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असहयोग आन्दोलन में तामिल नाडू के मसीही समुदाय का योगदान



 




गांधी जी ने चलाए अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध प्रमुख आन्दोलन

पी. नल्लाथम्बी के पी-एच.डी. थीसिस में असहयोग आन्दोलन में मसीही स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान का काफ़ी विस्तारपूर्वक विवरण दिया गया है। प्रस्तुत है उसी थीसिस के कुछ अंशः

Civil Disobiedience Movement महात्मा गांधी जी के नेतृत्त्व में बहादुर भारत वासियों ने बहुत से तरीकों से अंग्रेज़ शासकों का ज़ोरदार विरोध कियाा था। उन्होंने शासकों के आदेश के विरुद्ध नमक बनाया, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया, विदेशी वस्तुएं बेचने वाली दुकानों को बन्द करवाया गया, खादी तैयार करके उसी के वस्त्र पहनने के अभयान चलाए गए, विदेशी बैंकों, बीमा कंपनियों, समुद्री जहाज़ों व अन्य संस्थानों का ज़ोरदार विरोध किया गया। शराब पीने पर प्रतिबन्द्ध लगाया गया व सरकारी समारोहों का बहिष्कार किया जाने लगा। यह सभी ढंग असहयोग आन्दोलन का ही भाग थे। खद्दर पहनना देश-भक्ति का चिन्ह बन गया तथा लोगों को घर में खादी से बने वस्त्र पहनने हेतु प्रेरित किया गया तथा अपने फ़ालतु समय में सूत कातने की सलाह दी गई।

ऑल इण्डिया स्पिन्नर्ज़ ऐसोसिएशन ने समस्त भारत में खादी के वस्त्रों को लोकप्रिय बनाया। मसीही स्वतंत्रता सेनानी जे.सी. कुमारअप्पा व उनके भाई ने इस ऐसोसिएशन की बागडोर संभाली थी तथा प्रत्येक गांव में उ़द्योग ऐसोसिएशनें बनाईं गईं। भारत वासियों को कागज़, टोकरियां, चमड़े की वस्तुएं, खिलौने बनाने व ऐसी अन्य वस्तुएं तैयार करने हेतु प्रेरित किया गया। भारतीय कृषि उत्पादों के उपयोग को भी लोकप्रिय किया गया।


जे.पी. रौडरिग्ज़

तामिल नाडू के टूटीकौर्न से सात मील दूर ध्रुवाईकुलम में 1930 में हुए नमक आन्दोलन के मार्च की अगुवाई मसीही नेता जे.पी. रौडरिग्ज़ ने की थी व टूटीकौर्न उन्हें वेल्लोर जेल भेज दिया गया था, जहां पर तामिल नाडू के सत्यामूर्ति, राजाजी, कामराज, टी. प्रकासम एवं पत्ताभी-सीतारम्मया जैसे सभी प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी पहले से ही अंग्रेज़ शासकों ने कैद करके रखे हुए थे। श्री रौडरिग्ज़ ने इन्हीं नेताओं के साथ वेल्लोर कारावास में एक वर्ष बिताया।

श्री जे.पी. रौडरिग्ज़ उस समय की समस्याओं का विवरण देते हुए बतलाते हैं कि - ‘‘पुलिस ने जब मसिलामणी, पी. गान्धास्वामी व मुझे 1930 में ग्रिफ़्तार किया तो हमें पहले प्रातः 11ः00 बजे से लेकर देर शाम तक पुलिस थाने की एक अन्धेरी कोठड़ी में बन्द करके रखा। शाम तक हमें चाय-पानी कुछ नहीं दिया गया। उस कोठड़ी का फ़र्श भी कच्चा था व उसमें कोई खिड़की भी नहीं थी। वहां पर अजीब से कीड़े-मकौड़े हमें निरंतर काट रहे थे। कुछ दिन हमें वहीं पर रखा गया और फिर हमें अलग-अलग कमरों में रखा। हम तब स्वतंत्रता के गीत गाया करते थे। अन्य देश-भक्त भी जेल में हमारे गीतों का आनन्द उठाने लगे थे। पहले दिन जेल के एक पुलिस अधिकारी ने मुझे पेशाब (मूत्र) वाला जग उठाकर खाली करने को कहा परन्तु मैंने इन्कार कर दिया क्योंकि वह जेल के सेवकों का काम था। तब वह जेल वार्डन पर चीखने-चिल्लाने लगा और तब वे सेवक आए व उन्होंने उस जग को उठा कर धोया।’’

श्री जे.पी. रौडरिग्ज़ ने एक गतिशील नेता की तरह दक्षिण तामिल नाडू में ‘नैश्नल क्रिस्चियन वालन्टियर्स आर्मी’ (राष्ट्रीय मसीही स्वयं-सेवक सेना) का भी गठन किया था। वह तब वलेरियन के साथ इस सेना को संगठित करने हेतु कोलम्बो (श्री लंका) भी गए थे।

श्री रौडरिग्ज़ तामिल पत्रिका ‘सुधान्तिरा वीरां’ द्वारा अपना सन्देश आम मसीही लोगों तक पहुंचाया करते थे और उसी से युवा भी प्रेरणा लिया करते थे। मंगलौर के एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी जीरोम सल्दाना ने रोमन कैथोलिक की राष्ट्रीय पत्रिका ‘दि एग्ज़ामीनर’ में लिखा था कि श्री रौडरिग्ज़ की लिखित रचनाओं से टूटीकौर्न के कैथोलिक व्यापारी भी स्वतंत्रता संग्राम में कूदने हेतु प्रेरित हुए थे।


वलेरियन फ़रनांडो

पर्ल-सिटी (मोती नगर) के तौर प्रसिद्ध टूटीकौर्न के एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्वतंत्रता सेनानी वलेरियन फ़रनांडो हुए हैं, जिनका जन्म 1909 में टूटीकौर्न के समीपवर्ती पारंपरिक कैथोलिक गांव वीरापाण्डियन पटनम में हुआ था। वलेरियन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा टूटीकौर्न में ही प्राप्त की थी तथा बाद में उन्होंने श्री लंका में एक छोटी सी दुकान खोल ली थी। 1930 में राष्ट्रीय नेताओं के आह्वान पर श्री वलेरियन ने श्री लंका में युवाओं को संगठित करना प्रारंभ कर दिया था। 1930 में जब जवाहरलाल नेहरु श्री लंका गए थे, तो वलेरियन भी उनके साथ रहे थे, ताकि तामिल युवा भी स्वतंत्रता संघर्ष की ओर आकर्षित हो सकें। उन्होंने ‘वालन्टियर्स आर्मी’ नामक युवाओं की एक वाहिनी (यूथ बटालियन) भी बनाई थी, जो भारत की आज़ादी के लिए श्री लंका में ब्रिटिश सरकार के विररुद्ध लड़ती थी।

वलेरियन फ़रनांडो पाज़ाकायल, टूटीकौर्न एवं ध्रुवीयाकुलम स्थित नमक बनाने की अपनी फ़ैक्ट्रियों में रोज़गार देने हेतु भी समर्थ थे। उन्होंने मदुराई में शराब की कई दुकानें बन्द करवाने हेतु उनके विरुद्ध रोष-प्रदर्शन आयोजित करवाए थे, इसके लिए अंग्रेज़ शासकों द्वारा उन्हें पांच माह के लिए कारावास में डाल दिया गया था। जब वह जेल में थे, तभी उनकी माँ का निधन हो गया था, जिसके कारण वह उनके जनाज़े तक में भी सम्मिलित नहीं हो पाए थे। जेल से रिहा होने के बाद भी वह स्वतंत्रता आन्दोलनों में जस के तस भाग लेते रहे। असहयोग आन्दोलन के दौरान उन्होंने आम लोगों को ब्रिटिश सरकार को टैक्सों का भुगतान न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने के लिए उत्साहित किया था। पुलिस ने उन्हें एक बार फिर कारावास में डाल दिया था और इस बार तत्कालीन न्यायालय ने उन्हें एक बार और छः माह की कैद का दण्ड सुनाया था।


गांधी जी के असहयोग आन्दोलन को कन्याकुमारी क्षेत्र में मिली अच्छी अनुक्रिया

1930 में आगाथीसवारम के एक पादरी (फ़ादर) ए. साथियानेसेन जोसेफ़ भी स्वतंत्रता आन्दोलनों में सक्रिय रहे थे। जनवरी 1932 में बूतापाण्डी के पी. जीवानन्दम ने प्रतिबन्द्ध के आदेशों का उल्लंघन करते हुए करियाकुड़ी के पास कोट्टायूर में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया था और तभी उन्हें ग्रिफ़्तार कर लिया गया था। उन्हें उस आन्दोलन में भाग लेने के लिए एक वर्ष कैद बामुशक्कत की सज़ा दी गई थी।

तिरुनेलवेली ज़िले में पलायमकोट्टाई के मसीही समुदाय की एक बैठक में यह सबके सामने आ गया था कि उनमें राष्ट्रवादी भावना कितनी कूट-कूट कर भरी हुई है। उस मीटिंग में मसीही नेताओं के संभाषण सुनकर यह स्पष्ट हो गया था कि स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने के मामले में भारतीय मसीही समुदाय किसी भी अन्य धर्म के लोगों से कतई पीछे नहीं था।


संथियावू

कन्याकुमारी ज़िले के माईलाड़ी गांव के संथियावू भी मसीही स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। वे अपने सभी अन्य कार्य छोड़ कर स्वतंत्रता आन्दोलनों में शामिल हुए थे। विभिन्न गांवों में कैथोलिक चर्च-सभाएं समाप्त होने के पश्चात् वह मसीही पत्रिका ‘सुधान्तिरा संगू’ वितरित किया करते थे। वह सदा खादी के वस्त्र ही पहना करते थे। उन्होंने 1928 में विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करके गांवों में खादी के वस्त्रों के बण्डल वितरित किए थे।

1931 में जब सूनाईमेदू में संथियावू शराब की दुकानें बन्द करवाने हेतु रोष प्रदर्शन कर रहे थे, तब वह पुलिस के लाठीचार्ज से बुरी तरह घायल हो गए थे और उनके सर पर गहरी चोट लगी थी। राज्य कांग्रेस समिति ने त्रावनकोर स्थित पदमनाभ स्वामी मन्दिर में दाखिल होने की लहर आयोजित की थी। श्री संथियावू ने उसमें भाग लिया था और ब्रिटिश शासकों ने उसके बदले उन्हें दो माह के लिए जेल में कैद करके रखा था।

वेधरनायम में राजाजी के नमक मार्च में 42 कांग्रेसियों ने भाग लिया था और श्री संथियावू भी उनमें से एक थे। उसके पश्चात् 1932 में स्वयं संथियावू ने भी कन्याकुमारी ज़िले में नमक मार्च का आयोजन किया था। उनकी ऐसी गतिविधियों क कारण पुलिस ने उन्हें फिर लाठीचार्ज में घायल कर दिया था तथा वह पुलिस के घोड़े के पांव की नाल से भी ज़ख़मी हो गए थे। तब उन्हें राजाजी, ओमानतूर रामासामी रैड्डीयार, सेंगलवरायण एवं एम.वी. पेरुमल नायडू, त्यागी संथियावू के साथ नौ माह कारावास की सज़ा हुई थी और उन्हें 100 रुपए जुर्माना भी किया गया था। श्री संथियावू क्योंकि निर्धन थे, इसी लिए वह 100 रुपए जुर्माना भी नहीं भर पाए थे, इसी कारणवश उनकी सज़ा छः और माह के लिए बढ़ा दी गई थी।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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