.एम.सी.ए. के प्रमुख नेताओं में से एक रहे हैं। यह तीनों ही प्रमुख मसीही नेता 1931 की लन्दन गोलमेज कान्फ्ऱेंस में भारतीय मसीही समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उस कान्फ्ऱेंस में कुछ लोग तब गांधी जी का विरोध कर रहे थे - ऐसे समय में इन तीनों नेताओं ने ही उन लोगों को शांत किया था। उस कान्फ्ऱेंस में महात्मा गांधी जी,सरोजिनी नाइडू, मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद इकबाल (जिन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...’ गीत लिखा था), घनश्याम दास बिरला, मिर्ज़ा इस्मायल जैसे नेताओं ने भाग लिया था।


वाई.एम.सी.ए. को भी भारत में प्रसिद्ध कर दिया था तीन मसीही नेताओं ने

चाहे वाई.एम.सी.ए. सीधे तौर पर राजनीति में सक्रिय नहीं हो सकता था क्योंकि तब यह विदेशियों द्वारा दी जाने वाली दान-राशियों से चलता था, परन्तु इन तीनों (श्री के.टी. पॉल, श्री एस.के दत्ता एवं बिश्प वी.एस. अज़रियाह) ने इस संगठन को भारत में प्रसिद्ध कर दिया था और आम लोग भी इसका नाम सम्मानपूर्वक लेने लगे थे।

श्री दत्ता 1925, 1933 एवं 1934 में ऑल इण्डिया कान्फ्ऱेंस ऑफ़ इण्डियन क्रिस्चियन्ज़ के अध्यक्ष भी रहे। उससे भी पूर्व जून 1918 में उन्हें प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वाई.एम.सी.ए. में सेवाओं हेतु ऑर्डर ऑफ़ दि ब्रिटिश एम्पायर का सदस्य भी नियुकत किया गया था। 1921 में उन्होंने लेक मोहोंक (न्यूयार्क, अमेरिका) तथा 1928 में येरूशलेम (इस्रायल) में इन्टरनैश्नल मिशनरी काऊँसिल को भी संबोधन किया था।


वाई.एम.सी.ए. की पत्रिका में लेख लिख कर भारत के मसीही लोगों को स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने के लिए किया था प्रेरित

वाई.एम.सी.ए. की पत्रिका ‘दि यंग मैन ऑफ़ इण्डिया’ में उन्होंने अनेक लेख लिखे थे। अपने लेखों के द्वारा उन्होंने भारत के मसीही लोगों को स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था और उन में जागरूकता उत्पन्न की थी। श्री दत्ता का मानना था कि भारत के मसीही लोगों को हर हालत में देश के राष्ट्रीय जीवन में सक्रिय होना चाहिए। उन्हें लगता था कि मसीही लोगों को देश में एक अलग समुदाय के तौर पर नहीं, बल्कि आम भारतीयों की तरह ही रहना चाहिए, अन्यथा यह समुदाय पूर्णतया अलग-थलग पड़ जाएगा। सचमुच तब यह बात दूरदर्शिता वाली थी। उन्होंने ने ही यह दलील थी कि मसीही लोगों के लिए विधान सभाओं या राष्ट्रीय संसद में विशेष निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित रखने की आवश्यकता नहीं है।


देश के चर्च को विशुद्ध भारतीय बनाने में डाला योगदान

मारगैरिटा बार्नस ने श्री एस.के. दत्ता की जीवनी लिखी है। उस पुस्तक का नाम उन्होंने ‘एस.के दत्ता एण्ड हिज़ पीपल’ (एस.के. दत्ता तथा उनके लोग) रखा था। श्री दत्ता आजीवन भारत के लिए ही जिए व मरे। वह नहीं चाहते थे कि भारतीय चर्च या शैक्षणिक संस्थानों पर पश्चिमी देशों के लोगों का कब्ज़ा हो। परन्तु वह यह भी चाहते थे कि भारतीय मसीही समुदय आध्यात्मिक तौर पर और गहराई में जाए परन्तु विदेशी मसीही प्रचारकों पर ही निर्भर न रहे। कुछ भारतीय गिर्जाघरों में जाति के आधार पर भेदभाव के वह सख़्त विरुद्ध रहे।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

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