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टीपू सुल्तान ने 15 वर्षों में मारे थे 63 हज़ार भारतीय मसीही, 27 चर्च किए थे नष्ट



 




 


मैसूर का राजा टीपू सुल्तान व मसीहियत पर उसके अत्याचार

मैसूर के राजा टीपू सुल्तान (20 नवम्बर, 1750-4 मई, 1799) ने मसीही समुदाय पर बहुत अधिक अत्याचार किए थे। उसने 1784 से लेकर अपने देहांत 1799 तक अर्थात पूरे 15 वर्षों तक 60 से 70 हज़ार मसीही लोगों (जिनमें से अधिकतर मंगलौर के मसीही थे) को कैद करके रखा था। उसने अपने कार्यकाल में 27 कैथोलिक गिर्जाघरों को नष्ट किए थे। उन सभी चर्चेज़ में विभिन्न मसीही सन्तों के बुत्त भी लगे हुए थे, जिन्हें टीपू ने बेदर्दी से नेस्तोनाबूद कर दिया था। ऐसे गिर्जाघरों में मंगलौर का नोसा सेन्होरा डी रोज़ारियो मिलेजर्स चर्च, मौंटे मारिआनो स्थित फ़ादर मिराण्डा’ज़ सैमिनरी, ओमज़ूर का जेसू मेरी जोस, बोलार का गिर्जाघर, उल्लाल का चर्च ऑफ़ मर्सेज़, मल्की स्थित इमाकुलाटा कोन्सिशियो, पेरार का सैन होज़े, किरेम स्थित नोसा स्नेहोरा डॉस रेमेडियोस, कार्कल स्थित साओ लॉरैंस, बर्कूर स्थित रोज़ारियो चर्च तथा बेदनूर स्थित इमाकुलाटा कोन्सिशियो चर्च शामिल थे।


छोड़ा था केवल हौज़पेट का चर्च ऑफ़ होली क्रॉस Tipu Sultan

इन सभी गिर्जाघरों की एक-एक ईंट को अलग कर दिया गया था। तब केवल इस क्षेत्र के हौज़पेट स्थित चर्च ऑफ़ होली क्रॉस को ही छोड़ा गया था क्योंकि इस चर्च के संचालकों के मूदबिद्री के छोटा राजा से बहुत अच्छे संबंध थे।

कनारा के प्रथम कुलैक्टर तथा स्कॉलैण्ड के सैनिक थॉमस मुनरो के अनुसार टीपू सुल्तान ने मंगलौर (कर्नाटक की राजधानी से 352 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित एक तटवर्ती नगर) के 92 प्रतिशत अर्थात 60 से 70 हज़ार मसीही लोगों को कैद कर लिया था और उनमें से केवल 7,000 ही बच पाए थे। फ्ऱांसिस बुचानन के अनुसार 80 हज़ार मसीही लोगों में से 70,000 को ग्रिफ़्तार किया गया था। इस प्रकार टीपू सुल्तान के कार्य-काल के दौरान प्रति दिन 11 से 12 मसीही लोगों का कत्ल किया गया और यह सिलसिला 15 वर्षों तक चलता रहा। क्या वे 63,000 भारतीय मसीही हमारे शहीद नहीं? क्या किसी केन्द्र या राज्य सरकार में है इतनी हिम्मत कि उन्हें लगभग सवा दो सौ वर्षों के पश्चात् भारत में शहीद घोषित करे। ऐसा तब तक नहीं होगा, जब तक कि हम समूह मसीही एक मंच पर इकट्ठे नहीं होंगे।


मसीही कैदियों को छः सप्ताह तक पहाड़ों व वनों में भगाया

पश्चिमी घाट की पहाड़ियों के घने जंगलों में 4,000 फ़ुट तक की चढ़ाई चढ़ने पर मजबूर किया गया था। वे सभी हज़ारों लोग आगे-आगे भाग रहे थे और उनके पीछे टीपू की बेदर्द सेना भाग रही थी। उन्हें 340 किलोमीटर दूर तक ऐसे ही छः सप्ताह तक के लिए दौड़ाया गया था। आख़िर उन्हें श्रीनागपटनम जाकर ग्रिफ़्तार कर लिया गया था। ब्रिटिश सरकार के रेकाडर््स के अनुसार उनमें से 20,000 लोग मारे भी गए थे। एक ब्रिटिश अधिकारी जेम्स स्करी, जिसे मंगलौर के कैथोलिक मसीही लोगों के साथ कैद किया गया था, के अनुसार उनमें से 30,000 लोगों को ज़बरदस्ती मुस्लिम बनने के लिए मजबूर किया गया था। युवा महिलाओं एवं लड़कियों को वहां पर रहने वाले मुस्लिम लोगों के पास छोड़ दिया गया था, ताकि वे उनसे विवाह या ऐश कर सकें।


जिन मसीही लोगों ने इस्लाम नहीं कबूला, उनके नाक-कान, एक-एक हाथ व पांव काट दिए गए

जिन हज़ारों मसीही लोगों ने टीपू की सेना का अत्याचार सहने के बावजूद इस्लाम कबूल करने से इन्कार किया, उन सभी के नाक, ऊपर के होंठ तथा कान काट कर कारावास में डाल दिया गया। उस अत्याचारी कैद से बचने वाले गंगोलिम के श्री सिल्वा के अनुसार श्रीनागपटनम में प्रत्येक मसीही के कान, नाक, पांव तथा एक-एक हाथ काट कर फेंक दिए गए थे। गोवा के आर्कबिशप ने 1800 में लिखा था कि दुनिया में मसीही समुदाय पर इससे भयानक अत्याचार की मिसाल शायद कहीं और न मिल पाए। टीपू सुल्तान ने मालाबार तट पर सेंट थॉमस मसीही समुदाय को भी नहीं बख़शा।


पुरानी मसीही धार्मिक हस्त एवं पाण्डुलिपियों को जला कर किया था नष्ट

मालाबार एवं कोचीन में अनेक चर्च ढाह दिए गए। अंगामाली में कई सदियों से चली आ रही सीरियन मसीही सैमिनरी (जहां पादरी साहिबान एवं युवा लोगों को धार्मिक शिक्षा दी जाती है) को टीपू के सैनिकों ने कुछ ही समय में पूर्णतया नष्ट कर दिया था। पुरानी मसीही धार्मिक हस्त एवं पाण्डुलिपियों को जला दिया गया। वह चर्च बाद में कोट्टायम में पुनः बनाया गया, जो आज तक कायम है। इसी तरह अकपरम्बू स्थित मोर सेबर चर्च तथा मार्थ मरियम चर्च के साथ जुड़ी सैमिनरी को भी बर्बाद कर दिया गया। टीपू की सेना ने 1790 में प्लायूर के चर्च को भी आग लगाई तथा ओल्लूर चर्च पर भी आक्रमण किया। आरदैट चर्च तथा अम्बाज़ाकड़ सैमिनरी को भी बर्बाद कर दिया गया। इस सब के दौरान बहुत से सीरियन अर्थात सेंट थॉमस मसीही लोग मारे गए या उन्हें ज़बरदस्ती मुस्लिम बना दिया गया।


मसीही किसानों की फ़सलों तक को भी नहीं छोड़ा गया

आक्रमणकारी सेनाओं ने उस समय सेंट थॉमस मसीही किसानों के नारियल, अख़रोट, काली मिर्च तथा काजू की फ़सलों को भी नष्ट कर दिया। अधिकतर सीरियन मसीही लोगों को अपनी जानें बचाने हेतु भाग कर कुन्नमकुलम, चलाकुड़ी, एमाकड़ू, चेपाड़ू,, कन्ननकोड, मवेलीकारा जाना पड़ा, जहां त्रावनकोर के शासक कार्तिक थिरूनल तथा कोचीन के शासक साक्तन तम्बूरन ने उन्हें शरण दी। उन स्थानीय राजाओं ने पूरी तरह लुट चुके मसीही लोगों को ज़मीनें दीं और बाग-बग़ीचे दिए जहां वे अपने कारोबार स्थापित कर सकें। त्रावनकोर के ब्रिटिश नागरिक कर्नल मैकुले ने भी तब उजड़ कर आए बहुत से मसीही लोगों की सहायता की थी।


1780 से 1784 तक हज़ारों ब्रिटिश सैनिकों को बंधक बना कर उन पर किए अत्याचार

टीपू सुल्तान ने हज़ारों ब्रिटिश सैनिकों को भी अपने पास बंधक बना कर रखा था। 1780 से लेकर 1784 तक उन पर भी बहुत अत्याचार किए गए। पोल्लीलूर में अंग्रेज़ सैनिक तब टीपू की सेना से हार गए थे, टीपू ने सात हज़ार ब्रिटिश सैनिकों को श्रीनागपटनम के किले में कैद कर लिया था। उनकी महिलाओं को भी नहीं बख़शा गया था। उनमें से 300 ब्रिटिश सैनिकों के ज़बरदस्ती ख़तने कर दिए थे (लिंग के अगले भाग को काट दिया गया था) तथा उन्हें मुस्लिम नाम दे दिए गए। बहुत से ब्रिटिश रैजिमैन्टल लड़के, जो फ़ौजी बैण्ड बजाते थे, उन्हें घागरे-चोलियां पहना कर स्त्रियों की तरह दरबार में नाचने पर मजबूर किया गया। उस समय के ऐसे घृणित अत्याचारों की दुःखदायी कथा का वर्णन उस किले में 10 वर्षों तक कैद रहे ब्रिटिश अधिकारी जेम्स स्करी ने किया था। उन्होंने बताया कि वह उस एक दश्क की कैद के दौरान कुर्सी पर बैठना एवं छुरी-कांटे का प्रयोग करना तक भूल गए थे। उनकी अंग्रेज़ी भाषा में स्थानीय भाषा के शब्द सम्मिलित हो गए थे। उनका रंग बिल्कुल काला किसी नीग्रो की तरह हो गया था। और उन्हें तब यूरोपियन कपड़े पहनने से नफ़रत सी होने लगी थी।


टीपू सुल्तान ने मंगलौर के किले पर किए थे मंगलौर के 5,600 मसीही, हज़ारों ब्रिटिश सैनिक अलग थे

मंगलौर के किले पर जब अंग्रेज़ सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा था, तब वहां पर सभी अंग्रेज़ों को मौत के घाट उतार दिया गया था और वहां पर मरने वालों मे 5,600 मंगलौर के मसीही लोग भी थे। उन सभी की लाशें नेत्रावती दरिया में बहा दी गईं थीं। वे लाशें नदी में सड़ने लगी थीं और किनारों पर रहने वाले लोगों को उस मानवीय मांस की सड़ांध से बचने के लिए अपने घर छोड़ कर दूर जाना पड़ गया था।


हज़ारों भारतीय मसीही लोगों को कत्ल करना बड़ी ग़लती थी टीपू सुल्तान की

मैसूर के राजा टीपू सुल्तान का युद्ध सीधे अंग्रेज़ों के साथ था, उसे अपने ही देश के आम निर्दोष मसीही लोगों को बन्दी बनाने एवं उन पर अत्याचार ढाने की क्या आवश्यकता थी। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था - भारत का मसीही समुदाय इसे टीपू सुल्तान की बड़ी ग़लती मान कर उस घटना की सख़्त निंदा करता है। टीपू आक्रमणकारी अंग्रेज़ सैनिकों या अधिकारियों के साथ जैसा मर्ज़ी सलूक करता, वह जायज़ होता (क्योंकि देश पर आक्रमण करने वाला चाहे कोई भी क्यों न हो, उसे सबक सिखाना ही चाहिए) परन्तु बेकसूर भारतीय बच्चों, महिलाओं व आम पुरुषों पर ही अत्याचार ढाहना कहां की समझदारी थी।


1774 में पहले मसीही रोज़े के दिन ढाहे थे चर्च व मसीही लोगों को लूटा था

1799 में टीपू सुल्तान की हार के पश्चात् जब दक्षिण किनारे पर अंग्रेज़ों का शासन कायम हुआ, तो किनारे के कैथोलिक मसीही लोगों की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा था, क्योंकि श्रीनागापट्नम की जेल में पिछले 15 वर्षों से कैद उनके अनेक मित्र व रिश्तेदार तब रिहा हो पाए थे। 1774 में जब गुड-फ्ऱाईडे एवं ईस्टर से 40-42 दिन पूर्व जब बुधवार (ऐश वैन्ज़डे) को मसीही रोज़े (व्रत या लैन्ट सीज़न) प्रारंभ होने जा रहे थे, तो उसी पहले दिन जानबूझ कर टीपू सुलतान ने अपनी सैनिक कार्यवाही करते हुए किनारे के सभी चर्च नष्ट कर दिए थे तथा इस क्षेत्र के कैथोलिक मसीही लोगों को पूरी तरह से लूट लिया था।


टीपू सुल्तान से दुःखी, दक्षिण के मसीही समुदाय ने किया था अंग्रेज़ सरकार का स्वागत

इस घटना के लगभग एक शताब्दी के पश्चात् बौम्बे प्रैज़ीडैन्सी में ब्रिटिश राज्य के एक सरकारी कर्मचारी जेरोम सल्दानाह ने ‘मैंगलोर मैगज़ीन’ में लिखे एक लेख में टीपू सुल्तान के अत्याचारों का विवरण दिया था। उसने लिखा था किनारा क्षेत्र के सभी वर्गों के लोग, विशेषतया मसीही समुदाय टीपू सुल्तान के अत्याचारों से इतने दहशतज़दा थे कि उन्होंने अंग्रेज़ों के शासन का अत्यधिक स्वागत किया था। शायद तब उन्हें अपने भविष्य में शांति एवं समृद्धि दिखाई देनी लगी होगी। अंग्रेज़ों के आगमन का ऐसा स्वागत भारत में अन्य कहीं नहीं हुआ था।

बम्बई में सरकारी सेवा से निवृत्त हो कर जेरोम सल्दानाह मंगलौर लौट गए थे तथा मद्रास विधान परिषद के सदस्य भी बने थे। बाद में जब देश में राष्ट्रवाद की लहर चली थी, तब वह महात्मा गांधी के भी प्रशंसक बन गए थे। 1927 में जब गांधी जी मंगलौर पहुंचे थे, तो जेरोम तब कांग्रेस की साऊथ किनारा ज़िला इकाई के अध्यक्ष थे। गांधी जी ने जिस जन-सभा को संबोधन किया था, उसकी अध्यक्षता जेरोम सल्दानाह ने ही की थी।


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