Tuesday, 25th December, 2018 -- A CHRISTIAN FORT PRESENTATION

Jesus Cross

असंगठित मसीही लोगों को इकट्ठा करने हेतु क्या कुछ कर सकता है चर्च?



 




 


भारत में स्वेच्छा से बड़ी संख्या में क्यों बन रहे मसीही?

उत्तर भारत में मसीही समुदाय की संख्या एक स्थिर ढंग से बढ़ रही है, परन्तु अधिकतर मसीही कलीसियाओं के पास अपना स्वयं का कोई चर्च नहीं है अथवा इस बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि वे किसी संगठित चर्च के साथ जुड़े हुए नहीं हैं। दरअसल, कुछ पारंपरिक धर्मों के अनुयायियों में असमानता एवं ऊँच-नीच के भाव ही हुआ करते हैं, जो कुछ तथाकथित निम्न वर्ग के लोगों में नाराज़गी फैला दिया करते हैं; जिसके कारण वे अन्य धर्मों में जाते हैं। यह एक ऐसा बड़ा कारण है, जिसके कारण बहुत से भारतीय धीरे-धीरे मसीहियत की ओर आने लगे हैं। बाईबल तो उन्हें बाद में अपनी महान् बातों व व्यापकता के कारण स्वयं ही अच्छी लगने लगती है, पहले वे इसी बात से प्रसन्न हो जाते हैं कि इतना मान-सम्मान तो उन्हें पिछली कई पीढ़ियों से नहीं मिल पाया, वह उन्हें चर्च आकर मिलने लगता है। बाकी यह कलीसिया को जोड कर रखने वाले पादरी पर निर्भर करता है कि वह उन्हें हमारे उद्धारकर्ता यीशु मसीह का कितना प्यार उन्हें दे पाता है। वह उन्हें एक नई सफूर्ति से जागृत करके एक नए प्रगति पथ पर चला सकता है।


स्वतंत्र भारत में एक नए पथ की खोज की शुरूआत की डॉ. अम्बेडकर ने

CNI Church, Sector-18, Chandigarh स्वतंत्र भारत में एक नए पथ की खोज की शुरूआत भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर (14 अप्रैल 1891-6 दिसम्बर, 1956) ने कर दी थी। वह प्राचीन ऊँच-नीच व अस्पृश्यता जैसी बातों से तंग आ गए थे, इसी लिए उन्होंने 1950 के आस-पास के समय में हिन्दु धर्म को त्याग करके बुध धर्म की ओर अपना ध्यान लगा दिया था। इससे पूर्व उन्हें अनिद्रा की बीमारी हो गई थी, उनकी टांगों में न्यूरोपैथिक दर्द रहने लगा था। उन्हें इन्सुलिन लेनी पड़ती थी और वह होम्योपैथिक दवायें भी काफ़ी लिया करते थे। वह अपने उपचार के लिए बम्बई गए थे, जहां उनकी मुलाकात डॉ. शारदा कबीर से हुई। दोनों एक-दूसरे को पसन्द करने लगे थे। दोनों ने 15 अप्रैल, 1948 को विवाह करवा लिया था (उनकी पहली पत्नी रम्बानी का देहांत 1935 में हो गया था)। वैसे भी डॉ. अम्बेडकर को एक ऐसे डॉक्टर का साथ चाहिए था डॉ. शारदा कबीर स्वयं एक ब्राह्मण परिवार से संबंधित थीं परन्तु उन्होंने एक बड़ा निर्णय इसी लिए लिया था क्योंकि वह भी अपने शायद ऊँच-नीच की भावनाओं से तंग आ चुकी थीं, शायद इसी लिए वह भी बुद्ध धर्म को मानने लगी थीं।। विवाह के उपरान्त उन्होंने अपना नाम सविता अम्बेडकर रख लिया था।


मसीही दार्शनिक विशाल मंगलवाड़ी ने की खोज

भारत के एक बड़े समाज-सुधारक तथा प्रसिद्ध मसीही दार्शनिक विशाल मंगलवाड़ी का मानना है कि बहुत से लोगों ने यही महसूस किया कि अम्बेडकर का नव-बुद्धवाद एक स्थान पर जाकर पूर्णतया समाप्त हो जाता है तथा कुछ बुनियादी आध्यात्मिक एवं सामाजिक प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाता। इसी लिए बहुत से लोगों (विशेषतया बहुत से दलितों) ने यीशु मसीह के बारे में खोज करनी प्रारंभ कर दी। श्री विशाल मंगलवाड़ी, जो अधिकतर उत्तर प्रदेश में रहे हैं, का मानना है कि जो लोग हिन्दु धर्म का त्याग करके यीशु मसीह को ग्रहण करते हैं, उन्हें वर्तमान चर्च की संरचना (ढांचा) अच्छी नहीं लगती (अच्छा नहीं लगता)। वे यीशु मसीह को तो अपना लेते हैं, परन्तु पुराने व नए मसीही चर्चों से बाहर ही रहते हैं। अब सोचने वाली बात यह है कि क्या चर्च के बग़ैर मसीहियत को वैसा फल मिल पाएगा, जैसा परमेश्वर ने अब्राहम से वायदा किया था।


बिना धन-दौलत के लालच के बन रहे लोग मसीही

श्री विशाल मंगलवाड़ी का कहना है कि ‘‘चाहे इस बात के विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु भारत के केवल एक राज्य (श्री मंगलवाड़ी ने राज्य का नाम नहीं लिया परन्तु ऐसा राज्य अवश्य ही 20 करोड़ से भी अधिक जन-संख्या वाला उत्तर प्रदेश ही हो सकता है) में एक करोड़ से भी अधिक लोग हाल ही के कुछ वर्षों में चुपचाप यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता के तौर पर ग्रहण कर चुके हैं। परन्तु उन में से 2-3 प्रतिशत से अधिक किसी स्थानीय चर्च में नहीं जाते। बहुत से मसीही विश्वासी बुत्तों की पूजा भी करते हैं। उन एक करोड़ लोगों में से केवल 10,000 ने ही बाईबल का गहन अध्ययन किया होगा। उनमें से केवल 2,000 लोग ही दो से तीन वर्ष का बाईबल कोर्स परिपूर्ण कर पाए होंगे।’’ अपनी मर्ज़ी से धर्म परिवर्तन करने वाले लोगों को कभी किसी धन-दौलत का कोई लालच नहीं हुआ करता और न ही इतनी सहायता कभी कोई किसी की बाहर से कर सकता है। इस प्रकार जो भी धर्म परिवर्तन होते हैं, उसके लिए भारत के पारंपरिक असमानता वाले सामाजिक विचार ही ज़िम्मेदार हैं। यीशु मसीह एवं बाईबल का सिद्धांत किसी भी धर्म विशेष का विरोध नहीं करता। बहुत से ब्राह्मण भी मसीही बने हैं। मसीहियत में तो सभी का सदा स्वागत है।


भारत में नए मसीही लोगों को संगठित करना आवश्यक

वास्तव में बात वही है कि मसीहियत का पासार उसके प्रचारक के कारण उतना नहीं हो पाता है। यीशु मसीह ने बीज बोने वाले के दृष्टांत से समझाया था (मत्ती 13ः 1-20) कि फ़सल अच्छी होगी या नहीं यह बीज बोने वाले पर उतनी निर्भर नहीं करती, यह तो धरती के उस विशेष टुकड़े पर निर्भर करती है, जहां बीज बोया गया है। इसी प्रकार एक प्रचारक किन लोगों में प्रचार कर रहा है, क्या वे उन बातों को सदा के लिए याद रखेंगे? क्या वे सदा के लिए यीशु मसीह को अपना लेंगे?

अमेरिका के मसीही मिशनरी अपनी प्रार्थनाओं से लोगों को चंगा करने पर अधिक ज़ोर देते हैं, परन्तु वह एक संगठित चर्च की स्थापना पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते। उत्तर प्रदेश के एक करोड़ नए लोगों को संगठित चर्च के साथ कैसे जोड़ना है, यही बड़ी चुनौती है। ऐसे लोग केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि देश के अन्य सभी राज्यों में आपके व मेरे आस-पास भी अवश्य होंगे।


यह कर सकता है चर्च?

चर्च को ऐसे ग़रीब लोगों को आर्थिक तौर पर सशक्त बनाने हेतु उन्हें प्रत्येक प्रकार से शिक्षित करना होगा। उन्हें ऐसे रास्ते दिखलाने होंगे कि जिन पर चल कर वे अपने भविष्य को संवार सकें। क्या एक चर्च में ग़रीब लोगों को ड्राईविंग करना व वाहन चलाना नहीं सिखाया जा सकता? क्या चर्च में महिलाओं को यह बात नहीं समझाई जा सकती कि केवल दो-तीन महिलाएं एक साथ मिल कर किसी फ़ैक्ट्री अथवा कार्यालय के कर्मचारियों को खाना सप्लाई करने का कार्य प्रारंभ कर सकती हैं या ऐसे कुछ अन्य लघु उद्योग प्रारंभ कर सकती हैं। युवाओं को समझाया जा सकता है कि उन्हें अब 10वीं के बाद कौन सी पढ़ाई अपनी दिलचस्पी के अनुसार करनी चाहिए।

एक पादरी ग़रीब लोगों को पढ़ाने का कार्य भी कर सकता है। ऐसे बहुत से कार्य चर्च के द्वारा प्रारंभ किए जा सकते हैं, जिनके द्वारा मसीही लोग केवल शनिवार या रविवार को ही नहीं, अपितु सप्ताह के सभी दिन आपस में सकारात्मक ढंग से जुड़े रह सकते हैं। चर्च अपने कुछ कंप्यूटर ख़रीद कर युवाओं को उन्हें चलाने का प्रशिक्षण भी दे सकता है, उन्हें अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान दिया जा सकता है। ऐसा ज्ञान देने की ज़िम्मेदारी चर्च के कुछ सदस्य ले सकते हैं। ऐसी बातों से हम यीशु मसीह का सन्देश और भी अच्छे ढंग से प्रचारित व प्रसारित कर सकते हैं। ऐसा ज्ञान लेने के लिए अन्य धर्मों के लोग भी चर्च में आ सकते हैं, जिन्हें मामूली फ़ीस लेकर ऐसा प्रशिक्षण दिया जा सकता है।

कन्याओं को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए कुछ बढ़िया प्रशिक्षण दिए जा सकते हैं। बहुत से लोग (मसीही भी) जो महंगे प्राईवेट मसीही स्कूलों व कॉलेजों में अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकते, उनकी सहायता चर्च किसी भी छोटे स्तर से प्रारंभ कर सकता है। वे एक गांव में डेयरी उत्पाद जैसे मक्खन, पनीर, लस्सी या आईस क्रीम बना सकती हैं। वे अपने आईस क्रीम पार्लर चला सकती हैं। चर्च अपने ज़रूरतमन्द सदस्यों को छोटे-छोटे ऋण भी दे सकता है, जिससे वह अपने स्वयं के छोटे-मोटे कारोबार चला सकें।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

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