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तामिल नाडू में शहीद हुए पुर्तगाली सेंट जौन डी ब्रिटो भारत में सदा रहे शाकाहारी



 




 


जब सेंट जौन डी ब्रिटो को जब तामिल नाडू से पुर्तगाल वापिस लौटना पड़ा

पुर्तगाली मसीही मिशनरी सेंट जौन डी ब्रिटो का नाम अन्य देशों से भारत आने वाले मसीही मिशनरियों में अत्यंत आदरपूर्वक लिया जाता है। उन्हें मसीही शहीद भी माना जाता है तथा भारतीय कैथोलिक्स उन्हें ‘पुर्तगाली सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर’ तथा कुछ अन्य मसीही समुदाय उन्हें ‘जौन - दि बैप्टिस्ट ऑफ़ इण्डिया’ भी कहते हैं। सेंट ब्रिटो का जन्म 1 मार्च, 1647 को पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में हुआ था। उनके माता-पिता अत्यंत शक्तिशाली शाही परिवार से संबंधित थे। उनके पिता श्री सैल्वाडोर डी ब्रिटो पैरेरा ब्राज़ील की एक पुर्तगाली बस्ती के वॉयसरॉय थे।

सेंट ब्रिटो ने 1662 में जैसुईट मसीही समुदाय का हाथ थाम लिया था, जब वह युनिवर्सिटी ऑफ़ कोइम्ब्रा (पुर्तगाल) में पढ़ रहे थे। वह 1673 में दक्षिण भारत के वर्तमान तामिल नाडू राज्य के नगर मदुराई हुंचे थे। वह भारतीय संस्कृति व यहां के लोगों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना एक तामिल नाम आरुल आनन्दर रख लिया था। तब वहां पर मारावार शासन था। 1684 में उन्हें ग्रिफ़्तार कर लिया गया। वहां से ‘देश-निकाला’ का आदेश मिलने के पश्चात् वह 1687 में लिस्बन लौट गए। तब पुर्तगाल के राजा पैड्रो-द्वितीय चाहते थे कि वह पुर्तगाल में ही रहें परन्तु 1690 में सेंट ब्रिटो 24 अन्य मिशनरियों के साथ पुनः मारावार राज्य पहुंच गए।


भारत में सदैव शाकाहारी जीवन व्यतीत किया सेंट जौन डी ब्रिटो ने

दूसरी बार भारत पहुंच कर सेंट ब्रिटो ने ‘इण्डियन कैथोलिक चर्च’ की स्थापना करने का साहसिक कार्य किया क्योंकि यह चर्च यूरोप के सांस्कृतिक प्रभाव से पूर्णतया मुक्त था। भारत में उन्होंने सदा सन्यासियों वे गेरुआ वस्त्र धारण करके रखे और कभी शराब या अण्डे, मांस जैसे खाद्य पदार्थों को हाथ तक नहीं लगाया। वह केवल फलों, सब्ज़ियों एवं अन्य जड़ी-बूटियां खा कर ही जीवित रहे।


रामनद के राजा ने दी सेंट ब्रिटो की फांसी

सेंट ब्रिटो के उपदेशों के प्रभाव से एक मारावा राजकुमार थाड़ीयातेवन स्वेच्छापूर्वक मसीही बन गए थे। उनकी कई पत्नियां थीं। मसीही बनने के बाद थाड़ीयातेवन जब अपनी सभी पत्नियों का त्याग करने जा रहे थे, तो एक गंभीर समस्या उठ खड़ी हुई। उनकी एक पत्नी समीपवर्र्ती राज्य रामनद के राजा सेतुपति की भतीजी थी। तब सेतुपति ने मसीही लोगों को ढूंढ-ढूंढ कर फ़ांसी देना प्रारंभ कर दिया। सेंट ब्रिटो को भी ज़बरदस्ती समुद्री तट से 30 मील उत्तर की ओर उरियूर (तामिल नाडू) नामक स्थान पर ले जाया गया और 11 फ़रवरी, 1693 को वहां पर उनका सर धड़ से अलग कर दिया गया। उस समय वहां पर बहुत से मसीही लोग उपस्थित थे।


फांसी का स्थान रेत का बड़ा टीला आज भी चमत्कारिक ढंग से लाल है

कहा जाता है कि सेंट ब्रिटो ने बहुत आराम से अपना सर जल्लाद के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था और इस बात से सभी आश्चर्यचकित थे कि शहादत के समय उनके चेहरे पर घबराहट का कही कोई चिन्ह नहीं देखा जा सकता था। उस स्थान पर आज भी उनकी यादगार स्थापित है। वहीं पर रेत का एक बड़ा टीला है जो विस्मयकारी ढंग से पूरी तरह लाल है। माना जाता है कि ऐसा सेंट ब्रिटो के रक्त के कारण हुआ है। बहुत से लोग उस धरती की मिट्टी इस विश्वास के साथ अपने माथे को छुआते हैं कि उनकी सभी समस्याएं व बीमारियां दूर हो जाएंगी। तामिल नाडू व केरल के सभी धर्मों के लोग इस लाल मिट्टी को अपने घावों पर छुआते हैं और वह तत्काल ठीक महसूस करने लगते हैं। निःसंतान दंपत्तियों की गोद भर जाती है। यहां पर सारा वर्ष एक मेला सा लगा रहता है।


पोप ने 1947 में घोषित किया था ब्रिटो को सेंट

पोप पायस-नवें ने 21 अगस्त, 1853 को मसीही मिशनरी जौन डी ब्रिटो को ‘सन्त’ घोषित करने की औपचारिक कैथोलिक प्रक्रिया प्रारंभ कर दी थी और पोप पाय-12वें ने 1947 में उन्हें बाकायदा ‘सन्त’ घोषित किया था। लिस्बन में सेंट जौन डी ब्रिटो नामक एक कॉलेज भी है। फ़िलीपीन्ज़ एवं इण्डोनेशिया में भी उनके नाम से शैक्षणिक संस्थान स्थापित हैं। गोवा में भी उनके नाम का एक स्कूल मौजूद है। इसके अतिरिक्त कोलकाता, मुंबई एवं हज़ारीबाग़ में भी उनके नाम से कॉलेज हैं।


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-- -- मेहताब-उद-दीन

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