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भारत में आधुनिक शिक्षा लाने में बड़ा योगदान डालने वाले डेविड हेयर



 




 


डेविड हेयर ने कलकत्ता में किए हिन्दु स्कूल व हेयर स्कूल स्थापित

डेविड हेयर (17 फ़रवरी, 1775-1 जून, 1842) स्कॉटलैण्ड के एक घड़ीसाज़ (घड़ियों की मरम्मत करने वाला) थे। उन्होंने भारत के बंगाल क्षेत्र में बहुत से शैक्षणिक एवं कल्याण कार्य किए। उन्होंने कलकत्ता (अब कोलकाता) में अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों; जैसे कि हिन्दु स्कूल एवं हेयर स्कूल की स्थापना की तथा उन्होंने प्रैज़ीडैंसी कॉलेज की स्थापना में सहायता की थी। वह सन् 1800 में भारत आए थे। वह यहां पर एक घड़ी साज़ के तौर पर अपनी किस्मत आज़माना चाहते थे। परन्तु यहां पर अधिकतर भारतियों की दयनीय दशा देख कर वह कुछ विचलित हो गए। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया कि वे विदेशों से आए तो इसे ‘सोने की चिड़िया’ जान कर थे, परन्तु जब उन्हें केवल कुछ साधुओं की कुछ आध्यात्मिक बातों के सिवा कुछ न मिला, तो वे वापिस लौट गए। परन्तु श्री हेयर ने यहां भारत में ही रह कर कार्य करने का महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया।


राजा राममोहन राय व डेविड हेयर के प्रयासों से कलकत्ता में ऐसे हुई थी हिन्दु कॉलेज की स्थापना

श्री डेविड हेयर कोई मिशनरी नहीं थे कि उन्हें किसी भारतीय को मसीही बनाने का कोई लालच होता। वह तो अपना स्वयं का जीवन शांतिपूर्वक जीना चाहते थे तथा अन्य लोगों के लिए भी वह यही चाहते थे; अपितु वह तो अन्य सभी लोगों का जीवन बेहतर बनाना चाहते थे। श्री हेयर को महसूस हुआ कि भारतियों को अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान की बहुत अधिक आवश्यकता है। यह बात वह अपनी दुकान पर आने वाले अपने बहुत से ग्राहकों के साथ साझी कर के उनके विचार जाना करते थे, जो उनके यहां नई घड़ियां लेने हेतु आते थे।

इस बीच श्री हेयर की मुलाकात राजा राममोहन रॉय से हुई, जब वह 1814 में कलकत्ता पहुंचे थे। शीघ्र ही वे दोनों घनिष्ठ मित्र बन गए। एक बार राजा राममोहन रॉय एक आत्मीय सभा (राजा जी ने यह सभा 1815 में स्थापित की थी) को संबोधन करने वाले थे, जब श्री हेयर वहां पहुंचे थे। दोनों ने कोलकाता में एक अंग्रेज़ी स्कूल खोलने के बारे में विचार किया। उस आत्मीय सभा के एक सदस्य हुआ करते थे बाबू बुद्धिनाथ मुकर्जी - उन्होंने यह बात सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ़ जस्टिस सर हाईट ईस्ट से की। और इस प्रकार हिन्दु कॉलेज की नींव रखी गई, जिसे बाद में 20 जनवरी, 1817 को प्रैज़ीडैंसी स्कूल का नाम दिया गया।


डेविड हेयर ने प्रकाशित कीं अंग्रेज़ी एवं बंगला भाषा में पाठ्य-पुस्तकें

6 मई, 1817 को श्री हेयर ने ‘स्कूल बुक सोसायटी’ की स्थापना की। उसने अंग्रेज़ी एवं बंगला भाषा में पाठ्य-पुस्तकें प्रकाशित करने की पहलकदमी की। बंगाल क्षेत्र में नवयुग लाने में इस सोसायटी ने बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान डाला। फिर 1 सितम्बर, 1818 को उन्होंने कलकत्ता स्कूल सोसायटी की स्थापना की। श्री हेयर एवं राधाकान्त देब दोनों इस सोसायटी के सचिव (सैक्रेटरी) थे। श्री हेयर प्रतिदिन हिन्दु कॉलेज सहित अन्य भी कई स्कूलों में जाया करते थे, प्रत्येक विद्यार्थी से मिलते थे। इन्हीं परिस्थितियों में अलैगज़ैण्डर डफ़ एवं हैनरी लुई विवियन डेरोज़ियो तो बहुत बाद में आए परन्तु तब तक श्री हेयर इस दिशा में काफ़ी कुछ कर चुके थे।

1824 में स्थापित हुई ‘लेडीज़’ सोसायटी फ़ार नेटिव फ़ीमेल एजूकेशन’ को भी श्री हेयर अपने कीमती सुझाव दिया करते थे। इस सोसायटी द्वारा लिए जाने वाली परीक्षाओं में तो वह सदा उपस्थित रहा करते थे।


डेविड हेयर के मृत शरीर को जब मसीही कब्रिस्तान में दफ़नाने न दिया गया तो....

बाद में श्री हेयर ने अपना घड़ियों का कारोबार ग्रे नामक अपने एक मित्र को दे दिया था तथा फिर उन्होंने अपना एक छोटा सा घर ख़रीदा और स्कूलों के विकास के लिए कार्यरत रहे। लम्बा समय कार्य करते रहने के कारण वह बीमार पड़ गए। उन्हें हैज़ा हो गया। उनके एक विद्यार्थी डॉ. पसन्न कुमार मित्रा ने चाहे उनका उपचार करवाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी परन्तु 1 जून, 1842 को श्री हेयर का निधन हो गया। उनके निधन का समाचार पूरे कलकत्ता नगर में फैल गया। लोग शोक में डूब गए। उनमें से अधिकतर तो श्री हेयर के स्कूलों में पढ़ने वाले या पढ़ चुके विद्यार्थी ही थे। उधर मसीही मिशनरियों ने अपने कब्रिस्तानों में श्री हेयर की देह को दफ़नाने की अनुमति न देने का निर्णय ले लिया क्योंकि वे समझते थे कि श्री हेयर मसीही धर्म को नहीं मानते। जबकि यह बात ग़लत है, क्योंकि उनका तो सारा जीवन ही मसीही सिद्धांतों पर आधारित रहा था।

ऐसी परिस्थितियों में श्री हेयर की मृत देह को हेयर स्कूल-प्रैज़ीडैंसी ऑफ़ कॉलेज के कम्पाऊण्ड में दफ़नाया गया। उनका मकबरा आज भी कॉलेज स्कवेयर के बीचों बीच मौजूद है और उस पर उनकी आधे धड़ वाली मूर्ति लगी हुई है। कॉलेज के बाहर बिल्कुल सामने भी उनका आदमकद बुत्त लगा हुआ है। उनके जनाज़े में सभी धर्मों के लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे। लोगों ने इतनी भीड़ बॉव-बाज़ार से लेकर माधव दत्ता के बाज़ार तक पहले कभी नहीं देखी थी। जिस सड़क पर उनका घर था, उसका नाम हेयर मार्ग रखा गया है। यह सड़क बिनॉय-बादल-दिनेश बाग़ (जिसे पहले डल्हौज़ी स्कवेयर कहा जाता था) के पास है।


पीयरी चन्द मित्रा ने लिखी थी डेविड हेयर की जीवनी

1842 में श्री डेविड हेयर के निधन के 35 वर्षों के पश्चात् उनकी जीवनी एक पुस्तक रूप में 1877 में श्री पीयरी चन्द मित्रा ने लिखी थी। श्री डेविड हेयर प्रारंभ में स्कॉटलैण्ड के नगर एबरडीन में घड़ीसाज़ थे। उनके तीन भाई थे - जोसेफ़, जो लन्दन में एक व्यापारी थे तथा 48, बैडफ़ोर्ड स्कवेयर में रहा करते थे; उनके दूसरे भाई अलैग्ज़ैण्डर भी भारत आए थे और वह यहीं पर अपने पीछे एक बेटी जैनेट छोड़ कर चल बसे थे; तीसरे भाई जॉन भी भारत आए थे परन्तु वह लन्डन लौट गए थे। उनकी पुत्री रोज़ालिण्ड थी, जिन्होंने सिडमाऊथ के डॉ. बी. हौज से विवाह रचाया था और वह भी एक बेटी को छोड़ कर चल बसी थीं।


डेविड हेयर ने सदैव भारतियों के कल्याण की फ़िक्र रही, इसी लिए कुछ विदेशी मिशनरी उनसे चिढ़ते थे

श्री डेविड हेयर को यदि बंगाल के कलकत्ता क्षेत्र में अपने अंग्रेज़ी स्कूल स्थापित करने थे, उसके लिए आवश्यक था कि वह हिन्दू बहु-संख्यकों को प्रसन्न करते। यही कारण था कि कुछ (सभी नहीं) मसीही पादरी व अन्य विदेशी मिशनरी उनसे चिढ़ते रहते थे। परन्तु श्री डेविड हेयर को तो सदा भारत एवं भारतियों के कल्याण में दिलचस्पी रही थी। जैसे भारत में प्रगतीशील आधुनिक शिक्षा का पितामह राजा राममोहन रॉय को माना जाता है, वैसे ही श्री डेविड हेयर की भूिमका भारत में आधुनिक शिक्षा लाने के मामले में उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कोलकाता स्थित अपने स्कूलों में कभी पश्चिमी संस्कृति को कभी नहीं थोपा। उनके स्कूल विशुद्ध भारतीय हुआ करते थे, बच्चों को पढ़ाने का माध्यम केवल अंग्रेज़ी हुआ करता था। वास्तव में कलकत्ता में 1774 में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई थी, जिससे इस क्षेत्र में भी अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा लोगों में उत्पन्न होने लगी थी और उन दिनों किसी अटॉर्नी (अधिवक्ता या वकील) का मुन्शी या क्लर्क होना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी।


डेविड हेयर ने किया भारतीयों को ‘कान्ट्रैक्ट लेबर’ बना कर विदेश भेजने पर अंग्रेज़ शासकों का ज़ोरदार विरोध

इसके अतिरिक्त श्री हेयर ने प्रैस की आज़ादी के लिए आवाज़ उठाई। फिर उन दिनों भारतिय कुलियों (मज़दूरों) को ज़बरदस्ती कॉन्ट्रैक्ट लेबर बना कर मॉरीशस, ब्रिटिश ग्याना, त्रिनीदाद एवं बूरबौन भेजा जाने लगा था, श्री हेयर ने इसका भी ज़ोरदार विरोध किया था। उन दिनों यदि कोई ब्रिटिश नागरिक भारत में ईस्ट इण्डिया कंपनी की सरकार की आलोचना करता था, तो यह बहुत बड़ी बात थी। ऐसा काम तो कोई एक अच्छे संस्कारों वाला मसीही ही कर सकता है।


भारत का पहले मैडिकल कॉलेज के सचिव बने डेविड हेयर

उन्होंने अपने स्कूलों में सदा बंगाली शिक्षा को ही महत्त्व दिया। इसी लिए उन्होंने 14 जून, 1839 को हिन्दु कॉलेज के समीप ‘बंगाली पाठशाला’ की स्थापना की। इसके अतिरिक्त भारत के पहले कलकत्ता मैडिकल कॉलेज, जो उसी वर्ष 1935 में ही 28 जनवरी को भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने खोला था, के प्रिंसीपल ने श्री डेविड हेयर को अपने कॉलेज का सचिव बनाया था और वह इस पद पर 1837 से लेकर अपने निधन 1842 तक कायम रहे। पहले भारत में अधिकतर लोग अपने बच्चों को मैडिकल शिक्षा नहीं दिलाया करते थे, क्योंकि वहां पर ‘शरीर रचना विज्ञान’ (ऐनाटॉमी) पढ़ाते समय मुर्दों की चीर-फाड़ भी करनी पड़ती थी। परन्तु श्री हेयर ने बहुत से हिन्दु परिवारों को यह समझाया कि मानवता के कल्याण हेतु मानवीय शरीर की अन्दरूनी रचना को अन्दर से समझना बहुत आवश्यक है। कुछ युवा मैडिकल शिक्षा प्राप्त करने तथा मृत देहों की चीर-फाड़ करने को सहमत हो गए। जब जनवरी 1836 में उन्होंने पहली बार एक मुर्दे की चीर-फाड़ की, तो उस दिन फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में बन्दूक से हवा में गोलियां चला कर उनका स्वागत किया गया था।


स्वयं आर्थिक तंगी झेल कर भी ज़रूरतमन्द बच्चों की सहायता किया करते थे डेविड हेयर

ग़रीब बच्चों को श्री हेयर अपनी ओर से पुस्तकें मुफ़्त दिया करते थे। अपनी ऐसी आदतों के कारण ही उन्हें अपने अन्तिम दिनों में आर्थिक तंगियों का भी सामना करना पड़ा था।

श्री डेविड हेयर कहा करते थे कि उनके स्कूलों में किसी एक धर्म की कोई बात नहीं होगी, इसी बात से विदेशी मिशनरी उनसे चिढ़ते थे, क्योंकि वह चाहते थे कि श्री हेयर भी अपने स्कूलों व कॉलेजों में मसीही शिक्षा का प्रचार व पासार करें। परन्तु श्री हेयर ने उनकी ऐसी बात कभी नहीं मानी। इसी लिए उन्होंने श्री हेयर को ‘नास्तिक’ कहना भी प्रारंभ कर दिया था। परन्तु श्री हेयर ने कभी ऐसी बातों की कोई परवाह नहीं की थी। शिक्षा के क्षेत्र में उनके वणर्नीय योगदान के कारण लॉर्ड ऑकैण्ड ने मार्च 1840 में उन्हें ‘कोर्ट ऑफ़ रिक्वैस्ट्स’ में तृतीय कमिशनर नियुक्त किया था। तब उन्हें एक माह में 1,000 रुपए वेतन मिलने लगा था, जो उन दिनों अच्छी ख़ासी राशि हुआ करती थी। तब वह बहुत से लोगों की आंखों में चुभने भी लगे थे।

श्री पीयरी चन्द मित्रा द्वारा रचित 229 पृष्ठों की जीवनी में लगभग वह सभी पत्र दिए गए हैं, जो श्री डेविड हेयर ने अपने स्कूलों व कॉलेजों की स्थापना की स्वीकृतियां लेने के लिए तत्कालीन सरकारों को लिखे थे। उन पत्रों से ज्ञात होता है कि वह भारत में सदा जागरूकता फैलाना चाहते थे तथा समस्त भारतियों को प्रगति पथ पर अग्रसर होते देखना चाहते थे। भारत में उनके द्वारा की गई निःस्वार्थ सेवा को सदा याद किया जाता रहेगा।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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