भारतीय मसीही समुदाय को विदेशी वित्तीय सहायता मिलने का सच
केवल मसीही मिशनरियों ने दिया था नए मसीही बने परिवारों का साथ
बहुत से अनपढ़ व गंवार किस्म के राजनीतिक नेता या उनके तलवे-चाट आलोचक प्रायः ऐसे आरोप लगाते रहते हैं कि भारतीय मसीही समुदाय को तो विदेशों से वित्तीय सहायता आती है। आईये, उन आरोपों की सही-सही व तथ्यात्मक समीक्षा करें।
17वीं, 18वीं एवं 19वीं शताब्दियों के दौरान जब भी कोई व्यक्ति या परिवार यीशु मसीह को ग्रहण करके मसीही धर्म में आता था, तो उनमें से अधिकतर को धर्म-परिवर्तन करने के कारण नौकरी चली जाती थी, उसका परिवार पुश्तैनी संपत्ति से उसे बेदख़ल कर देता था, उसे औपचारिक रूप से जाति से निकाल दिया जाता था और तब वह अपना पुश्तैनी कारोबार/व्यवसाय भी नहीं कर पाता था। ऐसी कठिनाईयों के बावजूद लोगों ने यीशु मसीह को अपनाना नहीं छोड़ा था। ऐसी परिस्थितियों में मसीही मिशनरियों ने उनके पुनर्वास की ज़िम्मेदारी लेनी भी प्रारंभ कर दी थी। उन्हें पढ़ाने-लिखाने का ख़र्च दिया जाता था और उन्हें अपने पांवों पर खड़े होने योग्य बनाया जाता था। उन्हें ख़ास तौर पर तकनीकी शिक्षा भी दी जाती थी और उन्हें नए स्थापित उद्योगों एवं कृषि-उद्योग में काम पर लगाया जाता था। तब बहुत से नए मसीही लोगों को टाईल बनाने के उद्योग, बुनकर संस्थानों एवं वस्त्र उद्योगों में कार्यरत किया गया था। ग़रीब मसीही लोगों को दस्तकारी अर्थात हस्त-कला में सुविज्ञ बनाया गया। तब बहुत से मसीही लोग बढ़ई भी बने। ऐसा केवल प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ होने अर्थात 1914 से पहले-पहले ही हो पाया। ऐसा भी सभी स्थानों पर संभव नहीं हो पाया था। कुछ बड़े शहरों व उनके आस-पास के क्षेत्रों में ही ऐसी कुछ सहायता मिल पाती थी।
ऐसे उड़ीं बातें कि विदेशी मिशनरी ईसाईयों को बाहर से देते हैं पैसा
ऐसे प्रयत्नों से कुछ कट्टर व भड़काऊ किस्म के बहुसंख्यक लोगों ने यह बात बना ली कि ये विदेशी मिशनरी तो ईसाई लोगों को बाहर से पैसा लाकर देते हैं। परन्तु भारतीय मसीही लोगों के उस मिशनरी-पुनर्वास के कारण मसीही समुदाय शैक्षणिक स्तर पर समृद्ध होने लगा। यीशु मसीह की शिक्षाओं व उपदेशों का प्रभाव होने के कारण अधिकतर मसीही लोग शिक्षा व मैडिकल क्षेत्रों में ही जाने लगे, क्योंकि यही ऐसे व्यवसाय हैं, जहां आप समाज कल्याण के कार्य खुल कर सकते हैं और असंख्य लोगों का सदा भला करते रह सकते हैं।
अमेरिकन बैप्टिस्ट मिशनरी एम.सी. मैसन ने 1877 में उत्तर-पूर्व भारत के गारोस में औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्र खोलने की आवश्यकता को महसूस किया था। 1910 में अलाहाबाद एग्रीकल्चरल इनस्टीच्यूट की स्थापना की गई थी। यह भारत में किसी भी मसीही मिशनरी संगठन द्वारा प्रारंभ किया गया प्रथम एवं सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षण संस्थान था।
99.99 प्रतिशत भारतीय चर्चों को विदेश से कोई वित्तीय सहायता नहीं आती
भारत के अधिकतर बहु-संख्यक लोगों में यही ग़लत धारणा पाई जाती है कि ‘...बई भारत के चर्चों को तो विदेशों से वित्तीय सहायता आती है’; वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। भारत के सभी चर्च (कुछ उंगलियों पर गिने जा सकने वाले कुछ प्रमुख महानगरों के पांच-छः गिर्जाघरों को छोड़ कर) आत्म-निर्भर हैं, वे सभी क्लीसिया अर्थात मसीही सदस्यों द्वारा दिए जाने वाले चन्दे/दान से ही चलते हैं। अपने समय के सक्रिय कार्यकर्ता श्री राजीव दीक्षित के उच्च विचारों की मैं बहुत ज़्यादा कद्र करता हूँ परन्तु उन्हें भी यह भ्रम अर्थात वहम था कि भारत के सभी गिर्जाघरों को विदेशों से वित्तीय सहायता मिलती है। आज यदि वह जीवित होते, तो मैं अवश्य उन्हें जाकर यह वास्तविकता बताता कि ऐसा कुछ नहीं है। मैं ऐसे असंख्य पादरी साहिबान को जानता हूँ, जो विगत 50 वर्षों से चन्दे के रूप में मिलने वाले केवल दो-तीन हज़ार रुपए से अपना घर चला रहे हैं परन्तु अपने जीवन में वे जो भी कर रहे हैं, उससे वे पूर्णतया प्रसन्न हैं। उनमें से बहुतेरों के पास अपना स्वयं का कोई घर भी नहीं है (यदि किसी भाई-बहन को शक है तो उनको ऐसे लोगों से जाकर मिलवाया भी जा सकता है और वे स्वयं उनकी हालत देख सकते हैं)। अरे भई, यदि उनको कहीं विदेशों से कोई सहायता मिल रही होती, तो आज वे भी बड़े बंगलों में रह रहे होते तथा बड़ी गाड़ियों में घूम रहे होते।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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