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यदि विलियम केरी जैसे मसीही मिशनरी भारत न आते तो... -2
विलियम केरी ने भारत में कई ग़लत प्रथायें बन्द करवाने हेतु निभाई महत्त्वपूर्ण भूमिका
तो हम बात इंग्लैण्ड से 1793 में भारत आए मसीही मिशनरी श्री विलियम केरी की कर रहे थे, जिन्हें इस देश में सुधार लाए जाने या सामाजिक स्तर पर बड़े परिवर्तन करने की आवश्यकता महसूस हुई थी। उनके मन में यह विचार मुख्यतः इस लिए आया था, क्योंकि उन्होंने एक नवजात शिशु का पिन्जर देख लिया था, जिसकी पहले तो ‘किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए बलि दी गई थी, तथा फिर उस की मृतक देह को श्वेत चींटियों के खाने के लिए छोड़ दिया गया था, ताकि वह देवता मन की इच्छा पूर्ण करे और चींटियां आशीर्वाद दें।’ इसके अतिरिकत अपने संकल्पों/मनौतियों की पूर्ति तथा अपनी प्रार्थनाओं का उत्तर पाने हेतु बच्चों को गंगा नदी में बहा देने का प्रचलन भी उन्होंने देखा था।
श्री केरी ने ऐसी घटनाओं को देख कर अपने समय के उच्च-शासकों से ऐसी तथाकथित धार्मिक-रीतियों पर पूर्ण प्रतिबन्द्ध लगाने का निवेदन किया था। तब 1798 से लेकर 1805 तक भारत के गवर्नर-जनरल रहे लॉर्ड रिचर्ड वैल्ज़ली ने उन्हें इस मामले में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा था। अतः श्री केरी की रिपोर्ट के आधार पर ही 1802 के दौरान भारत में किसी नवजात शिशु को मारने पर हत्या का मामला दर्ज करने का प्रावधान लागू कर दिया गया। उस समय ऐसी बलियां देने वालों अथवा जन्म के समय ही लड़कियों (चाहे वे उनकी अपनी संतानें ही क्यों न हों) के गले घोंट देने वालों को मृत्यु दण्ड दिया जाने लगा।
विलियम केरी ने प्रारंभ किया जन-जागरूकता प्रकाशन
भारतीय डाक विभाग द्वारा 9 जनवरी, 1993 को जारी किया गया विलियम केरी का एक डाक-टिक्ट
श्री विलियम केरी ने मानवीयता के आधार पर लोगों को जागरूक करने हेतु अपने प्रकाशन प्रारंभ किए। उन्होंने सती प्रथा बन्द करवाने के लिए भी अथक प्रयास किए थे। 1814 में राजा राम मोहन रॉय भी सती प्रथा बन्द करवाने के लिए श्री केरी के साथ हो लिए। श्री केरी ने सीरामपोर (बंगाल) स्थित अपने केन्द्र के सहयोगियों के साथ मिल कर तब 438 विधवाओं के अपने पति की चिता में जीते जी जल कर सती होने (मर जाने) की घटनाओं के विवरण एकत्र किए तथा फिर सरकार तक पहुंच की। पहले तो इस मामले में कोई अधिक सफ़लता न मिल पाई, क्योंकि भारत के बहुसंख्यक व तथाकथित ‘उच्च-जाति’ के लोगों ने श्री विलियम केरी के ऐसे प्रयत्नों का ज़ोरदार विरोध किया था। परन्तु उस समय के मसीही समुदाय ने भी श्री केरी के नेतृत्व में अपना दबाव बनाए रखा और अंततः आम जनता कुछ मुट्ठी भर कट्टर हिन्दु लोगों के विरुद्ध होने लगी तथा 1829 में लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने भारत में सती प्रथा को भी पूर्ण प्रतिबन्धित धोषित कर दिया। कभी थोड़ा सोच कर देखें कि यदि विलियम केरी जैसे मसीही मिशनरी भारत न आते तो शायद भारत में आधुनिक विचार-धारा 50-60 वर्ष और देरी से विकसित होती
मसीही समुदाय का मैडिसन के क्षेत्र में वर्णनीय योगदान
भारत के मैडिसन के क्षेत्र में भी मसीही समुदाय का योगदान वर्णनीय रहा है। 1664 में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ने मद्रास में एक अस्पताल खोला था, जिसे भारत का प्रथम बड़ा अस्पताल माना जाता है। 19वीं शताब्दी में मद्रास मैडिकल कॉलेज भी इसके साथ जोड़ दिया गया था। आज उस अस्पताल का नाम ‘राजीव गांधी गवर्नमैंट जनरल अस्पताल’ है, जिसमें 3,000 बिस्तरे हैं तथा तामिल नाडू सरकार इसका संचालन करती है। परन्तु इससे पूर्व 16वीं शताब्दी के अन्त में भी जैसुइट मसीही समुदाय ने अपने स्तर पर स्वास्थ्य केन्द्र खोले थे जो कुछ विशेष आबादी के लिए आरक्षित होते थे।
विलियम केरी के एक सहयोगी जॉन थॉमस ने स्वास्थ्य केन्द्रों पर ध्यान दिया था। उनके इस अभियान के कारण ही 19वीं शताब्दी में लगभग प्रत्येक मसीही मिशनरी सोसायटी ने अपना एक स्वतंत्र अस्पताल खोल लिया था। इनमें से दो अस्पताल तो आज विश्व-प्रसिद्ध हैं। इनमें से एक तो लुधियाना (पंजाब) का क्रिस्चियन मैडिकल कॉलेज अस्पताल है, जिसका सुसंस्थापन 1893 में डॉ. एडिथ ब्राऊन ने किया था। दूसरा है वेल्लोर (तामिल नाडू) स्थित क्रिस्चियन मैडिकल कॉलेज अस्पताल, जिसकी स्थापना 1895 में हुई थी। वास्तव में वेल्लोर में तब डॉ. इडा स्कडर का अपना स्वयं का क्लीनिक बहुत प्रसिद्ध था, उन्हीं के क्लीनिक को ही विस्तृत रूप दे कर यह अस्पताल तैयार किया गया था।
मसीही समुदाय ने चलाए अनेक समाज-कल्याण संस्थान
मानसिक तौर पर अस्वस्थ व विकलांग (भारत के वर्तमान प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ‘विकलांग’ शब्द के स्थान पर ‘दिव्यांग’ शब्द प्रयोग करने का आह्वान किया है) बच्चों के लिए भी मसीही समुदाय ने अपने विशेष कार्यक्रम प्रारंभ किए थे। ऐसा पहला संस्थान 1884 में बम्बई में कुछ नन्ज़ ने मिल कर चलाया था। तब से लेकर अब तक कैथोलिक व प्रोटैस्टैन्ट मसीही समुदायों द्वारा भारत में असंख्य ऐसे संस्थान स्थापित किए गए हैं, जहां पर विशेषतया माता-पिता द्वारा छोड़ दिए गए, शोषित या यौन-शोषित बच्चों की देखभाल की जाती है। इनमें से दो केन्द्र ऐसे हैं, जो आज भी अत्यंत प्रभावित करते हैं। एक तो 1898 में पण्डिता रमाबाई द्वारा पुणे के समीप केड़ेगोअन में स्थापित ‘मुक्ति मिशन’ है; जहां पर यतीम लड़कियों एवं शोषित महिलाओं को आश्रय दिया जाता है। दूसरा है ‘दोहनावूर फ़ैलोशिप’, जिसे 1901 में आयरलैण्ड से आकर भारत में सामाजिक कल्याण कार्य करने हेतु प्रसिद्ध मसीही मिशनरी श्रीमति ऐमी विल्सन कारमाइ्रकल ने तामिल नाडू के दोहनावूर नामक नगर में स्थापित किया था। यह संस्थान मुख्यतः ऐसी लड़कियों को बचाता था, जिन्हें किसी मन्दिर के द्वारा वेश्यावृत्ति में डाल दिया जाता था। दक्षिण व पूर्वी भारत के भागों में ऐसा प्रचलन रहा है, जब मन्दिरों में ज़बरदस्ती लड़कियों को रखने व उनसे वेश्यावृत्ति करवाने की प्रथा चलती थी। कुछ भागों में ऐसी लड़कियों/महिलाओं को देवदासियां (अर्थात देवता की दासियां) भी कहा जाता था।
मसीही समुदाय ने रुकवाए बाल-विवाह भी
फिर मसीही समुदाय ने भारत में प्रचलित बाल-विवाह रुकवाने हेतु बड़े सामाजिक कल्याण कार्य किए। तब कुछ हिन्दु समुदायों में पांच वर्ष के बच्चों व बच्चियों के विवाह करने का भी प्रचलन था। श्री विलियम केरी ने इस समस्या का समाधान निकालने के लिए बच्चियों व महिलाओं को शिक्षित करने का आह्वान किया था। परन्तु बाल-विवाह पर कहीं बाद में जाकर 1929 में प्रतिबन्ध लग पाया था। इसके अतिरिक्त भारतीय मसीही समुदाय ने विधवा विवाह को भी बहुत अधिक प्रोत्साहित किया।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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