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अंग्रेज़ों के भारत आने से पूर्व का भारतीय मसीही समुदाय



 




 


भारत में मसीहियत के कुछ पुख़्ता प्रमाण

उसके बाद आगामी वर्षों में विभिन्न मसीही समूह पश्चिमी एशिया से भारत के मालाबार समुद्री तट पर आते रहे। इसी लिए मालाबार मसीही समुदाय के मैसोपोटामिया (यह क्षेत्र कांस्य युग से था और इस में सुमेर, अकाडियन, बेबीलोन एवं असीरियन क्षेत्र आते थे और वर्तमान स्थिति के अनुसार इस में इराक व उसके समीपवर्ती क्षेत्र आते थे) एवं पर्सिया (आज का ईरान) के गिर्जाघरों के साथ करीबी संबंध बने रहे हैं क्योंकि इस समुदाय के लिए उनके बिशप उन्हीं क्षेत्रों से ही नियुक्त हो कर आया करते थे। दक्षिण भारत में आठवीं शताब्दी ईसवी के एक पेरुमल (राजा) वीर राघव चक्रवर्ती ने मसीही समुदाय को विशेष व दुर्लभ प्रकार की रियायतें व तोहफ़े दिए थे।


पहलवी शिलालेखों पर सलीब के निशान

Pahalvi Inscription

पहलवी शिलालेख। चित्रः साहापीडिया.ऑर्ग

9वीं शताब्दी ईसवी की ताम्बे की प्लेटों पर मालाबार समुद्री तट के राजाओं द्वारा ऐसी रियायतें देने तथा केरल में चर्च के निरंतर विकास के तथ्यात्मक प्रमाण मिलते हैं। तामिल नाडू के मद्रास (आज का चेन्नई) तथा केरल के कोट्टायम में जो पहलवी शिलालेख पाए गए हैं, उन पर पर्सियन शैली की सलीबों के निशान पाए गए हैं। मार्को पोलो (1293), एक फ्ऱांसीसी मसीही भिक्षु मौन्टे कॉर्विनो के जॉन (1292-93), टुलूस के मसीही भिक्षु जॉर्डन (1302) तथा जॉन डी मैरिग्नोल्ली (1348) सभी ने भारत में अपने-अपने समय के दौरान भारत में गिर्जाघर (चर्च) विद्यमान होने की बात की है।

उत्तर भारत में उन दिनों में मसीही समुदाय के मौजूद होने के कोई पक्के प्रमाण मौजूद नहीं हैं। ऐसे कुछ अनुसंधान यह तो बताते हैं कि यीशु मसीह के शिष्य सन्त थोमा (सेंट थॉमस) उत्तर-पश्चिम (वर्तमान पंजाब के क्षेत्र सहित) के राजा गोण्डोफ़रेस के राज्य के दौरान इस क्षेत्र में आए थे। परन्तु इस बात के पुख़्ता प्रमाण अवश्य मौजूद हैं कि उत्तर भारत के व्यापारिक संबंध फ़ारस की खाड़ी के देशों जैसे आर्मीनिया एवं एडेसा से थे और इन दोनों देशों में प्रारंभ से ही मसीही समुदायों का ही बोलबाला रहा है। एडेसा के ईसवी सन् 91-96 के दस्तावेज़ बताते हैं कि उस समय के दौरान पार्थिया एवं बैक्टरिया में मसीही समुदाय मौजूद थे।


चौथी शताब्दी ईसवी में ईरान में अत्याचारों से तंग आकर हज़ारों मसीही आए थे भारत

चौथी शताब्दी ईसवी में राजा सैपोर-द्वितीय के राज्य में पर्सियन मसीही लोगों पर अत्यधिक अत्याचार किए गए थे। उस दमनकारी राजा ने 16,000 से अधिक मसीही लोगों को शहीद कर दिया था। तब वहां से बहुत से मसीही परिवार भाग कर भारत भी आए थे। सातवीं शताब्दी ईसवी के प्रमाणों के अनुसार भारत में तब 10 के लगभग बिशप थे। 14वीं शताब्दी ईसवी तक बिशप साहिबान की संख्या बढ़ कर 13 हो गई थी।


13वीं शताब्दी ईसवी में केन्द्रीय भारत के छः में से तीन राजा थे मसीही

मार्को पोलो ने लिखा है कि केन्द्रीय भारत के छः महान् राजाओं में से तीन मसीही थे। प्रोफ़ैसर रॉय मैथ्यू के अनुसार कुछ ऐसे संकेत भी प्राप्त हुए हैं कि वर्तमान पंजाब के गन्दीसपुर तथा बर्मा के पेगू में उन शताब्दियों में मसीही परिवार मौजूद थे।

15वीं शताब्दी ईसवी में मुस्लिम शासकों ने उत्तर भारत में मसीही लोगों का बड़े स्तर पर कत्लेआम भी किया था। 15वीं शताब्दी के अन्त तक उन अत्याचारी शासकों ने उत्तर भारत से मसीहियत का नामो-निशान मिटा कर रख दिया था। परन्तु इस बात को कभी भुलाया नहीं जा सकता कि जितने अधिक प्रमाण केरल में सन् 52 ईसवी में सन्त थोमा के आगमन के बाद मसीही समुदाय के मौजूद होने के मिलते हैं, उतने भारत के किसी भी अन्य क्षेत्रों में ऐसा प्रमाण के साथ नहीं कहा जा सकता।


केरल के सीरियन मसीही लोगों ने रचे चर्च के इतिहास

केरल के मसीही लोगों ने अपने चर्च के इतिहास को बाख़ूबी आगे बढ़ाया है। उनके अपने स्वयं के लोक-नाच भी हुआ करते थे, जिन्हें ‘मार्गम काली’ कहा जाता था। केरल के प्राचीन मसीहियों को ‘सीरियाई मसीही’ कहा जाता था। ऐसा इस लिए था क्योंकि उनके गिर्जाघरों का संबंध पर्सियन अर्थात फ़ारस क्षेत्र (आधुनिक ईरान व सीरिया) से हुआ करता था। उस समय फ़ारस क्षेत्र के मसीहियों को ‘नाज़रनी’ या ‘नाज़रीन’ भी कहा जाता था जो वास्तव में ‘नासरत के यीशु मसीह’ को मानने वालों के लिए था। उस समय केरल के मसीही लोग सीरियक भाषा सीखने लगे थे, परन्तु वे इस में मुहारत हासिल नहीं कर पाए थे।


दक्षिण भारत में मसीही लोगों को काफ़ी देर प्राप्त रहा विशेष दर्जा

भारत में क्योंकि सामाजिक जीवन ज़्यादातर जाति आधारित था। जिन शासकों ने मसीही लोगों को शरण दी थी, उन्होंने मसीही लोगों के लिए जाति के अनुसार दर्जे भी दिए थे। उस समय की बनी हुईं ताम्बे की प्लेटें, जो खुदाई के दौरान पुरातत्त्व वैज्ञानिकों ने पाईं हैं, उनसे यह मालूम होता है कि मसीही लोग हाथी की सवारी कर सकते थे। इसके अतिरिक्त उन्हें मालाओं वाली विशेष छतरियां रखने की भी अनुमति थी और उस समय के दौरान ऐसी वस्तुएं रखने की अनुमति तथाकथित निम्न वर्गों को नहीं थी। तथापि, यह भी वर्णन करना आवश्यक है कि मसीही समुदाय ने कभी जाति प्रथा को नहीं माना। भारत के अन्य भागों में ऐसे ही यूनानी एवं पर्सियन्ज़ जैसे कुछ अन्य विदेशी समुदाय भी रहा करते थे। मालाबार के सीरियन मसीही तब काफ़ी प्रसिद्ध थे। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में उन्हें ‘मलेछ’ के नाम से संबोधित किया गया है। मसीही लोग अपने समुदाय में ही विवाह रचाया करते थे। जैसे सीरियन क्रिस्चियन्ज़ किसी अन्य मसीही समुदाय में अपने बच्चों को नहीं ब्याहा करते थे। आज भी ऐसी ही प्रथा है।

कुछ सीरियन मसीही लोगों का ऐसा दावा है कि उनके पूर्वज पलूर (वर्तमान चौघाट) के नम्बूदरी ब्राह्मण हुआ करते थे, जिन्होंने सन्त थोमा के प्रभाव से यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण कर लिया था। केरल के कुछ अन्य मसीही लोगों का यह भी कहना है कि उनका मूल फ़ारस के खाड़ी देशों में है।


भारत में सन 1500 ई. तक मसीहियत

यीशु मसीह के प्रारंभिक शिष्यों व श्रद्धालुओं ने इधर-उधर घूम फिर कर प्रचार किया था। मसीही धर्म का प्रचार व पासार इसी प्रकार से समस्त विश्व में हुआ। यीशु के मुर्दों में से जी उठने के पश्चात् उनके शिष्य इस धरती पर सभी जगह फैल गए थे। भारत में मसीहियत यीशु मसीह के दो शिष्यों सन्त थॉमस व सन्त बार्थलम्यु के आगमन से फैली।

भारत में पहली शताब्दी ईसवी से लेकर 1500-1600 ई0 तक के मसीही इतिहास का कोई पक्का रेकार्ड नहीं है। परन्तु इस समय के दौरान कुछ विदेशी यात्री या व्यापारी अवश्य भारत आते रहे थे, उन्होंने अवश्य भारत में मसीहियत के बारे में वर्णन किया है। सिसली (इटली) में पैदा हुए व अलैक्सांद्रिया (मिस्र) में बच्चों को मसीहियत का पाठ पढ़ाने वाले दार्शनिक पैंटेनस सन् 180 ई0 में भारत आए थे। उन्होंने भारत में तब हिब्रु भाषा में मत्ती की इन्जील देखी थी। उन्होंने लिखित रूप में दर्ज किया था कि दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में मसीही रह रहे हैं। हिब्रु भाषा में इन्जील से यही ज्ञात होता है कि प्रारंभ में भारत में रहने वाले अधिकतर यहूदियों ने ही मसीहियत को अपनाया था। सन्त थोमा शायद उन्हीं यहूदियों को ही यीशु मसीह का सुसमाचार सुनाने के लिए दक्षिण भारत में आए थे। तब उससे भी कई सदियां पूर्व से वर्तमान मध्य-पूर्वी देशों का भारत में व्यापारिक आना-जाना लगा ही रहता था।

व्यावसायिक संबंधों के कारण पैंटेनस से पहले भी कुछ मसीही व्यापारी अवश्य भारत में आए होंगे।

ऐसे भी प्रमाण हैं कि 7वीं शताब्दी ईसवी के दौरान ईस्ट सीरियाई चर्च के मैट्रोपालिटन रहे थे पैट्रीआर्क इशो-याहब-द्वितीय (628-643)।

टी.वी. फ़िलिप के अनुसार चौथी व नवीं शताब्दी ई0 में ईरान से बड़ी संख्या में मसीही आकर सदा के लिए भारत बस गए थे। वास्तव में चौथी शताबदी में ईरान पर शपुर-द्वितीय का राज्य था और तब बहुत से मसीही भारत पहुंचे थे। फ़िलिप के मुताबिक ही 345 ई0 में काना का थॉमस नामक एक नैस्टोरियन व्यापारी 400 मसीही परिवारों के साथ भारत के कोडुंगलूर (केरल) पहुंचा था। तब मालाबार के राजा चेरामन पेरुमल ने उनका स्वागत किया था और उन्हें उच्च जाति के हिन्दुओं का दर्जा भी दिया था। उन्हें रहने के लिए बाकायदा एक जगह भी दी थी, वही आबादी आज महादेवापटनम नगर कहलाता है।

दूसरी बार सन् 823 ईसवी में बहुत से मसीही परिवार ईरान से भारत आए थे। वे राजा शाकिरबिर्ती के पास पहुंचे थे और चर्च बनाने हेतु कुछ ज़मीन उनसे मांगी थी। तब राजा ने उन्होंने कुल्लाम (केरल) ज़िले में ज़मीन दे दी थी।

इस प्रकार उत्तर-पश्चिमी भारत में राजा गोण्डोफ़रेस, मध्य पश्चिमी भारत में सन्त बार्थलम्यु व दक्षिण भारत में सन्त बार्थलम्यु ने मसीहियत की शुरुआत की थी।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

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