भारतीय मसीही समुदाय से संबंधित कुछ बुनियादी प्रश्न और उनके उत्तर
भारत में मसीही समुदाय ने ही कीं अधिकतर सकारात्मक सामाजिक पहलकदमियां
धर्मपुर (ज़िला सोलन, हिमाचल प्रदेश) स्थित हार्डिंग टी.बी. सैनेटोरियम, जिसका उद्घाटन 3 अक्तूबर, 1911 को भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड चार्ल्स हार्डिंग ने किया था।
मसीही समुदाय द्वारा भारत में किए सुधारों के प्रयत्नों में तपेदिक (ट्यूबरक्यूलोसिस या टी.बी.) एवं कुष्ट रोगियों हेतु कुछ सैनेटोरियम स्थापत करवाना भी सम्मिलित है। तामिल नाडू राज्य में वेल्लोर के समीप कारीगिरी में ‘शैफ़लिन रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग सैन्टर’ में कुष्ट रोगियों की ख़ूब सेवा की जाती रही है तथा पुनर्वास किया जाता रहा है।
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत में अधिकतर प्रारंभिक सकारात्मक सामाजिक पहलकदमियां विदेशी मसीही मिशनरियों द्वारा ही की गईं थीं परन्तु देश के स्थानीय मसीही समुदाय ने न केवल इनमें उनका पूर्णतया साथ दिया, अपितु सामाजिक कल्याण की उस परंपरा को उसी दिशा में आगे भी बढ़ाया।
भारत में किन लोगों ने मसीहियत का क्यों विरोध किया?
इसी दौरान बहुसंख्यक लोगों में कुछ कट्टर प्रकार के लोगों तथा कुछ ऐसे अनसरों ने मसीहियत का ज़ोरदार विरोध करना जारी रखा, जिनका दाल-फुलका चलना ऐसे सुधारों के कारण समाप्त होता जा रहा था। वे क्योंकि वे निर्धन व दलित लोगों पर कई शताब्दियों से अत्याचार ढाते आ रहे थे तथा उनका हर प्रकार से शोषण कर रहे थे। इसी लिए ऐसे तत्त्वों ने भारत में ईसाई लोगों अर्थात मसीहियत के ख़िलाफ़ प्रचार करना प्रारंभ कर दिया कि ‘‘ये तो लोगों के धर्म ज़बरदस्ती परिवर्तित करवा रहे हैं।’’ जबकि आप किसी निर्धन से निर्धन व्यक्ति को कुछ धन दे कर उसका धर्म परिवर्तन करवाने की बात भी कह कर देखिए, वह आपको तत्काल भगा देगा। इस मामले में ज़बरदस्ती करना या तलवार या बन्दूक की नोक पर ऐसा करना संभव ही नहीं है, क्योंकि यीशु मसीह तो ‘अहिंसा’ के सिद्धांत को आगे बढ़ाने वाले थे। यदि आपने किसी व्यक्ति की कनपटी पर बन्दूक रख कर उसे मसीही बनाया होगा, तो आप यीशु मसीह का सुसमाचार किस मुँह से सुनाएंगे? इस लिए ऐसे आरोपों में कभी कोई दम नहीं रहा।
सदियों तक ग़रीबों को पढ़ने से रोक कर क्यों रखा अमीर ‘उच्च-जातियों’ ने?
ऐसा विरोध केवल वे लोग करते रहे हैं, जिनकी दुकानदारियां मसीही समुदाय ने आज से 200-300 वर्ष पूर्व मसीही समुदाय ने बन्द करवानी प्रारंभ कर दीं थीं। परन्तु बहु-संख्यकों का दबाव ही इतना रहा कि मसीही समुदाय पर ऐसे आरोप लगा कर उनकी गतिविधियों को सदा सीमित करने के प्रयत्न किए जाते रहे ताकि उनकी वहमों-भ्रमों, पाखण्ड की दुकानदारियां थोड़ी-बहुत तो चलती रहें। आप ठण्डे दिमाग़ से एक बात सोचिए कि प्राचीन भारत में तथाकथित ‘उच्च जातियांे’ व ज़िमींदारों से संबंधित मुट्ठी-भर व्यक्ति अपनी धन-दौलत के बल पर दलित लोगों को धर्म-शास्त्र पढ़ने से रोकते क्यों थे, केवल इस लिए क्योंकि उन्हें यह बात मालूम थी कि यदि यह लोग पढ़-लिख गए (जिनकी संख्या कहीं अधिक थी), तो उनमें जागरूकता फैल जाएगी तथा उनको सभी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिप्रेक्षयों की समझ आने लगेगी तथा एक दिन कहीं वे उन पर राज्य न करने लगें। आज भी भारत में ऐसा स्वभाव निरंतर चला आ रहा है कि किसी दलित नेता को बस कभी ‘बहुत अधिक फंसी में’ तो आगे लाया जाता है, अन्यथा सभी का अंतिम प्रयत्न यही होता कि उस स्थान पर किसी कथित ‘उच्च जाति’ के नेता का ही राज्यभिषेक किया जाए।
70 वर्षों के पश्चात् भी कभी कोई मसीही क्यों नहीं बन पाया भारत का प्रधान मंत्री?
इसी लिए कभी किसी मसीही नेता को भी जानबूझ कर आगे नहीं आने दिया जाता। यही कारण है कि आज तक देश को स्वतंत्र होने के 70 वर्षों के पश्चात् भी कभी कोई मसीही व्यक्ति भारत का प्रधान-मंत्री या राष्ट्रपति बनाने के बारे में सोचा तक नहीं गया। यह सरासर अन्याय है। इसे मसीही समुदाय के प्रति सदियों पुरानी असहिष्णुता भी कहा जा सकता है - परन्तु हमारे तथाकथित रहनुमा व जन-प्रतिनिधि कहलाने वाले लोग विश्व के समक्ष दावा यही करते हैं कि देश में सब कुछ ठीक-ठाक है; इनटौलरैंस या असहिष्णुता नाम की कोई चीज़ भारत में नहीं है। जब कि मसीही समुदाय के साथ तो अधिकतर यही होता रहा है। सभी राजनीतिक दल भी मसीही समुदाय के प्रति ऐसा पक्षपात करते रहे हैं, शायद वे करते भी रहेंगे; क्योंकि कभी किसी मसीही नेता में भी इतना दम नहीं रहा कि वह आगे बढ़ कर अपने अधिकार को मांग सके।
कुछ अंग्रेज़ मिशनरियों व पादरी साहिबान ने क्या दिए भारत के मसीही समुदाय को संस्कार?
मसीही समुदाय द्वारा अधिकार न मांगने का बड़ा कारण यही है कि अंग्रेज़ शासकों या उनके कुछेक वफ़ादार पादरी साहिबान से जब कोई भारतीय मसीही अपना अधिकार मांगने का प्रयत्न करता था, तो वे बस यही उत्तर (संस्कार) दिया करते थे कि ‘आप बस यीशु मसीह के आगे दुआ करते रहो, परमेश्वर अच्छा ही करेंगे। बस तब से मसीही लोगों के मन में बैठी हुई कि सब कुछ दुआ या प्रार्थना से ही मिल जाएगा, प्रयत्न करने की कोई अधिक आवश्यकता नहीं है। परन्तु...
बाईबल का क्या है कर्म-सिद्धांत?
बाईबल के पुराने नियम की पुस्तक ‘सभोपदेशक’ (ऐकलीसियासट्स) के 9वें अध्याय की 10वीं आयत में स्पष्ट लिखा है- ‘‘जो काम तुझे करने को मिले, उसे अपनी पूर्ण शक्ति से करना, क्योंकि कब्र में जहां तू जाने वाला है, वहां पर न कोई काम होगा, न युक्ति न ज्ञान और न बुद्धि होगी।’’ इसी प्रकार बाईबल के नए नियम में मौजूद इंजील ‘मत्ती’ के 7वें अध्याय की 7वीं आयत में भी लिखा है कि ‘‘...ढूंढो तो तुम पाओगे, खटखटाओ तो तुम्हारे लिए खोला जाएगा...’’ अर्थात आप कुछ ढूंढेंगे व कुछ परिश्रम करेंगे और सख़्त मिहनत से कुछ भी कार्य करेंगे, तो आपके लिए सभी द्वार खुलते चले जाएंगे।
इसी लिए मसीही समुदाय को ऊपर उठने के लिए प्रयत्न तो स्वयं ही करने होंगे, उनके लिए द्वार केवल प्रार्थना भर से ही नहीं, बल्कि प्रयत्न करने से ही खुलेंगे। यही मसीहियत का कर्म-सिद्धांत है।
ख़ैर, मसीही समुदाय द्वारा किए कुछ प्रयत्नों के कारण ही हमारे बहुत से मसीही भाई-बहन डॉक्टर बने हैं। बहुसंख्यक लोग चाहे ऊपर से जो मर्ज़ी आरोप लगाते रहें, परन्तु जब अपना इलाज करवाने का कोई अवसर आता है, तो वे क्रिस्चियन अस्पतालों को ही प्राथमिकता देते हैं।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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