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दूसरे देशों पर आक्रमण करने की इंग्लैण्ड की नीति का लिखित विरोध करने वाले भाषा-विज्ञानी हैनरी मार्टिन



 




 


भारत में भाषा विज्ञान में महत्त्वपूर्ण कार्य करने वाले हैनरी मार्टिन

हैनरी मार्टिन एक एंग्लिकन पादरी व मिशनरी थे, जिन्होंने भारत एवं पर्सिया में काम किया और वह अप्रैल 1806 में भारत आए थे। उनका जन्म 18 फ़रवरी, 1781 को दक्षिण-पश्चिम इंग्लैण्ड के कॉर्नवाल के नगर टरूरो में हुआ था। उन्होंने अपनी शिक्षा टरूरो ग्रामर स्कूल एवं कैम्ब्रिज के सेंट जौन’ज़ कॉलेज में हुई थी। चार्ल्स सिमियौन के साथ उनकी एक मुलाकात ने उन्हें मसीही मिशनरी बना दिया था। वह चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड की ओर से पादरी नियुक्त हुए थे तथा ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के चैपलेन बने। भाारत में उन्होंने भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में कार्य किए। उन्होंने पवित्र बाईबल का ‘नया नियम’ उर्दू, फ़ारसी एवं यहूदी-फ़ारसी भाषाओं में अनुवाद किया था। ‘भजन संहिता’ की पुस्तक उन्होंने फ़ारसी भाषा में तथा ‘बुक ऑफ़ कॉमन प्रेयर’ (सामान्य प्रार्थना की पुस्तक) को उन्होंने उर्दू में अनुवाद किया था। भारत से वह बुशयर, शीराज़, इसफ़ाहन एवं तबरीज़ जैसे क्षेत्रों की ओर गए थे।

एक दिन पादरी हैनरी मार्टिन को बहुत तेज़ बुख़ार हो गया और उन्हें विवश हो कर तुर्की के एक राज्य तोकात में रुकना पड़ा, जबकि उन दिनों वहां पर प्लेग रोग फैला हुआ था। और इस प्रकार केवल साढ़े 31 वर्ष की आयु में ही 16 अक्तूबर, 1812 को उनका निधन हो गया। उन्हें उनके हौसले, निःस्वार्थ सेवा एवं धार्मिक समर्पण की भावना के लिए याद किया जाता है। उन्हें 19 अक्तूबर को आज भी ‘लैस्सर फ़ैस्टीवल’ के नाम से याद किया जाता है।


बचपन से ही पढ़ने में बहुत होनहार थे हैनरी मार्टिन

श्री हैनरी मार्टिन बचपन से ही पढ़ने में बहुत होनहार थे। गणित सहित अन्य विषयों में वह बहुत मेधावी छात्र रहे थे। 1801 में उन्हें स्मिथ का पहला पुरुस्कार भी मिला था और 1802 में वह अपने कॉलेज के फ़ैलो चुने गए थे। उनके पिता जॉन मार्टिन ग्वेनैप में एक खान-एजेन्ट (कैप्टन) थे।

श्री हैनरी मार्टिन 5 जुलाई, 1805 को भारत के लिए रवाना हुए थे। अपनी यात्रा के दौरान 8 जनवरी, 1806 को जब दक्षिण अफ्ऱीका की केप कालोनी पर इंग्लैण्ड की सेनाओं की जीत हुई थी, उस दिन वह वहीं पर थे। उन्होंने उस दिन बहुत से मर रहे सैनिकों को देखा था और वह युद्ध की भयानकता को देख कर अत्यंत दुःखी हुए थे।


हैनरी मार्टिन ने किया दूसरे देशों पर आक्रमण करने की इंग्लैण्ड की नीति का लिखित विरोध

हैनरी मार्टिन ने महसूस किया था कि उनके देश इंग्लैण्ड को इस प्रकार जगह-जगह पर अपना बस्तीवादी शासन स्थापित नहीं करना चाहिए। उन्होंने इच्छा प्रकट की कि काश इंग्लैण्ड के शासक अपनी यह नीति बदल लें। उस दिन उन्होंने अपनी डायरी में लिखाः ‘‘मैंने प्रार्थना की कि ....इंग्लैण्ड अपनी सेनाओं समस्त संसार के दूर-दराज़ के क्षेत्रों में इस प्रकार से भेजता है, इस पर गर्व करने वाली कोई बात नहीं है क्योंकि यह परमेश्वर की शिक्षाओं के विरुद्ध है। इंग्लैण्ड को समस्त संसार में अपनी सेनाएं नहीं, अपितु शांति का सुसमाचार प्रचारित एवं प्रसारित करने वाले पादरी साहिबान एवं मिशनरियों को भेजना चाहिए।’’


भारत के कई स्थानों पर रहे हैनरी मार्टिन

अप्रैल 1806 को वह भारत पहुंच कर कुछ दिन बंगाल के नगर सीरामपुर के पास आल्डीन में रहे। अक्तूबर 1806 को वह दीनापुर चले गए, जहां वह स्थानीय लोगों की भाषा में उनसे बातें करने और बाद में वहां पर स्कूल खोलने में सफ़ल रहे। फिर उनका हस्तांत्रण कानपुर में हो गया, जहां उन्हें स्थानीय लोगों की बहुत सी धमकियां भी मिलीं परन्तु उन्होंने अपना कार्य बेख़ौफ़ हो कर जारी रखा। 7 जनवरी, 1811 को वह बम्बई के लिए रवाना हुए और उनका समुद्री जहाज़ उनके 30वें जन्म दिवस अर्थात 18 फ़रवरी को बम्बई पहुंचा था। वहां से वह मध्य-पूर्व के देशों के लिए रवाना हो गए थे। भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में उनके नाम से एक संस्थान ‘हैनरी मार्टिन इनस्टीच्यूटः एन इन्टरफ़ेथ सैन्टर’ स्थापित किया गया है।


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-- -- मेहताब-उद-दीन

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