पहली बार भारत आने पर सन्न क्यों रह गए थे मसीही मिशनरी? -1
1793 में भारत की सामाजिक बुराईयों को देख दुःखी हुए थे विलियम केरी
पहली बार जब पश्चिमी देशों के मसीही मिशनरी भारत आए, तो वे उस समय के दौरान इस देश में प्रचलित सामाजिक बुराईयों ने उन्हें जैसे हिला कर रख दिया और वे सन्न रह गए थे; क्योंकि उन दिनों यहां पर एक तो सती प्रथा पूरे ज़ोरों पर थी, जिस में पति के निधन के पश्चात् पत्नी को भी उसकी चिता के साथ जीते जी जल कर मर जाना होता था। दूसरे उस समय कुष्ट रोगियों को जान से मार दिया जाता था कि कहीं उनके द्वारा संपूर्ण समाज में ही यह रोग न फैल जाए। फिर अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भोले-भाले, निर्दोष व मासूम बच्चों की बलि देने, लड़कियों को पढ़ने न देने व उन्हें ‘पांव की जूती’ समझने जैसी और भी बहुत सी सामाजिक बुराईयां थीं - जिन्हें देख कर कोई भी सभ्य, सुशील विशेषतया पढ़ा-लिखा व्यक्ति सह नहीं सकता था।
1793 में भारत की सामाजिक बुराईयों को देख दुःखी हुए थे विलियम केरी
ब्रिटिश मसीही मिशनरी विलियम केरी 1793 में पहली बार भारत आए, उन्हें इस देश में कुछ परिवर्तन या सुधार लाए जाने की आवश्यकता महसूस हुई। दरअसल, श्री केरी या उनके समकालीन अथवा उनके बाद आए विदेशी; जो यीशु मसीह की शिक्षाओं व उनके विलक्ष्ण उपदेशों पर आधारित सच्ची मसीहियत मानवता अर्थात इन्सानियत के अधिक निकट थे; भारत की सामाजिक बुराईयों के ऐसे पीड़ितों को देख कर उनके मन में सब से पहले ऐसा भाव कभी नहीं आया था कि भारत के सभी लोग मसीही बन जाएं, अपितु उन्हें ऐसा लगता था कि इस पृथ्वी पर मनुष्य चाहे कोई भी है, वह किसी भी तरह बिना मतलब पीड़ित न हो। वे सभी तो यही चाहते थे कि यहां के लोग जिस अज्ञानता में जी रहे थे, उनको असलियत बताई जाए और उन्हें सही राह पर चलना सिखलाया जाए। वे इस बात को भी समझ गए थे कि भारत में इक्का-दुक्का विशेष वर्ग ही अन्य सभी बहु-संख्यक लोगों पर राज्य करते हुए अपनी मनमानियां उन पर थोप रहे हैं। वास्तव में वे ‘निरंकुश मनमानियां’ ही भारत की सामाजिक बुराईयां थीं जो तथाकथित ‘उच्च जाति’ के लोग ‘निम्न वर्गों’ विशेषतया दलित लोगों के साथ धर्म व अपने तानाशाही कानून की आड़ में होती रहीं थीं। चाहे भारत के समस्त निवासी ऐसी बुराईयों में फंसे हुए नहीं थे, परन्तु फिर भी एक बड़ा तबका इनसे पीड़ित अवश्य था।
तब प्रारंभ हुआ जागरुकता अभियान
अब भारत में उस समय के वे निरंकुश शासक तो विदेशी मसीही मिशनरियों की बात मानने से रहे; अतः उन्हें अधिकतर पीड़ितों अर्थात दलित लोगों में रह कर उन्हें ऐसे सामाजिक अत्याचारों के विरुद्ध जागरूक करना पड़ता था। अब यदि आप पंजाब में होंगे, तो आपको कोई भी सिक्ख श्री गुरु नानक देव जी से लेकर श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी तक के सभी दस गुरु साहिबान की उदाहरणें देकर यही समझाएगा कि कोई भी पीड़ित किसी से डरे नहीं। इसी तरह यदि आप कहीं पर उत्तर प्रदेश के हिन्दु समाज में होंगे तो एक सभ्य हिन्दु व्यक्ति तो श्री राम व श्री कृष्ण जी द्वारा दी गई शिक्षाओं ही उदाहरणें देकर समझाएगा और इसी तरह एक मुस्लिम हज़रत मोहम्मद साहिब की मिसाल देगा।
विदेशी मिशनरियों का कसूर नहीं, कसूर था भारत में विद्यमान बुराईयों का
उन विदेशी मिशनरियों के पास भी अपनी बात को बल देने के लिए केवल यीशु मसीह की ही उदाहरणें थीं। वे प्रत्येक बात में यीशु मसीह की उदाहरणें दे कर उन पीड़ित दलित वर्ग को जागरूक करते थे। अब यदि उस समय के कुछ लोग स्वेच्छा अर्थात अपनी मर्ज़ी से मसीही समुदाय में सम्मिलित होने के लिए तैयार हो गए, तो इस में कसूर क्या उन विदेशी मिशनरियों का है या भारत में उस समय प्रचलित सामाजिक बुराईयों का है या उन लोगों का है, जो धर्म या निरंकुश कानून की आड़ में महिलाओं व दलितों को पीड़ित बनाते थे।
पंजाब में डेरावाद
आज की तारीख़ में भी वही लोग कुछ साधुओं-सन्तों या डेरों में जाते हैं, जिन्हें अपने समाज में सही सम्मान नहीं मिलता। मैं क्योंकि पंजाब में रहा हूँ, तो मैं यहीं की उदाहरणें अधिक दे सकता हूँ। पंजाब के जाट (जट्ट) व कुछ अन्य समुदायों में स्वयं को ‘उच्च’ मानने की प्रथा चलती रही है। यह प्रथा किसी धार्मिक भाव से नहीं, बल्कि उनके पास भारी ज़मीन-जायदाद होने के कारण चली है। आज जिसके पास धन-दौलत है, उसी की हमारे समाज में अधिक चलती है। तो उस ज़माने में तो ऐसे ही लोगों की तूती बोला करती थी। उनमें से बहुत से (सभी नहीं) जाटों के गुरुद्वारा साहिबान में दलित लोग स्वयं ही डर के मारे जाया नहीं करते थे। यदि कोई दलित भूले-भटके चला भी जाया करता था, तो सभी तथाकथित ‘उच्च’ जाति के लोग उसे कुछ घृणा-भाव से ही देखते थे।
यदि किसी को किसी स्थान विशेष पर यथायोग्य सम्मान न मिले तो वह कभी पुनः वहां पर नहीं जाता। इसी कारण पंजाब के कुल 12,858 गांवों में से आठ-नौ हज़ार गांवों में विभिन्न डेरे पनप गए, जहां पर एक व्यक्ति बैठ कर लोगों को उपदेश देता था और वे सभी पीड़ित लोग उनके पास जाकर अपनी अध्यात्मिक प्यास बुझाने लगे। उनमें से अनुमानितः ऐसे चार से पांच हज़ार डेरे आज भी लोगों में लोकप्रिय हैं और उनमें से दर्जनों ऐसे डेरों की मान्यता इतनी अधिक है कि उनके श्रद्धालुओं की संख्या लाखों में पहुंच गई है। सीधी सी बात है - कोई आप को प्यार से बुलाएगा, तो आप वहां पर बार-बार जाना चाहेंगे। डेरों के ‘सन्त’ इस बात को जानते थे कि दुःखी व दलित लोग तभी उनके पास आएंगे, यदि वे उन्हें सांत्वना देंगे। तो ऐसे ‘सन्तों’ ने अपना दाल-फुलका चलाने के लिए कुछ ऐसे ही किया। तो इन परिस्थितियों में आप डेरावाद के लिए किस बात को ज़िम्मेदार ठहराएंगे। उच्च जातियों को या दलितों को या उन सामाजिक बुराईयों को; निःसंदेह इन सामाजिक बुराईयों को। यदि कोई किसी एक डॉक्टर से संतुष्ट नहीं होता, वह तभी दूसरे चिकित्सक के पास जाता है। यह असंतुष्टि ही एक व्यक्ति को भटकाती रहती है।
मददगार विदेशी मसीही मिशनरी क्यों अच्छे लगने लगे थे कुछ भारतियों को?
कुछ अनगिनत असंतुष्ट गोरे अंग्रेज़ों को भी आप हरिद्वार या अन्य धार्मिक स्थानों पर संतुष्टि की तलाश में भटकते देख सकते हैं। असंतुष्ट लोग ही विदेश जाया करते हैं, जो भारत की धरती पर प्रसन्न व संतुष्ट हैं, उन्हें संतुष्टि यहीं पर मिलती है। परन्तु यदि कहीं पर धर्म, जाति या निरंकुश कानून के आधार पर अत्याचार हो रहा हो, तो कोई वहां पर कैसे रह सकता है।
ये सभी तो आज की बातें हैं, उस युग में - जब संचार के साधन नाम मात्र को ही थे, लोगों में इतनी जागरूकता नहीं थी तो यदि कोई मददगार विदेशी व्यक्ति उन्हें यीशु मसीह की बातें समझा कर अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ बुलन्द करने के लिए कहे, तो क्या वह ऐसे विदेशी को अच्छा नहीं समझेगा। तो कुछ ऐसी ही स्थिति थी उन मसीही मिशनरियों की।
सभी प्राथमिकता से बचाते हैं पीड़ित को
एक अन्य उदाहरण से यह बात शायद और भी अधिक स्पष्ट हो जाए, बाज़ार में यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को बुरी तरह से पीट रहा होगा अर्थात किसी पर अत्याचार होता होगा, तो क्या उसे बचाने के लिए सभी जागरूक व सभ्य लोग एक साथ आगे आएंगे, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, नसल या रंग अथवा वर्ण के हों। ऐसे अत्याचार को रोकने के लिए कभी किसी के मन में धर्म या जाति के विचार मन में नहीं आते। उस समय तो सभी यही चाहते हैं कि पीड़ित को किसी भी तरह बचाया जाए और अत्याचारी को दण्ड मिले। जिस समय विलियम केरी जैसे मसीही मिशनरी भारत आए थे, तो उस समय के भारतीय समाज में कुछ ही तथाकथित ‘उच्च जाति’ के लोगों ने अन्य लोगों पर अपनी धन-दौलत के बलबूते पर अपना दबदबा बना कर रखा हुआ था। उनके विरुद्ध कोई बोलने की हिम्मत नहीं करता था। परन्तु ये विदेशी मसीही मिशनरी तो अपने घरोें से ही कफ़न बांध कर निकले हुए थे और उन्हें भला ऐसी कथित उच्च जातियों का डर कैसे हो सकता था। पर दलितों को जागरूक करने संबंधी उनकी गतिविधियों को भला वे ‘निरंकुश शासक’ कैसे बरदाश्त कर सकते थे - इसी लिए उन्होंने विदेशी मिशनरियों पर कुछ ऐसे आरोप लगाने प्रारंभ कर दिए कि ‘‘जी ये लोग तो ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन करवाते हैं।’’ अब धर्म का मसला ही कुछ ऐसा है, सामान्य जन की भावनाएं तत्काल भड़क उठती हैं, असलियत चाहे किसी को मालूम हो या न हो - वे लोग आरोपी पर भड़क उठते हैं। कुछ ऐसा ही माहौल आज तक भारत में बिना वजह चल रहा है।
ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन के आरोप निराधार
अरे भई, कई शताब्दियों से सभी धर्मों व जातियों के भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों से अपना कारोबार करते आ रहे हैं, वे सदियों से वहां पर जाते हैं, तो कभी ऐसा सुनने में नहीं आया कि किसी विदेशी को उन पश्चिमी देशों के नागरिकों ने पकड़ उनका ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन करवा दिया। जबकि वे चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं। आज करोड़ों भारतीय विदेशों, पश्चिमी देशों में रह रहे हैं, वहां पर ऐसे किसी ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन की बात सामने नहीं आई। यदि वे अपने देश में ऐसा नहीं करते हैं, तो किसी दूसरे देश में जाकर ऐसा क्यों करेंगे?
मसीही समुदाय की हो तीव्र गति प्रगति
आज हमारे जितने भी मसीही लोग हैं - कम हैं या अधिक - यह प्रश्न नहीं है, अपितु ज्वलंत मुद्दा तो इस समय यही कि हम अपने मसीही समुदाय को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक तौर पर ऊपर कैसे उठाएं अर्थात उसकी तीव्र गति प्रगति कैसे संभव हो। ऐसी कौन सी बातें होनी चाहिएं कि जो भारत के मसीही लोगों में नहीं अब तक नहीं हुईं और वे अब होनी चाहिएं। यदि कोई देशी या विदेशी मसीही मिशनरी किसी समुदाय के बीच उनका धर्म-परिवर्तन करवाने के उद्देश्य से जाता है, हम उसकी सख़्त निंदा करते हैं। आज हमारे पास जो भी समुदाय उपलब्ध है, पहले उसके कल्याण की बाबत सोचना होगा। अपने समुदाय के बीच रह कर भारतीय मसीहियत में कुछ आवश्यक सुधार लाने होंगे।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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