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गांधी जी व आज़ादी के कुछ दक्षिण भारतीय मसीही परवाने



 




 


आज़ादी का मसीही परवाना जेरोम सल्दानाह

डॉ. माईकल लोबो ने दो बहुत ही महत्त्वपूर्ण पुस्तकों - ‘दि मैंगलोर कैथोलिक कम्युनिटी - ए प्रोफ़ैशनल हिस्ट्री’ एवं ‘डिस्टिन्गुइश्ड मैंगलोरियन कैथोलिक्स 1800-2000’ (‘मंगलौर का कैथोलिक समुदाय- एक व्यावसायिक इतिहास’ तथा ‘मंगलौर का विलक्ष्ण कैथोलिक समुदाय 1800-2000’) का प्रकाशन किया है। उसमें भी जेरोम सल्दानाह का वर्णन किया गया है। जेरोम का जन्म महात्मा गांधी से एक वर्ष पूर्व 1868 में हुआ था तथा उनका देहांत भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति से कुछ माह पूर्व ही हो गया था। श्री जेरोम चाहे एक सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, अपितु वह विभिन्न समाचार-पत्रों एवं कुछ पत्रिकाओं, विशेषतया ‘मंगलौर मैगज़ीन’ में अपने लेखों व अन्य ऐसी कृतियों द्वारा भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में अपने विचार प्रकट करते रहते थे।


गांधी जी के बचाव में उतरे थे जेरोम सल्दाCongress Flag before Independenceनाह

1942 में द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान जापान भी युद्ध प्रारंभ करने वाले मुख्य देशों जर्मनी एवं इटली के साथ जा मिला था और ये तीनों देश जब सिंगापुर एवं बर्मा (आज का म्यांमार) पर कब्ज़ा करते हुए भारत की पूर्वी सीमा पर आ कर धमकियां देने लगे थे, तो मंगलौर के कैथोलिक मसीही समुदाय ने यही महसूस किया था कि गांधी जी शायद अब ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ की ओर इतना ध्यान न दें। उनका मानना था कि यदि जापानी आक्रमणकारी सेना भारत पर कब्ज़ा करने में सफ़ल हो गई, तो देश की हालत बद से भी बदतर हो जाएगी तथा स्वतंत्रता-प्राप्ति के सपने बिखर कर रह जाएंगे। इसी लिए, उनका यही मानना था कि ऐसी संकट की घड़ी में इंग्लैण्ड एवं भारत को एकजुट हो कर भारतीय उप-महाद्वीप की रक्षा करनी चाहिए। तब एक प्रसिद्ध वकील काजेटन लोबो ने ‘मंगलौर मैगज़ीन’ में यहां तक लिख दिया था कि ‘गांधी जी तो स्वयं युद्ध को हवा दे रहे हैं’; परन्तु ऐसे समय में जेरोम सल्दानाह ही थे, जो गांधी जी के बचाव में उतरे थे। तब उन्होंने लिखा था,‘‘गांधी जी के बारे में ऐसा लिखना कोरी बकवास है.... वह विश्व के महान्तम व्यक्तियों मे से एक हैं। उनके आदर्श उच्च हैं और ... वह एक मानवीय परिवार की रचना करना चाहते हैं। चाहे उनके आदर्शों पर चलना हमारे कठिन विश्व के लिए कभी मुश्किल होता हो, उन आदर्शों पर तो प्रश्न उठाए जा सकते हैं परन्तु श्री गांधी जी एक महान् देश-भक्त तथा एक महान् आध्यात्मिक नेता हैं, उन पर कौन शक कर सकता है?’’


आज़ादी का एक अन्य मसीही परवाना मौरिस श्रेष्ठ

इसी प्रकार स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे ही एक अन्य समर्थक मौरिस श्रेष्ठ थे, जो सिलोन (श्रीलंका) में पोस्ट मास्टर जनरल के ब्रिटिश सरकारी पद से सेवा-निवृत्त हुए थे। सेवा-निवृत्ति के पश्चात् वह मद्रास विधान परिषद के लिए भी चुने गए थे। डॉ. माईकल लोबो के अनुसार,‘‘अपने संपूर्ण कैरियर के दौरान श्री मौरिस श्रेष्ठ स्वयं को भारतीय कहलाने में गर्व महसूस करते थे तथा उन्होंने अपना उपनाम ‘श्रेष्ठ’ अपनाया था- संस्कृत में जिसका अर्थ ‘महान्’ होता है। उस समय अपने नाम के पीछे ऐसा उपनाम लगाना भी एक बड़ी बात थी, जबकि उस समय के अन्य सरकारी कर्मचारी तो अपने नामों का अंग्रेज़ीकरण कर रहे थे।’’ श्री मौरिस ने अपने बच्चों के मसीही नामों के साथ भारतीय नाम भी जोड़े थे। 1928 में कोलम्बो से मंगलौर लौटने के पश्चात् उन्होंने सेंट अलॉयसिस कॉलेज के विद्यार्थियों को संबोधन करते हुए उन्हें गांधी जी के आदर्शों पर चलने हेतु प्रेरित किया था।


फ़ैलिक्स अलबुकर्क पाई भी थे स्वतंत्रता आन्दोलनों के समर्थक

किनारा के अन्य मसीही फ़ैलिक्स अलबुकर्क पाई भी स्वतंत्रता आन्दोलनों के समर्थक थे, जो मंगलौर की टाईल फ़ैक्ट्री के मालिक थे। 1930 में उन्होंने ब्रिटिश कानून का उल्लंघन करते हए नमक बनाया था। 1933 में जब जवाहरलाल नेहरू मंगलौर आए थे, तो वह बोलार में श्री फ़ैलिक्स अलबुकर्क पाई के घर पर रुके थे। तब फ़ालनिर में उन्होंने एक विशाल जन-सभा को संबोधित किया था, उस समारोह का सारा ख़र्च श्री अलबुकर्क पाई ने ही दिया था।


किनारा क्षेत्र की तीन मसीही जोड़ियां जुड़ीं स्वतंत्रता संग्राम के साथ

1930 के दशक के दौरान किनारा क्षेत्र की तीन मसीही जोड़ियां स्वतंत्रता संग्राम के साथ आकर जुड़ी थीं; उनके नाम थे - थॉमस एवं हैलेन अल्वारेस, सिप्रियन एवं एलिस अल्वारेस तथा जोआकिम एवं वॉयलेट अल्वा। श्री जोआकिम एवं श्रीमति वॉयलेट अल्वा के बारे में तो सभी जानते हैं क्योंकि यही भारत की एक पहली जोड़ी थी जो बाद में एक साथ भारत की संसद में सदस्य बन कर पहुंची थी। श्रीमति अल्वा तो बाद में राज्य सभा की उप-सभापति भी बनी थीं। बम्बई में 18 जुलाई, 1936 को जब उनका विवाह हुआ था, तो महात्मा गांधी जी बीमार थे। उन्होंने एक संदेश भेजा था, जिसमें उन्होंने आशा प्रकट की थी कि यह नई जोड़ी देश की महान् सेवा करेगी। उन्होंने इस बात पर भी प्रसन्नता प्रकट की थी कि उनके विवाह समारोह में न तो नाच-गाना होगा तथा न ही अतिथियों को शराब परोसी जाएगी।


गांधी जी को चाय पिला कर भाव-विभोर हो गए थे थॉमस एवं श्रीमति हैलन अल्वारेस

श्री थॉमस एवं श्रीमति हैलन अल्वारेस श्री लंका की राजधानी कोलंबो में रहते थे, जहां उन्होंने अपने टाईलों के व्यापार की शाखा खोली थी। बाद में वे महात्मा गांधी के नेतृत्त्व में स्वतंत्रता संग्राम में भी सम्मिलित हो गए थे। एक बार उन्हें गांधी जी को चाय पिलाने का अवसर प्राप्त हुआ था, वे उस घटना को स्मरण करते हुए अकसर भाव-विभोर हो जाया करते थे। गांधी जी से ही प्रभावित होकर उन्होंने अपने बच्चों के नाम भारतीय रखे थे। श्रीमति हैलेन ने स्वयं भी अपना नाम बदल कर अल्वा देवी रख लिया वह सत्याग्रह के पक्ष में थीं तथा उन्होंने कई बार उन आन्दोलनों के दौरान जन-सभाओं को संबोधित किया था।


एलिस अल्वारेस ने राम मनोहर लोहिया व वीर सावरकर के साथ मिल कर की देश-सेवा

तीसरी जोड़ी थी श्री सिप्रियन एवं श्रीमति एलिस अल्वारेस की। श्री सिप्रियन 1930 में वडाला नमक सत्याग्रह के दौरान ग्रिफ़्तार भी हुए थे। वह मंगलौर के कैथोलिक समुदाय के कुछेक स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं, जिन्हें 1930 के दशक में सम्मान-पत्र भी प्राप्त हुआ था। उनकी पत्नी श्रीमति एलिस ने भी अपने पति के साथ ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भाग लिया था। उन्हें तब कुछ समय के लिए भूमिगत भी होना पड़ा था। परन्तु नवम्बर 1942 को दोनों को ग्रिफ़्तार कर के बम्बई में अलग-अलग जेलों में बन्द कर दिया था।

श्रीमति एलिस वहां से भाग निकलने में सफ़ल रहीं थीं तथा तब वह दमन चली गईं थीं। तब वहां पर राम मनोहर लोहिया तथा वीर सावरकर जैसे नेता भी भूमिगत रह कर देश की स्वतंत्रता के लिए कार्यरत थे। श्रीमति एलिस ने इन दोनों नेताओं के साथ मिल कर देश के लिए कार्य किए थे। कांग्रेस पार्टी तो धर्म-निरपेक्ष ढंग से स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित अपने आन्दोलन चलाती थी परन्तु सावरकर केवल हिन्दु राजनीति करना चाहते थे। उन्हें लगता था कि जब एक दिन अंग्रेज़ देश को छोड़ कर अर्थात स्वतंत्र करके जाएंगे, तो देश की वागडोर उन्हें अर्थात हिन्दुओं को ही सौंप कर जाएंगे। परन्तु ऐसा हो न सका, बागडोर धर्म-निष्पेक्ष ताकतों के पास चली गई। परन्तु एलिस अल्वारेस ने वीर सावरकार की ऐसी किन्हीं बातों पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि तब उन्हें केवल भारत की स्वतंत्रता का ध्येय ही दिखाई देता था। यह है असली मसीही पहचान, कौन करेगा इस का मुकाबला?

उधर श्री सिप्रियन जेल में बीमार पड़ गए थे। इतने में श्रीमति एलिस को पुनः ग्रिफ़्तार कर लिया गया था। पहले उन्हें पुणे की येरवड़ा जेल में रखा गया तथा फिर मंगलौर की केन्द्रीय जेल में भेज दिया गया था। इस अल्वारेस दंपत्ति ने अपने स्वयं के स्कूल से ‘कांग्रेस रेडियो’ के लिए वायरलैस सिस्टम को भी ऑपरेट किया था।


एक थे ‘गांधी पिन्टो’

मंगलौर के एक अन्य कैथोलिक श्री जॉन फ्ऱांसिस पिन्टो भी थे, जो पहले से ही राजनीति में थे परन्तु बाद में स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े थे। बाद में वह विधायक भी बने। 1920के दशक में जब महात्मा गांधी जी ने स्वतंत्रता आन्दोलनों की बागडोर संभाली थी, श्री पिन्टो तभी से गांधी जी के प्रशंसक बन गए थे। वह सदा गांधी टोपी पहनते थे 1930 के दशकों के दौरान उन्होंने ‘सिविल असहयोग आन्दोलन’ में भी सक्रियतापूर्वक भाग लिया था। लोग उन्हें प्यार से ‘गांधी पिन्टो’ कह कर बुलाया करते थे।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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