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भारत को स्वतंत्र करवाने के संकल्प से ‘इण्डियन नेश्नल कांग्रेस’ को स्थापित करने वाले ऐलन ऑक्टेवियन ह्यूम



 




 


ऐलन ऑक्टेवियन ह्यूम द्वारा स्थापित इण्डियन नेश्नल कांग्रेस ने ही किया भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलनों का नेतृत्त्व

इम्पिरियल सिविल सर्विस (जो बाद में इण्डियन सिविल सर्विस बनी) के सदस्य, एक राजनीतिक सुधारक, पक्षी विज्ञानी (ऑर्नीथॉलोजिस्ट) तथा वनस्पति विज्ञानी ऐलन ऑक्टेवियन ह्यूम (ए.ओ. ह्यूम) का जन्म दक्षिण-पूर्वी इंग्लैण्ड के नगर कैन्ट में 6 जून, 1829 को हुआ था। वह भारत की उस प्रमुख पार्टी इण्डियन नैश्नल कांग्रेस (स्थापना वर्ष - 1885) के संस्थापकों में से एक थे, जिस ने बाद में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों का नेतृत्व किया। श्री ह्यूम को ‘भारतीय पक्षी-विज्ञान का पितामह’ एवं ‘भारतीय पक्षी-विज्ञान का पोप’ भी कहा जाता है।


ऐलन ऑक्टेवियन ह्यूम थे कुशल प्रशासक

भारत में जब 1857 का ग़दर हुआ और जिसे देश की स्वतंत्रता का पहला आन्दोलन भी कहा जाता है, उस समय श्री ह्यूम उत्तर प्रदेश के एटावा ज़िले के प्रशासक थे। उन्होंने तब देखा था कि ईस्ट इण्डिया कंपनी के अंग्रेज़ व्यापारी प्रशासकों के कुप्रबन्धों के चलते लोगों में बग़ावत फैल गई थी। परन्तु श्री ह्यूम अपने स्तर पर सदा आम लोगों के जीवन का सुधार करने में ही दिलचस्पी लेते थे और यही उनके यीशु मसीह का एक सच्चा भक्त होने का प्रमाण भी था। बग़ावत के दौरान बड़े स्तर पर हुई क़त्लो-ग़ारत एवं तोड़-फ़ोड़ के बावजूद देश में एटावा ही सबसे पहल ऐसा ज़िला था, जो श्री ह्यूम के सुधारों के कारण आगामी कुछ ही वर्षों के दौरान इस ज़िले में स्थिति सामान्य हो गई थी और यह संपूर्ण क्षेत्र विकास का मॉडल समझा जाने लगा था। एक कुशल प्रशासक होने के कारण श्री ह्यूम ने इण्डियन सिविल सर्विस के रैंक्स में भी शीघ्र प्रगति पाई। वह अपने पिता एवं क्रांतिकारी एम.पी. जोसेफ़ ह्यूम की तरह ही भारत में ब्रिटिश नीतियों की कड़ी आलोचना किया करते थे। 1871 में वह लॉर्ड मायो के प्रशासन के अंतर्गत राजस्व, कृषि एवं वाणिज्य विभागों के सचिव बन गए। 1879 में जब उन्होंने एक बार लॉर्ड लिट्टन की आलोचना की, तो सचिवालय की प्रशासकीय नौकरी से उनकी छुट्टी कर दी गई।


ऐलन ऑक्टेवियन ह्यूम थे पक्षी प्रेमी

श्री ह्यूम ने ‘स्ट्रे फ़ैदर्स’ नामक एक पत्रिका भी निकाली, जिसमें वह भारत के पक्षियों के बारे में नई-नई बातें खोज कर निकाला करते थे। उनके शिमला स्थित विशाल घर में भी पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों की बड़ी कुलैक्शन मौजूद थी। उनके प्रतिनिधि समस्त भारत में मौजूद थे, जो उन्हें वे पक्षी भेजते रहते थे। बाद में उन्होंने वह सारा पक्षी-संग्रह व बहुत से पक्षियों की खालें ‘ब्रिटिश म्यूज़ियम ऑफ़ नैचुरल हिस्ट्री’ को उपहार स्वरूप दे दिए थे। तब तक उन्होंने भारत के पक्षियों के बारे में बहुत सारा साहित्य भी तैयार कर लिया था; वह सब कुछ उन्होंने अजायब घर को ही दे दिया।

श्री ह्यूम कुछ समय के लिए मैडम ब्लावतस्की के धार्मिक अभियान के साथ भी जुड़े रहे थे। वह 1894 में भारत से लन्डन चले गए। परन्तु इण्डियन नैश्नल कांग्रेस की गतिविधियों में उन्होंने अपनी दिलचस्पी जारी रखी। अपने जीवन के अंतिम समय के दौरान उनकी दिलचस्पी वनस्पति विज्ञान में हो गई थी तथा उन्होंने ‘साऊथ बौटनीकल इनस्टीच्यूट’ की भी स्थापना की। उनका देहांत 31 जुलाई, 1912 को हुआ।


एक कविता लिख कर भारत के युवाओं को भारत को स्वतंत्र करवाने हेतु किया था आह्वान

सिविल सर्विसेज़ से सेवा-निवृत्त होने तथा लॉर्ड लिट्टन का शासन समाप्त होने पर श्री ह्यूम ने पाया कि भारत के लोग ब्रिटिश शासकों से बहुत निराश हो गए हैं। उन्होंने देखा कि देश में अचानक बड़े स्तर पर हिंसक घटनाएं घटित होने लगीं थीं, जो लोग अच्छे नहीं थे अर्थात अप्रिय थे; उनकी हत्याएं हो रहीं थीं, बैंकों में डाके बहुत अधिक पड़ने लगे थे, सरेआम बाज़ार लूटे जा रहे थे, कानून एवं व्यवस्था का तो कहीं नामो-निशान भी नहीं था। यह सब राष्ट्रीय विद्रोह के ही तो संकेत थे। दक्षिण भारत एवं बम्बई में किसानों के दंगे हुए थे। उन्होंने 1 मार्च, 1883 को युनिवर्सिटी ऑफ़ कलकत्ता के ग्रैजुएट्स को एक पत्र लिखा; जिसमें उन्होंने एक ऐसी संस्था/ऐसोसिएशन की स्थाना करने का प्रस्ताव रखा, जो देश के विकास में सहायक हो सके। वह पत्र बहुत भावुक हो कर लिखा गया था और वह समूह भारतीय युवाओं को प्रेरित करता था। 1886 में उन्होंने ‘दि ओल्ड मैन’ज़ होप’ (एक वृद्ध व्यक्ति की आशा) नामक कविता भी लिखी थी - जो बहुत चर्चित हुई थी। उसमें भी उन्होंने भारत के पुत्रों अर्थात युवाओं को ललकारा था कि वे सुस्त व चुप न बैठे रहें और यह आशा न करें कि कोई स्वर्ग-दूत ऊपर से आकर उन्हें बचाएगा। उन्होंने जन-साधारण को एकजुट हो कर स्वतंत्रता की ओर बढ़ने का आह्वान किया था।


स्वतंत्र ‘इण्डियन यूनियन’ की स्थापना करने का भी रखा था प्रस्ताव

श्री ह्यूम ने तब स्वतंत्र ‘इण्डियन यूनियन’ की स्थापना करने का प्रस्ताव भी रखा था, जिसे पहले तो लॉर्ड डफ़रिन ने कुछ समर्थन दिया था परन्तु जब ब्रिटिश के शासकों ने उस विचार को मानने से साफ़ इन्कार कर दिया, तो वह पीछे हट गए। तब दिसम्बर 1884 में श्री ह्यूम ने एक मसीही धार्मिक कन्वैन्शन के पश्चात् मद्रास में 17 प्रमुख नेताओं की एक गुप्त बैठक की थी। फिर मार्च 1885 में श्री ह्यूम ने ही ‘इण्डियन नैश्नल यूनियन’ को निमंत्रित करने हेतु पहला नोटिस जारी कर दिया गया था। वह पहली यूनियन दिसम्बर 1885 में पूना (पुणे) में बुलाई गई थी। इस प्रकार 28 दिसम्बर, 1885 को इण्डियन नैश्नल कांग्रेस पार्टी की स्थापना हुई। यह श्री ह्यूम ही थे, जिन्होंने कांग्रेस पार्टी का सारा एजेण्डा तय किया था। उस वर्ष पूना क्षेत्र में बड़े स्तर पर हैज़ा (कौलरा) रोग फैल गया था, जिसके कारण यूनियन की बैठक का स्थान पूना से बदल कर बम्बई करना पड़ा।


एओ ह्यूम ने किए ब्रिटिश शासन में शिक्षित भारतियों को बड़ा हिस्सा दिलवाने के प्रयत्न

ब्रिटिश नागरिक श्री ऐलन ऑक्टेवियन ह्यूम एवं अन्य राष्ट्रवादी भारतियों के अथक के प्रयत्नों द्वारा सुसंस्थापित इण्डियन नैश्नल कांग्रेस पार्टी का यही उद्देश्य था कि ब्रिटिश शासन में शिक्षित भारतियों को बड़ा हिस्सा दिलाया जाए और इस प्रकार अंग्रेज़ राज्य एवं उनके बीच में कोई राजनीतिक बातचीत हो पाए। श्री ह्यूम ने वॉयसरॉय लॉर्ड डफ़रिन की स्वीकृति से बम्बई में कांग्रेस की पहली बैठक का आयोजन करवाया। एक प्रमुख मसीही स्वतंत्रता सेनानी वोमेश चन्द्र बैनर्जी कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने। इसका पहला सत्र वर्ष 1885 में 28 से 31 दिसम्बर तक चला। उसमें 72 डैलीगेट थे, जो भारत के उस समय के प्रत्येक राज्य का प्रतिनिधित्व करते थे। उनमें से 54 हिन्दु एवं 2 मुस्लिम तथा शेष मसीही, पारसी, जैन एवं अन्य जातियों से थे।


एओ ह्यूम की चेतावनी से भड़क गए अंग्रेज़ शासक

श्री ह्यूम चाहते थे कि स्मस्त भारतियों को सरकार में बड़ा भाग मिले और पार्टी में किसानों सहित गांवों एवं नगरों के सभी लोगों को सम्मिलित किया जाए। 1886 से लेकर 1887 के मध्य यह अभियान बड़े स्तर पर चलाया गया। ऐसी गतिविधियों से अंग्रेज़ शासक नाराज़ हो गए तथा कांग्रेसी नेताओं की जासूसी होने लगी। ऐसी परिस्थितियों से श्री ह्यूम निराश हुए। उस समय के बहुत से राज्यों के अधिकतर बहु-संख्यक छोटे राजा एवं शासक भी कांग्रेस की गतिविधियों से प्रसन्न नहीं थे। उन्हें लगता था कि यह नई पार्टी सरकार से विद्रोह कर रही है। उस समय युनाईटिड इण्डियन पैट्रियॉटिक ऐसोसिएशन जैसे कुछ संगठन सक्रिय थे, वे भी कांग्रेस के विरुद्ध ही थे। 1892 में श्री ह्यूम ने अंग्रेज़ शासकों को चेतावनी दी कि भारत में किसानों का आन्दोलन बड़े स्तर पर छिड़ने वाला है परन्तु इससे ब्रिटिश शासक और भड़क गए तथा उन्होंने कांग्रेसी नेताओं को डराना-धमकाना प्रारंभ कर दिया। उस समय अधिकतर भारतीय नेता भी शक्तिशाली अंग्रेज़ शासकों से टकराव नहीं चाहते थे और वे स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलनों में भाग नहीं लेना चाहते थे क्योंकि 1857 में भारतियों के विद्रोह को बड़ी असफ़लता का सामना करना पड़ा था और उसके परिणाम बड़े ख़ून-ख़राबे में निकले थे। इसके अतिरिक्त उसके बाद ब्रिटिश हकूमत ने भारतियों पर काफ़ी अंकुश लगाने भी प्रारंभ कर दिए थे। जब श्री ह्यूम को लगा कि भारतीयों की ओर से कोई सहयोग नहीं मिल रहा, तो 1894 में वह इंग्लैण्ड वापिस लौट गए।


भारतीय प्रैस में एओ ह्यूम के विरुद्ध बहुत कुछ नकारात्मक लिखा गया

उस समय बहुत से एंग्लो-इण्डियन लोग भी कांग्रेस पार्टी बनाए जाने के विरुद्ध थे। भारतीय प्रैस में भी उसके विरुद्ध नकारात्मक प्रचार प्रारंभ हो गया। तब श्री ह्यूम के विरुद्ध भी काफ़ी कुछ लिखा गया। श्री ह्यूम का जन्म इंग्लैण्ड के कैन्ट नगर में हुआ था। वह अपने परिवार में कुल 9 भाई-बहन थे और श्री ह्यूम आठवें स्थान पर थे। उनके पिता जोसेफ़ ह्यूम एक क्रांतिकारी संसद सदस्य थे एवं मां का नाम मारिया बर्नले था। श्री ह्यूम ने युनिवर्सिटी कॉलेज अस्पताल में मैडिसन एवं सर्जरी विषयों में शिक्षा ग्रहण की और तभी वह इण्डियन सिविल सर्विसेज़ के लिए नामज़द हो गए। तब उन्हें हैलीबरी स्थित ईस्ट इण्डिया कंपनी कॉलेज में दाख़िला लेना पड़ा। तब उन पर उनके मित्रों जॉन स्टुअर्ट मिल (जो विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक एवं अर्थ-शास्त्री थे) तथा हरबर्ट स्पैन्सर का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।


1849 में बने एटावा के प्रशासकीय अधिकारी

श्री ह्यूम 1849 में एक नगर प्रशासकीय अधिकारी बन कर भारत आए। अगले वर्ष उन्होंने उत्तर प्रदेश के एटावा ज़िले में प्रशासक के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया। तब वह क्षेत्र बंगाल सिविल सर्विस के अंतर्गत आता था। वह 1849 से लेकर 1867 तक इसी ज़िले के ज़िला अधिकारी (डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ीसर) के पद पर नियुक्त रहे। फि 1867 से लेकर 1870 तक वह केन्द्रीय विभाग के मुख्य तथा फिर 1870 से 1879 तक सरकार के सचिव रहे। इसी बीच 1853 में उनका विवाह मेरी ऐने ग्रिण्डॉल (1823-1890) से हुआ।


एओ ह्यूम अंग्रेज़ शासकों को भारतियों के प्रति सदा दया-भाव व सहनशीलता रखने की ही सलाह देते रहे

1857 में मेरठ में विद्रोह प्रारंभ हुआ, जो एटावा से कोई अधिक दूर नहीं था। उन दिनों में सभी को अपनी-अपनी पड़ी हुई थी। कहीं पर किसी का कोई राज्य दिखाई नहीं देता था अर्थात चारों ओर अराजकता फैली हुई थी। ऐसी परिस्थितियों में श्री ह्यूम को छः माह के लिए आगरा के किले में शरण लेनी पड़ी। उस वक्त श्री ह्यूम को चाहे अपने साथी अंग्रेज़ प्रशासकों का साथ देना पड़ रहा था परन्तु वह शासकों से यही कहते थे कि वे भारतीय विद्रोहियों के प्रति भी अपना दया-भाव रखें एवं उनके प्रति सहनशीलता प्रकट करें। यही कारण था उस विद्रोह के पश्चात् केवल एक वर्ष के भीतर श्री ह्यूम के प्रशासकीय क्षेत्र अर्थात एटावा में परिस्थितियों पहले जैसी हो गईं थीं; जबकि देश के बहुत से भागों में स्थितियां सामान्य में कई वर्ष लग गए थे। श्री ह्यूम ने इसे अंग्रेज़ शासकों का ही दोष माना।


1857 के ग़दर के उपरान्त एओ ह्यूम ने प्रारंभ की एटावा में सुधारों की प्रक्रिया

1857 के उस ग़दर के पश्चात् श्री ह्यूम ने अपने अधिकार क्षेत्र में सुधारों की प्रक्रिया प्रारंभ की। उन्होंने प्राईमरी शिक्षा को निःशुल्क कर दिया। पुलिस विभाग के काम करने के ढंग परिवर्तित कर दिए। न्यायिक भूमिका को उन्होंने अलग किया। 1859 में उन्होंने कूर लछमन सिंह के साथ मिल कर हिन्दी पत्रिका ‘लोकमित्र’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। यह पत्रिका चाहे केवल एटावा ज़िले के लिए थी परन्तु शीघ्र ही उसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। श्री ह्यूम ने उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्तियां प्रारंभ कीं। वह चाहते थे कि अधिक से अधिक भारतीय शिक्षित हों। 1857 में ही उन्होंने 181 स्कूल स्थापित करवाए, जिनमें 5,186 विद्यार्थी पढ़ते थे, जिनमें केवल दो लड़कियां थीं। उनके द्वारा अपने स्वयं के धन से स्थापित करवाया गया स्कूल आज भी जूनियर कॉलेज के रूप में विद्यमान है।

श्री ह्यूम ने कृषि विकास में भी दिलचस्पी दिखलाई। उन्होंने लॉर्ड मायो की सलाह से एक संपूर्ण कृषि विभाग को विकसित किया। श्री ह्यूम ने एक जगह पर लिखा है कि लॉर्ड मायो भारत के एकमात्र ऐसे वॉयरॉय रहे हैं, जिन्होंने स्वयं खेतों में कार्य किया था। उन्होंने अपने समय की गेहूं की उपज की तुलना सम्राट अकबर के समय एवं इंग्लैण्ड के नगर नौरफ़ोक क्षेत्र के गेेहूं की उपज के साथ की। 1872 में लॉर्ड मायो की अंडेमान में हत्या हो गई। जिससे श्री ह्यूम के कार्यों को मिलने वाला समर्थन समाप्त हो गया परन्तु इसके बावजूद उन्होंने कृषि विभाग की गतिविधियां जारी रखीं। वह चाहते थे कि प्रत्येक ज़िे में मॉडल खेत होने चाहिएं। श्री ह्यूम ने ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों जैसी संस्थाएं प्रारंभ करने के भी प्रयत्न किए।


पश्चिमी बंगाल से पेशावर तक 4,000 किलोमीटर क्षेत्र के बने कमिश्नर

जब वह कमिश्नर बने तो उनका अधिकार क्षेत्र बंगाल की खाड़ी से लेकर पेशावर के समुद्री तट (अब पाकिस्तान) तक 4,000 किलोमीटर था। श्री ह्यूम को इतने बड़े क्षेत्र में ऊँटों एवं घोड़ों पर यात्रा करनी पड़ती थी। वह अपने इन्हीं कार्यों के बीच पक्षियों का अध्ययन भी जारी रखते थे।

श्री ह्यूम ने बहुत बार खुल कर ब्रिटिश सरकार की आलोचना की। चाहे उन्हें कुछ बार इस बात के लिए क्षमा-याचना भी करनी पड़ी और तभी उन्हें एटावा लौटने की अनुमति मिल पाई थी। 1879 में उन्होंने लॉर्ड लिट्टन की तीखी आलोचना की थी क्योंकि वह भारत के लोगों के कल्याण हेतु कोई कार्य नहीं करना चाहते थे। श्री ह्यूम का मानना था कि लॉर्ड लिट्टन की विदेश नीतियों के कारण करोड़ों भारतियों के करोड़ो रुपए बर्बाद हो रहे हैं। अंग्रेज़ हकूमत की भू-राजस्व नीति (लैण्ड रैवेन्यू पॉलिसी) को ही वह भारत में निर्धनता का कारण मानते थे। ऐसे कुछ कारणों से ही उनके उच्च अधिकारी उनसे ईष्या करते थे और उनके अधिकारों पर कई प्रकार के प्रतिबन्द्ध लगाते रहते थे। 1879 में उन्होंने भारत में कृषि सुधार पर एक पुस्तक प्रकाशित की थी।

लॉड मायो की हत्या के पश्चयात् लॉड नॉर्थब्रुक भारत के वॉयसरॉय नियुक्त हुए परन्तु उन्होंने श्री ह्यूम की शक्तियों पर लगाम लगा दी।

30 मार्च, 1890 को श्री ह्यूम की पत्नी मेरी का निधन इंग्लैण्ड में हो गया और श्री ह्यूम 1 अप्रैल को भारत से लन्डन पहुंचे थे।

कुल मिला कर श्री ह्यूम ने सदा भारत एवं भारतियों का हित चाहा। उन्होंने एक सच्चे मसीही की तरह कभी अत्याचार साथ नहीं दिया।

श्री ए ओ ह्यूम का निधन 31 जुलाई, 1912 को हुआ था।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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