पुर्तगाली शासकों के मसीही समुदाय पर अत्याचार
भारत के दक्षिणी किनारा ज़िले के प्रारंभिक मसीही
भारत के दक्षिण-पश्चिमी समुद्री तट पर स्थित कर्नाटक राज्य को पहले दक्षिणी किनारा ज़िला कहा जाता था। इस क्षेत्र में रोमन कैथोलिक मसीही समुदाय की संख्या काफ़ी अधिक है और ये सब मैंगलोर डायोसीज़ (एक बिश्प के आने वाला अधिकार-क्षेत्र) के अंतर्गत आते हैं। ये अधिकतर कोंकणी लोग हैं और कोंकणी भाषा ही बोलते हैं। 1784 में टीपू सुल्तान के कार्यकाल के दौरान ज़्यादातर मसीही लोगों को यहां से निकाल दिया गया था। इतालवी व्यापारी मार्को पोलो 1292 ईसवी में जब चीन से पर्सिया जाते समय भारत के दक्षिण किनारे पर रुका था, तब के हालात का वर्णन करते हुए वह लिखता है कि उस समय दक्षिण भारत के नगरों के व्यापारियों का अफ्ऱीका एवं एशिया के मध्यवर्ती क्षेत्र में मौजूद लाल समुद्र क्षेत्र तक कारोबार चलता था। माल का आदान-प्रदान बड़े स्तर पर समुद्री जहाज़ों के ज़रिए हुआ करता था। इस तथ्य से यह अनुमान सहज रूप से लगाया जा सकता है कि विदेशी मसीही व्यापारी भी भारत के दक्षिणी किनारे तक अवश्य आते होंगे और उनके साथ कभी मसीही पादरी व मिशनरी ज़रूर आए होंगे। दक्षिण-पश्चिमी फ्ऱांस के क्षेत्र सेवेराक के डौमिनिकन मसीही भिक्षु जॉर्डनस कैटालानी 1321 में वर्तमान कर्नाटक के ही उत्तरी किनारा क्षेत्र में आए थे।
मैंगलोर क्षेत्र पर ऐसे हुआ था पुर्तगालियों का कब्ज़ा
मैंगलोर के इतिहासकार सेवरीन सिल्वा द्वारा 1961 में प्रकाशित पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ़ क्रिस्चियनिटी’ (मसीहियत का इतिहास) के अनुसार ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि दक्षिण किनारे पर 16वीं शताब्दी से पूर्व कभी कोई मसीही लोग रहा करते थे। इस क्षेत्र में मसीहियत (ईसाईयत) का आगमन भी पुर्तगालियों के आने से ही हुआ। 1498 में पुर्तगाल का एक खोजी यात्री वास्को डा गामा दक्षिण किनारे के सेंट मेरी’ज़ टापूओं पर उतरा था और उसने यहां पर सब से पहले यीशु मसीह का चिन्ह सलीब गाड़ा था। सन् 1500 में एक अन्य पुर्तगाली खोजी पैड्रो अलवारेस कैब्राल उत्तरी किनारे के अन्जेदिवा नगर में आठ फ्ऱांसीसी मसीही मिशनरियों के साथ पहुंचा था। हैनरिक सोरेस डी कोईम्ब्रा के नेतृत्व में उन मिशनिरयों के प्रभाव के कारण मैंगलोर क्षेत्र के 22-23 लोगों ने यीशु मसीह को ग्रहण कर लिया था। 16वीं शताब्दी ईसवी में मध्य भारत से लेकर दक्षिण भारत के समुद्री तटों पर पुर्तगालियों ने अपना कब्ज़ा जमा लिया था। 1526 से लेकर 1529 तक भारत में उन पुर्तगाली बस्तियों के वायसरॉय रहे लोपो वाज़ डी सैम्पायो (जो पहले वास्को डा गामा के समुद्री पोत के कमाण्डर के तौर पर भारत आ चुके थे) के नेतृत्त्व में पुर्तगालियों ने मैंगलोर पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था।
उत्तरी किनारे से मसीही समुदाय की हिजरत
पुर्तगाली फ्ऱांसिस्कन मसीही मिशनरियों ने धीरे-धीरे मैंगलोर में धार्मिक प्रचार प्रारंभ किया। वैसे इस समय मैंगलोर में बहुत से ऐसे कैथोलिक मसीही हैं, जो 1560 एवं 1763 में दो बार काफ़ी बड़ी संख्या में गोवा से कर्नाटक के उत्तरी किनारे के क्षेत्र में आ कर बसे थे। 1560 में पुर्तगाल के अत्याचारी शासकों ने सीरियन तथा कैथोलिक मसीही लोगों को मौत के घाट उतारना प्रारंभ किया था, जिसके कारण बड़े स्तर पर लोगों की हिजरत अर्थात माईग्रेशन हुई थी (हम आज ऐसे हमलों की सख़्त निंदा करते हैं। वे कैसे शासक थे, जो यीशु मसीह का अहिंसा का प्रचार हिंसा से कर रहे थे। दरअसल उन्हें लगता था कि यीशु मसीह को जिस ढंग व रीतियों से वे मानते हैं, वही सही है बाकी सभी पापी हैं)।
पुर्तगालियों एवं मराठों के बीच युद्ध
गोवा के कैथोलिक मसीही समुदायों का उत्तरी किनारे के बेदनौर शासकों ने स्वागत किया था क्योंकि ये समुदाय कृषि के माहिर थे। फिर दूसरी बार गोवा से मसीही लोगों ने 17वीं शताब्दी के अन्त एवं 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में उस समय बड़े स्तर पर हिजरत की थी, जब पुर्तगालियों एवं मराठों के बीच युद्ध हुए थे।
मैंगलोरियन इतिहासकार ऐलन मकाडो प्रभु द्वारा 1999 में प्रकाशित पुस्तक ‘सरस्वती’ज़ चिल्ड्रनः ए हिस्ट्री ऑफ़ दि मैंगलोरियन क्रिस्चियन्ज़’ (सरस्वती के बच्चेः मैंगलोरियन मसीही लोगों का इतिहास) के अनुसार 1765 में जब हैदर अली ने किनारे पर कब्ज़ा किया था, तब मैंगलोर में 58 हज़ार मसीही रह रहे थे।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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