दक्षिण भारत में हिन्दु-मसीही एकता रही एक विलक्ष्ण मिसाल व कैथोलिक चर्च की स्थापना
पहली शताब्दी ईसवी से लेकर मुग़लों के आगमन तक मसीही समुदाय की संस्कृति रही मिश्रित
पहली शताब्दी ईसवी से लेकर मुग़लों के आगमन अर्थात सोलवीं शताब्दी ईसवी तक के भारत (विशेषतया दक्षिण भारत) में अधिकतर मसीही लोग व्यापारी व किसान ही हुआ करते थे, जो हिन्दु शासकों के अधीन समृद्ध हुए। कुछेक छिटपुट घटनाओं को छोड़ कर हिन्दुओं व मसीहीयों के मध्य सहनशीलता का भाव बना रहा। दक्षिण भारत के मसीही समुदाय ने बहुत से हिन्दु रीति-रिवाज भी अपनाए, जैसे विवाह के समय दूल्हे द्वारा दुल्हन को शुद्ध सोने का बना हुआ पैन्डैन्ट (लटकन), वस्त्र देना तथा तेल के दीपों (दीयों) को महत्त्व देना इत्यादि। पुरुषों द्वारा अपने नामों के पीछे शब्द ‘मैपिला’ लगाए। सीरियाई मसीही लोगों की अपनी भी कुछ परंपराएं व रीति-रिवाज कायम रहे। महिलाओं ने अपने नीचे के कपड़ों के गिर्द श्वेत ओढ़नी तथा ढीली फ़िटिंग वाले ब्लाऊज़ को अपनाया। वे कानों में सोने की बहुत अधिक लम्बी व भारी बालियां पहनती थीं, जो प्रायः उनकी वित्तीय समृद्धि को दर्शातीं थीं। उनके अपने कुछ विशिष्ट व विलक्ष्ण खाने भी हुआ करते थे। इस प्रकार इस समय के दौरान मसीही संस्कृति मिश्रित भाव वाली रही।
दक्षिण भारत के मन्दिरों में ईसाईयों को दिया जाता था विशेष निमंत्रण
मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के मायलापुर में स्थित सेंट थॉमस चर्च, जो 16वीं शताब्दी ईसवी में पुर्तगालियों ने बनवाया था। चित्रः विकीपीडिया
दक्षिण भारत (विशेषतया केरल) में चाहे अधिकतर मसीही लोग व्यापारी व किसान ही हुआ करते थे, परन्तु उनकी देश की जाति-प्रथा में भी कुछ भूमिका हुआ करती थी। उच्च जाति के हिन्दु पुजारी मन्दिरों में धार्मिक रीतियों को संपंन्न किया करते थे। उनकी पूजा में तेल व अग्नि का काफ़ी प्रयोग होता था। परन्तु यदि कभी कोई दलित (तथाकथित निम्न वर्ग का कोई व्यक्ति, जिन्हें तब ‘शूद्र’ कहा जाता था) व्यक्ति तेल को छूह लेता था तो वे पुजारी उस तेल को ‘अशुद्ध’ मानने लगते थे। तब सीरियन क्रिस्चियन्ज़ (सीरियाई मसीही), जो प्रायः देश की जाति-प्रथा से बाहर हुआ करते थे, हिन्दु पुजारी उन मसीही लोगों को विशेष तौर पर अपने मन्दिरों में बुलाया करते थे और कोई चुना हुआ मसीही प्रतिनिधि उस ‘अशुद्ध’ तेल में अपनी एक उंगली डुबो देता था। तब उस तेल को ‘शुद्ध हो गया’ मान लिया जाता था। ‘शुद्धिकरण’ की यह प्रक्रिया बहुत से मन्दिरों में कई सदियों तक चलती रही थी, जब सीरियन मसीही लोगों के संपूर्ण परिवारों को मन्दिरों में विशेष निमंत्रण दिया जाता था। कुछ ऐसे दोस्ताना व एक-दूसरे को आदर देने जैसे संबंध उस समय के भारत में मसीही लोगों व हिन्दुओं के बीच हुआ करते थे। इस प्रकार यह उस समय की सांप्रदायिक एकता की एक विलक्ष्ण मिसाल थी।
खोजी समुद्री यात्री वास्को डा गामा 1498 में पहुंचे दक्षिण भारत
ईसवी सन् 1498 में पुर्तगाल के एक पुर्तगाली खोजी समुद्री यात्री वास्को डा गामा ने अरब सागर में से दक्षिण भारत तक का एक नया व आसान रास्ता ढूँढा था। उस समय अकेले केरल में सीरियन मसीही लोगों की संख्या लगभग 2 लाख थी। पुर्तगाली यात्री तब केरल में गिर्जाघर व सलीबों को देखकर अत्यधिक आश्चर्यचकित रह गए थे परन्तु तब यहां पर कैथोलिक्स नहीं थे और पुर्तगाली लोग ग़ैर-कैथोलिक लोगों को सच्चे मसीही नहीं मानते थे। उन्हें लगा कि केरल के मसीही लोग वैसे नहीं थे, जैसे यीशु मसीह चाहते थे, वे तो स्वयं भारत की जाति-प्रथा का एक भाग बन चुके थे। वास्को डा गामा की जानकारी के आधार पर ही 12 वर्षों के बाद अलबकरुक ने भारत का रुख़ किया था।
1510 ई. में अलबकरुक ने की गोवा में प्रथम कैथोलिक चर्च की स्थापना
1510 ई. में पुर्तगाली सैन्य कमाण्डर अलबकरुक आया, तब गोवा में प्रथम कैथोलिक चर्च की स्थापना हुई। 1514 ई. में पुर्तगाल के राजा का पोप के साथ एक प्रशासकीय व धार्मिक समझौता हुआ - वह समझौता भारत में पुर्तगाली शासन के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में शासकीय व धार्मिक नियंत्रण संबंधी था। उसी दौर में फ्ऱांसिसकन्स, डौमिनिकन्ज़, ऑगस्तियन्ज़, कार्मेलाईट्स तथा जैसुईट मसीही समुदायों का आगमन भी हुआ और उन्होंने कैथोलिकवाद को तेज़ी से फैलाना प्रारंभ किया। जैसुईट मसीही समुदाय के संस्थापक इग्नेशियस लोयोला के साथी सन्त फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने इस क्षेत्र में सबसे अधिक मसीही उत्साह की भावना के साथ कार्य किए। भारत में गोवा तब मसीही मिशनरी गतिविधियों का केन्द्र बन गया था। कैथोलिक मसीही विश्वास यहीं से दक्षिण में केप कोमोरिन (वर्तमान कन्याकुमारी) से लेकर उत्तर भारत में लाहौर, आगरा, नेपाल व तिब्बत तक फैला। सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने जापान व चीन तक भी यात्राएं कीं।
कैथोलिक मसीही मिशनरियों ने भारत की बड़ी जन-संख्या को किया प्रभावित
कैथोलिक मसीही मिशनरियों के प्रभाव के कारण भारत के अधिकतर तथाकथित निम्न वर्गों के लोग, केरल में विशेषतया मछेरे, ही अपने धर्म-परिवर्तित करके मसीही बन गए। परन्तु गाय व सूअर का मांस खाने वाले यूरोपियनों को तथाकथित उच्च जाति के हिन्दु व सीरियन क्रिस्चियन्ज़ अच्छा नहीं मानते थे। वे उन यूरोपियनों के लिए अपमानजनक शब्द ‘परांग’ अथवा ‘परांगी’ का इस्तेमाल किया करते थे। भारत के हिन्दु व सीरियन मसीही लोग इन नए कैथोलिक मसीही लोगों को कभी भी आदर की नज़र से नहीं देखते थे। नए मसीही बने लोगों ने लातीनी नामों को अपनाना प्रारंभ कर दिया और उन्होंने अपने समुदाय व चर्च विकसित किए। मसीही बन जाने के बाद भी देश में उनकी पहली मूल जाति का ठप्पा ज्यों का त्यों लगा रहा।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]