भारत के महान मसीही इतिहास की जानकारी आवश्यक
जानिए मसीही इतिहास का महत्त्व
हमारे उद्धारकर्ता यीशु मसीह को यदि दुनियावी तौर पर देखा जाए, तो वह एक यहूदी-एशियन थे। उन्होंने यहूदी धर्म की कथित कमियों को दूर करके ही अपना स्वयं का एक विलक्ष्ण मसीही सिद्धांत स्थापित किया था। यहूदी कौम बेहद वीर व बहादर कौम मानी जाती है। कहा जाता है कि एक माँ जब अपने बच्चे को जन्म देती है, तो वह 14 वर्षों तक अपने कार्य से अवकाश (छुट्टी) ले लेती है। अपने उन 14 वर्षों के दौरान वह अपने बच्चे पर ही अपना ध्यान पूर्णतया एकाग्र करती है। उन्हें अपने वीरों तथा शहीदों की गाथाएं सुना कर बड़ा करती है। जिसके कारण वही बच्चे बड़े होकर अपने देश व कौम के प्रति अत्यंत वफ़ादारी का भाव रखते हैं तथा किसी से डरते भी नहीं हैं। परन्तु इस के विपरीत हमारे आज-कल के बच्चे मोबाईल फ़ोन, फ़ेसबुक, ट्विटर या व्हट्सएप जैसे सोशल मीडिया के साथ चिपटे रहते हैं। उन्हें अपने महान मसीही इतिहास (विशेषतया भारत के) के बारे में कोई जानकारी नहीं होती।
भारतीय मसीही समुदाय की वर्तमान स्थिति
जो कौम अपने शहीदों या अपनी कौम के लिए कुछ करके जाने वालों को याद नहीं रखती, वह टूट व छिन्न-भिन्न होकर समाप्त हो जाया करती है। उसी सच्चाई के मद्देनज़र हमने अपने बच्चों व युवाओं को अपने देश की मसीहियत संबंधी जागरूक करने और आज-कल के उन तथाकथित राष्ट्रवादियों को उपयुक्त उत्तर देने के लिए यह परियोजना प्रारंभ की थी; जो भारत में ऐसे दावे कर रहे हैं कि वे आगामी इतने वर्षों के भीतर देश से अल्प-संख्यकों का नामो-निशान मिटा देंगे। ऐसे लोगों के विरुद्ध न तो कहीं पर देशद्रोह का मुकद्दमा दर्ज किया जा रहा है और न कहीं पर उनके विरुद्ध संविधान के उल्लंघन का ही मामला दर्ज हो रहा है। ‘उच्च स्तरीय’ (सोच से नहीं केवल पद से) शासक लोगों को ऐसे दिखलाते हैं कि जैसे उन्हें ऐसी कोई बात नहीं सुनती; लेकिन जब वही पक्षपातपूर्ण शासक जब कभी भाषण देते हैं, तो वे ऐसे दावे करते हैं कि उन्हें सोशल मीडिया के प्रत्येक अकाऊँट में शेयर किए गए प्रत्येक फ़ोटो व विडियो की भलीभांति जानकारी है। क्योंकि उनके चमचे व चापलूस भी हमीं में और हमारे आस-पास कहीं सदा मौजूद रहते हैं। ऐसे लोगों को अल्प-संख्यकों के दुःख दिखाई नहीं देते, ऐसे बड़बोले व कायर लोगों के दावे सुनाई नहीं देते - क्योंकि वे ऐसे ही बड़बोलों व चमचों के मतों के दम पर तो उच्चतम पदों पर आसीन हो पाए हैं और देश की सेवा के नाम पर लोगों को गुमराह करने पर तुले हुए हैं। उन्हें लगता है कि यदि वे अपने उन समर्थकों को कुछ कहेंगे, तो वे नाराज़ हो जाएंगे और अगली बार वर्ष 2019 में उन्हें नहीं चुनेंगे।
शासक आएंगे व चले जाएंगे, यीशु मसीह का नाम सदा रहेगा
यीशु मसीह की पसली के घाव में उंगली डाल कर सन्त थोमा यह सुनिश्चित करते हुए कि वह मुर्दों में से जी उठ कर आए यीशु मसीह ही हैं।
भारत के मसीही समुदाय सहित अन्य अल्प-संख्यक भी सभी दुःख झेलने को पूर्णतया तैयार हैं। हमें मालूम है कि जब तक हम दुःख नहीं उठाएंगे, तो स्वर्ग का राज्य कहां से मिलेगा - हमारे प्रभु यीशु मसीह ने हमें यही सिखलाया है।
ख़ैर, ऐसे शासक तो आज आए और कल चले जाएंगे। यीशु मसीह और मसीहियत का नाम तो सर्वदा रहने वाला है। यह बात हम सभी जानते हैं।
सन्त थोमा दिदुमुस सन् 52 ई. में आए थे केरल
प्रोफ़ैसर रॉय मैथ्यू के अनुसार यीशु मसीह से भी 1,000 वर्ष पूर्व सुलेमान बादशाह के समय से यहूदियों की एक बस्ती यहां भारत के वर्तमान केरल के स्थान पर बसी हुई थी। यीशु मसीह के शिष्य (प्रेरित) सन्त थोमा दिदुमुस उन्हीं यहूदियों को यीशु मसीह का सुसमाचार सुनाने के लिए ही सन् 52 ई. में भारत आए थे। उन्होंने यीशु मसीह की शिक्षाओं व उपदेशों का प्रचार उस समय के दक्षिण भारतीय समाज के सभी वर्गों में समान-रूप से किया था। उन्होंने साढ़े सात चर्च मालाबार समुद्री तट के समीप सुसंस्थापित किए थे। केरल की राजधानी त्रिवेन्द्रम के दक्षिण में तिरूविठमकोड़े नामक स्थान पर (यह स्थान तामिल नाडू में स्थित है) अब सन्त थोमा (थॉमस) द्वारा ईसवी सन् 63 में स्थापित केवल आधा चर्च ही बचा है। परन्तु अफ़सोस की बात है कि उस छोटे चर्च संबंधी कोई अधिक खोज नहीं की गई है। वह चर्च छोटे पत्थरों की शीटों से बना हुआ है। यदि वहां के लोगों की दन्त-कथा को मानें, तो यह चर्च केवल भारत का ही नहीं, अपितु विश्व का सबसे पुराना चर्च है। सन्त थॉमस चाहे दक्षिण भारत के पश्चिमी तट अर्थात वर्तमान केरल में आए थे, परन्तु वह यीशु मसीह के सुसमाचार का प्रचार करते हुए पूर्वी तट अर्थात वर्तमान तामिल नाडू तक चले गए थे।
तिरूविठमकोड़े स्थित इस चर्च को आज सेंट मेरी’ज़ ऑर्थोडॉक्स चर्च के नाम से जानते हैं। इसे अमालागिरी चर्च के नाम से भी जाना जाता है - इस चर्च को यह नाम उस समय दक्षिण भारत के इस भाग चेरा के राजा उथियन चेरालाथन ने दिया था। इस चर्च में आज प्रतिदिन प्रार्थना-सभाएं होती हैं। इस चर्च का संचालन मलंकारा ऑथोडॉक्स सीरियन चर्च द्वारा किया जा रहा है। मसीही समुदाय के लिए यह स्थान निश्चित तौर पर एक तीर्थ-स्थान के समान है। इस चर्च के तीन मुख्य भाग 17वीं शताब्दी ई. में बनाए गए थे तथा इसका प्रवेश हॉल 20वीं शताब्दी में निर्मित हुआ था। तिरूविठमकोड़े इस समय तामिल नाडू राज्य के कन्याकुमारी ज़िले में एक पंचायती कसबा है, जो नागरकोयल से लगभग 20 किलोमीटर दूर है।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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