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मसीही समुदाय का पंजाब के शिक्षा व चिकित्सा क्षेत्र में रहा महत्त्वपूर्ण योगदान



 




 


20वीं शताब्दी के प्रारंभ में नेताओं का ध्यान दलितों की सुरक्षा की ओर अधिक जाने लगा था

इस समय पंजाबी मसीही समुदाय छवि अत्यंत साक्षर, प्रगतिशील एवं शहरों में रहने वाले लोगों की अधिक बनी हुई है, जबकि गुरदासपुर के बटाला, धारीवाल व अमृतसर के अजनाला क्षेत्रों में कई गांव के गांव मसीही लोगों से भरे हुए हैं तथा वहां पर मसीही लोग चुनाव-परिणामों में अदला-बदली करवाने की हैसियत भी रखते हैं। 1906 में आर्य समाज का ध्यान भी पंजाब के दलित समाज की ओर शायद पहली बार ही गया था क्योंकि उसी वर्ष अक्तूबर में आग़ा ख़ान नामक एक नेता एक प्रतिनिधि-मण्डल का नेतृत्व करते हुए भारत के तत्कालीन वॉयसरॉय श्री गिल्बर्ट ईलियट-मरे-काइनाइनमाऊण्ड (मिन्टो के चौथे अर्ल) से मिले थे और मुस्लमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र (चुनाव-हलके) मांगे थे। तभी उन्होंने यह निवेदन भी किया था कि दलितों को हिन्दु जन-संख्या में सम्मिलित न किया जाए क्योंकि वे उन्हें हिन्दु जाति के सदस्य नहीं मानते। ऐसे दबावों के चलते ही 1909 में मुसलमाानों को अलग निर्वाचन क्षेत्र दे दिए गए थे तथा फिर 1919 में सिक्खों के लिए भी ऐसी सुविधा की घोषणा कर दी गई थी।


पादरी गोलकनाथ ने 1846 में जालन्धर में स्थापित की थी मसीही मिशन

गोलकनाथ चर्च जालन्धर

जैसे 1837-38 के अकाल के समय ब्रिटिश राजनीतिक एजेन्ट की पत्नी श्रीमति न्यूटन ने लुधियाना में कन्याओं के लिए एक स्कूल खोला था, वैसे ही पादरी गोलकनाथ ने अंग्रेज़ों व सिक्खों के पहले युद्ध (जो 11 दिसम्बर, 1845 से 9 मार्च, 1846 तक चली थी) के पश्चात् ही जालन्धर में एक मसीही मिशन स्थापित कर दी थी तथा उसके तुरन्त बाद ही उन्हों एक स्कूल भी वहां पर खोल दिया था। लाहौर में चार्ल्स फ़ॉरमैन ने भी अंग्रेज़ों व सिक्खों के मध्य हुए द्वितीय युद्ध (जो 18 अप्रैल, 1848 से लेकर 30 मार्च, 1849 तक चला था) के बाद ऐसे ही किया था।

गोलकनाथ यादगारी चर्च जालन्धर नगर का सब से पुराना गिर्जाघर है। शहर के मध्य भाग में स्थापित सीएनआई से जुड़े इस चर्च की 100 वर्ष से भी अधिक पुरानी परन्तु शानदार वास्तुकला देखते ही बनती है।

पादरी गोलकनाथ पंजाब की दोआबा पट्टी में मसीही प्रचार करने वाले पहले भारतीय मिशनरी थे। उन्होंने जालन्धर व आस-पास के क्षेत्रों में 44 वर्षों तक अपनी निशकाम मिशनरी सेवाएं दीं। उनका जन्म 16 जून, 1816 ई. में तथा निधन 1 अगस्त, 1891 को हुआ था। प्रारंभ में सभी धर्मों के लोग परमेश्वर का वचन सुनने के लिए आया करते थे।


1854 में पंजाब की शिक्षा-प्रणाली को एक नई दिशा देने में मसीही मिशन के स्कूलों ने निभाई महत्त्वपूर्ण भूमिका

इसी प्रकार इंग्लैण्ड की चर्च मिशनरी सोसायटी ने भी अमृतसर पहुंच कर एक स्कूल खोला था, चाहे उस नगर में पहले से ही एक सरकारी स्कूल मौजूद था। उन दिनों में ये सभी स्कूल एक स्वायतत इकाईयां हुआ करते थे, क्योंकि वे सब अपनी इच्छा से पाठ्यक्र, पाठ्य-पुस्तकें व अध्ययन का माध्यम अंग्रेज़ी या हिन्दी/पंजाबी रखते थे। परन्तु 1854 में वुड डिस्पैच ने सरकारी व सभी सहायता प्राप्त स्कूलों में एक जैसे पाठ्यक्रम की प्रणाली लागू की थी। इस प्रकार उन दिनों पंजाब में शिक्षा-प्रणाली को एक नई दिशा देने में इन मिशन स्कूलों के मुख्य-अध्यापकों ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी। ऐसे मिशन स्कूल उन दिनों पंजाब में लुधियाना, जालन्धर, सियालकोट, गुजरांवाला, रावलपिण्डी व पेशावर में हुआ करते थे। इन्हीं स्कूलों ने तब महिलाओं व दलितों को शिक्षित करने की मोहरी भूमिका निभाई थी क्योंकि तब न तो महिलाओं को कोई शीघ्रतया पढ़ने स्कूल भेजता था और न ही कोई दलित भाईयों-बहनों को शिक्षित होने की सलाह भी देता था।


मिशन स्कूलों का बढ़िया शिक्षा देने का एकाधिकार 1882 में हो गया था समाप्त

उसके पश्चात् 1882 में एक शैक्षणिक आयोग (ऐजूकेशनल कमिशन) कायम हुआ। उस आयोग की सुनवाईयों के दौरान हिन्दु आर्य समाज, सिक्ख सिंह सभाएं तथा मुस्लिम अन्जुमनों से जुड़े लोग भी अपने-अपने विद्यालय खोलने हेतु प्रेरित हुए। इस प्रकार तभी बढ़िया शिक्षा प्रदान करवाने के क्षेत्र में मिशन स्कूलों का एकाधिकार समाप्त हो गया। ऐसे में मिशन स्कूलों के समक्ष केवल एक ही राह बच गया था कि वे अपने अध्यापकों व पाठ्यक्रमों को धर्म से दूर रखते हुए धर्म-निरपेक्ष रहें और अपनी शिक्षा की गुणवत्ता का पूरा ख़्याल रखें। ऐसे में मिशन स्कूल किसी भी परिस्थिति में पढ़ाते समय मसीही प्रचार के बारे में सोच भी नहीं सकते थे परन्तु अधिकतर स्कूलों ने ‘बाईबल स्टडी’ विषय को जारी रखा। फिर भी मसीही प्रचारक इन मिशन स्कूलों को अपने प्रचार हेतु इस्तेमाल नहीं कर पाते थे।


पाकिस्तान में रह गए सभी बढ़िया मसीही मिशन स्कूल

जॉन वैबस्टर के अनुसार पंजाब के गांवों में स्कूली शिक्षा प्रारंभ करने में भी मसीही समुदाय ने बड़ा योगदान डाला। मोगा में अध्यापकों को प्रशिक्षण देने हेतु एक ऐसा स्कूल खोला गया, जो उन्हें विशेष तौर पर गांवों के बच्चों को पढ़ाने हेतु प्रशिक्षित करता था। फिर 1947 में देश स्वतंत्र हो गया और जितने भी बढ़िया मसीही स्कूल थे, वह पाकिस्तानी क्षेत्र में चले गए, जैसे - लाहौर स्थित फ़ॉरमैन क्रिस्चियन कॉलेज, किनायर्ड कॉलेज, रावलपिण्डी स्थित गौर्डन कॉलेज, स्यालकोट का मरे कॉलेज एवं पेशावर स्थित एड्वडर््स कॉलेज। वर्तमान पंजाब में केवल बटाला (जिला गुरदासपुर) में ही एकमात्र मसीही कॉलेज, बेरिंग क्रिस्चियन कॉलेज बचा है, वह भी पहले इन्टरमीडिएट से डिग्री कॉलेज बना तथा बाद में वहां पर पोस्ट-ग्रैजुएट कोर्स शुरु हुए। परन्तु यह स्कूल प्रदेश के मुख्य शहरी क्षेत्रों की शैक्षणिक आवश्यकताएं कभी पूरी नहीं कर पाया। फिर सरकार ने जब पंजाब के गांवों में धड़ाधड़ स्कूल खोलने प्रारंभ किए, तो मसीही मिशनों ने गांवों में चलने वाले अपने स्कूल बन्द कर दिए। परन्तु रोमन कैथोलिक मसीही मिशन ने 1973 में पंजाब के गांवों में अंग्रेज़ी माध्यम वाले नए स्कूल खोलने प्रारंभ किए।


मसीही मिशनों ने पंजाब में खोले कई अस्पताल

अब मसीही अस्पतालों की बात करते हैं। दिनांक 27 दिसम्बर, 1862 को पंजाब मिशनरी कान्फ्ऱेंस में राज्य में मसीही अस्पताल खोले जाने का प्रस्ताव रखा गया। उसके बाद ही लुधियाना मिशन के श्री जॉन न्यूटन ने उस प्रस्ताव की ज़ोरदार ताईद की। चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड की ज़नाना मिशनरी सोसायटी ने अमृतसर में सेंट कैथरीन हस्पताल की स्थापना की थी। इसी प्रकार असरारपुर गांव में एक छोटा आम अस्पताल खोला गया था, जहां महिला डॉक्टर के.एम. बोस नियुक्त थीं। स्यालकोट एवं सरगोधा में महिलाओं के लिए विशेष अस्पताल खोले गए थे। लुधियाना मिशन ने अम्बाला एवं फ़िरोज़पुर में भी दो महिला अस्पताल खोले थे। लेकिन सब से अधिक महत्वपूर्ण लुधियाना का क्रिस्चियन मैडिकल कॉलेज (सी.एम.सी.) एवं अस्पताल सिद्ध हुआ, जिसकी स्थापना 1881 में हुई थी। यहां पर 1894 में मसीही महिलाओं को मैडिसन की शिक्षा दी जाने लगी तथा इसे 1902 में मैडिकल स्कूल के तौर पर सरकारी मान्यता भी मिल गई। फिर 1909 में पंजाब सरकार ने सी.एम.सी. प्रबन्धकों से कहा कि वे अपने यहां पर ग़ैर-मसीही विद्यार्थियों को भी दाख़िल करें।

1915 में इसकी सभी मैडिकल छात्राओं को लाहौर मैडिकल कॉलेज के महिला विभाग में हस्तांत्रित कर दिया गया। उस समय लुधियाना के सी.एम.सी. का नाम महिला मसीही मैडिकल कॉलेज रख दिया गया था। इस अस्पताल में पहली बार पुरुष रोगी 1947 में देश-विभाजन के समय हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान भर्ती किए गए थे। वर्ष 1951 में यह एम.बी.बी.एस. स्तर के लिए अपग्रेड हुआ। इस अपग्रेडेशन की एक शर्त थी कि इस मैडिकल कॉलेज में सह-शिक्षा अर्थात लड़कियों व लड़कियों को एक साथ पढ़ने की अनुमति दी जाए। फिर 1957 में सी.एम.सी. के एक नए अस्पताल भवन का निर्माण किया गया, 1973 में बी.एस-सी. नर्सिंग और 1985 में एम.एस-सी. स्तर की शिक्षा दी जाने लगी। वर्ष 1991 में यहां पर डैन्टल कॉलेज भी खुल गया।


नर्सिंग से कैसे जुड़ गया भारतीय मसीही समाज?

पंजाब में मसीही मिशनरियों ने विशेष रूप से डॉक्टरों को बुलवाया और राज्य की महिलाओं को अंग्रेज़ी दवाईयां देना प्रारंभ किया। उन समयों में इस राज्य (शायद समस्त भारत) में कुछ पुरुष तो अंग्रेजी (एलोपैथी) दवाईयां ले लिया करते थे, परन्तु महिलाएं तो केेवल आयुर्वेदिक उपचार या घरेलू नुसखों पर ही निर्भर थीं। अंग्रेज़ मसीही मिशनरियों ने पंजाब के गांवों में डिस्पैन्सरियां व छोटे स्वास्थ्य केन्द्र खोले गए। मिशनरियों ने बाहर से आए डॉक्टरों की सहायता के लिए पहले मसीही लड़कियों को इन डिस्पैन्सरियों व छोटे अस्पतालों में कार्य करने हेतु प्रशिक्षित किया। तब से ही अधिकतर मसीही परिवारों की कोई न कोई लड़की नर्सिंग अवश्य करती है। 1870 से लेकर 1890 के दौरान प्रारंभ हुआ यह रुझान आज भी जारी है। मसीही प्रचार के बाद शिक्षा व मैडिकल क्षेत्र मसीही मिशनरियों के लिए अधिकतम प्राथमिकता बन गए थे।


भारत के ही हो कर रह गए थे अनेक विदेशी मसीही मिशनरी

वर्ष 1880 के बाद तो विदेश से अकेली मसीही महिलाएं भी प्रचारक के तौर पर आने लगी थीं। परन्तु वे भी अधिकतर सामाजिक-कल्याण के कार्यों में ही व्यस्त रहती थीं। वे यहां आकर स्थानीय लोगों को विभिन्न समस्याओं से निकालने में अधिक समय व्यतीत करती थीं, मसीही प्रचार तो बाद की बात हुआ करती थी। वे लोग विदेश से आकर अपना सब कुछ भूल जाते थे, इसी लिए उनमें अधिकतर मसीही मिशनरी भारत में सामाजिक कल्याण कार्य करते हुए विशुद्ध भारतीय ही हो जाया करते थे।


विदेशी मसीही मिशनरियों की सराहना करने के स्थान पर निंदा करने लगे समाज विरोधी तत्त्व

परन्तु अफ़सोस है कि आधुनिक भारत का जब उदय हो रहा था, तो उस समय विदेशी मसीही मिशनरियों द्वारा भारत में डाले गए योगदान की आज कुछ प्रशंसा करने की बजाय कुछ समाज विरोधी तत्व उनकी निंदा अधिक करते हैं। भारत की संस्कृति तो यही है कि यदि किसी ने आप पर कभी कोई अहसान किया है, तो आप कभी उस के प्रति अकृतज्ञ नहीं हो सकते। परन्तु यह समाज विरोधी तत्व, जो शरेआम देश के सभी अल्प-संख्यकों को किसी न किसी बहाने से बुरा-भला कहते ही रहते हैं। विदेशी मसीही मिशनरियों के लिए तो ऐसे तत्वों के मुख पर अपशब्द ही देखे जाते हैं, उनका अहसान मानना तो बहुत दूर की बात है। अमृतसर स्थित सेंट कैथरीन अस्पताल के संचालन का उत्तरदायित्व चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड की ज़नाना मिशनरी सोसायटी के पास था और एक भारतीय महिला डॉक्टर के.एम. बोस गांव आसरापुर में स्थित एक छोटे जनरल अस्पताल की इन्चार्ज हुआ करतीं थीं। स्यालकोट एवं सरगोधा के मिशन अस्पतालों में अधिकतर युनाईटिउ प्रैसबिटिरियन की महिला मैडिकल मिशनरीज़ कार्यरत रहती थीं।


पंजाब में मसीही समुदाय को अधिकतर दलित ही समझा जाता है

स्वतंत्रा प्राप्ति के पश्चात् भारतीय पंजाब के गांवों में हुए कुछ अध्ययनों से यही निष्कर्ष सामने आए हैं कि मसीही लोगों के अन्य लोगों के साथ संबंध कभी धर्म के आधार पर नहीं बल्कि उनकी मूल जाति की स्थिति तथा उनके पास मौजूद शक्ति के आधार पर ही बनते या बिगड़ते रहे हैं। वर्ष 1977 में गुरदासपुर के छः ऐसे गांवों में एक ऐसा ही दिलचस्प अध्ययन किया गया था, जहां पर मसीही समुदाय की संख्या काफ़ी अधिक है। उस अध्ययन के परिणामों से यही बात सामने आई कि मसीही लोगों व सिक्खों के बीच धर्म या धार्मिक मूल्यों का कहीं कोई योगदान नहीं था। उनके परस्पर संबंध केवल सामाजिक-आर्थिक तौर पर ही पारिभाषित होते थे और अब भी होते हैं। अधिकतर मामलों में उनका रिश्ता ज़िमींदार एवं मज़दूरों अर्थात श्रमिकों वाला है और कहीं पर कोई मसीही व्यक्ति ज़िमींदार है व सिक्ख लोग उसके पास काम करते हैं तो किसी अन्य स्थान पर यदि सिक्ख ज़िमींदार है, तो मसीही तथा अन्य जाति या धर्मों के लोग उनके पास श्रमिक के तौर पर कार्यरत हैं। जहां पर इन परस्पर संबंधों को स्वीकृति है, वहां पर तो मसीही लोगों व सिक्खों के मध्य परस्पर रिश्ते काफ़ी मधुर हैं तथा जहां पर इन रिश्तों को कोई मान्यता प्राप्त नहीं है, वहां पर संबंध ठीक नहीं है। एक गांव में तो बहुसंख्या होने के कारण पंचायत पर मसीही समुदाय का कब्ज़ा है, तो वहां पर सिक्खों व मसीही लोगों के परस्पर ठीक नहीं हैं। इस अध्ययन के पश्चात् हुए दो अन्य अध्ययनों में भी यही बात उभर कर सामने आई कि - पंजाब के गांवों में मसीही लोगों को प्रायः दलित जाति से ही जोड़ कर देखा जाता है और गांवों में दलित का दर्जा ऊँचा नहीं होता, इसी लिए गांवों में उनके साथ वैसा ही व्यवहार होता है।


पंजाब में मसीही लोगों व सिक्खों के बीच मधुर संबंध हैं

पंजाब के शहरों में भी मसीही लोगों को ऐसी ही नज़र से देखा जाता है परन्तु जो शिक्षित मसीही हैं, उनकी स्थिति पूर्णतया भिन्न है। मसीही लोग व्हाईट कॉलर नौकरियां अधिक करते हैं। इन दोनों समुदायों के परस्पर संबंधों में मधुरता लाने हेतु उद्यम किए जाते रहे हैं। ऐसा ही एक प्रयास 1966 में बटाला के बेयरिंग यूनियन क्रिस्चियन कॉलेज में ‘क्रिस्चियन इनस्टीच्यूट ऑफ़ सिक्ख स्टडीज़’ स्थापना द्वारा किया गया था। इस संस्थान का उद्देश्य मसीहियत की अन्य किसी धर्म से सर्वोच्चता प्रकट करना नहीं, अपितु दोनों धर्मों के बीच संबंध और सशक्त करना था। यह संस्थान प्रायः दोनों धर्मों के विद्वानों की सहायता से परस्पर बातचीत करते रहते हैं। यह केवल एक-दूसरे को समझने के लिए किया जाता है। परन्तु 1984 के ऑप्रेशन ब्लू-स्टार के बाद ऐसे कुछ प्रयासों का सिक्ख अकादमिक क्षेत्रों में विरोध हुआ और इस संस्थान को अपना नाम बदल कर ‘क्रिस्चियन इनस्टीच्यूट ऑफ़ रिलीजियस स्टडीज़’ रखना पड़ा। इसके अतिरिक्त पंजाब के दोनों समुदाय सिक्ख व मसीही एक दूसरे के धार्मिक व अन्य पर्वों/समारोहों में बाकायदा भाग लेते हैं।


मसीही लोगों का पंजाबी संस्कृति में भी योगदान महत्त्वपूर्ण

यह भी एक तथ्य है कि मसीही मिशनरी पंजाब में पूर्णतया संगठित रूप से आते थे, वे एक प्रबन्ध से बंधे होते थे। उन्हें देख कर आर्य समाज, सिंह सभाओं व मुस्लिम अंजुमनों ने स्वयं को और अधिक संगठित कर लिया। इन संगठनों को भी मसीही मिशनरी संस्थाओं की तरह स्वयं को एक सशक्त प्रबन्ध के साथ जोड़ा।

19वीं शताब्दी के पंजाब में अवश्य कुछ मसीही विदेशी रहे हों परन्तु 20वीं शताब्दी के पूवार्द्ध तक अर्थात 1950 तक के पंजाब में मसीही विशुद्ध पंजाबी ही थे, जो पंजाब में ही पैदा हुए थे। पर उसके पश्चात् दक्षिण भारत के कुछ मसीही प्रचारक आए तो ज़रूर पर मसीही समुदाय में अधिक संख्या पंजाब में पैदा हुए लोगों की ही है।

मसीही लोगों का पंजाबी संस्कृति में भी योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। उन्होंने ही पहले व्याकरण व शब्दकोश तैयार किए थे। मसीही बाईल का अनुवाद भी उन्होंने ही किया था। पश्चिमी देशों में बहुत प्रसिद्ध रही एक धार्मिक पुस्तक ‘पिलग्रिम’ज़ प्रोग्रैस’ का भी पंजाबी अनुवाद किया गया था, जिसे आधार बना कर बाद में बहुत से पंजाबी लेखकों नो अन्य साहित्यक कृतियां रचीं। जॉन न्यूटन ने 1851 में पंजाबी भाषा का पहला व्याकरण तैयार किया था। उन्होंने ही 1854 में पहली पंजाबी शब्दावली पुस्तक की रचना भी की थी। उन्होंने लेवी जानवियर के साथ मिल कर 1854 में ही पंजाबी भाषा का प्रथम शब्दकोश भी तैयार किया था।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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