स्वतंत्रता आन्दोलनों के दौरान ही उठी ‘विदेशी चर्च नहीं, भारतीय चर्च चाहिए’ की आवाज़
केरल के मसीही युवाओं ने किया था अंग्रेज़ों के अत्याचार का विरोध
आख़िर ऐसा क्या कारण है कि भारत में मसीही समुदाय स्वतंत्रता से पूर्व भी स्वयं को मुख्य-धारा से अलग-थलग खड़ा पाता था और देश को आज़ाद होने को पौनी शताब्दी होने को है परन्तु स्थिति लगभग वैसी की वैसी ही है। इस को समझने के लिए हमें 1895 एवं उससे कुछ वर्ष पूर्व की घटनाओं को समझना होगा। 1895 में आर्य समाज लहर के प्रारंभ होते ही बहु-संख्यक हिन्दु मूलवादियों ने मसीही धर्म, मसीही समुदाय एवं मसीहियत के विरुद्ध बड़े स्तर पर कुप्रचार करना प्रारंभ कर दिया। वास्तव में पण्डिता रमाबाई, जिन्होंने हिन्दु धर्म को छोड़ कर मसीही धर्म ग्रहण कर लिया था, वह 1886 से लेकर 1888 तक इंग्लैण्ड, अमेरिका व कैनेडा जाकर आईं थीं तथा उन्होंने वहां पर अपने भाषणों में भारतीय स्त्री की दयनीय अवस्था (जो देश में थोड़े-बहुत अन्तर व सुधार के दिखावे के बावजूद व्यवहारिक रूप से वैसी ही है। वैसे नई पीढ़ी इस बात को समझ रही है, उससे भविष्य में काफ़ी आशाएं हैं) का वर्णन किया था। जिसके प्रतिक्रिया में आर्य समाज लहर ने उन लोगों का बहिष्कार (बायकॉट) करना प्रारंभ कर दिया, जो हिन्दु व अन्य धर्मों को छोड़ कर स्वेच्छा से मसीही धर्म ग्रहण करते थे। मसीही किसानों पर उनके ज़िमींदारों ने अत्याचार करने प्रारंभ कर दिए, ताकि वे मसीही धर्म को छोड़ दें। इस प्रकार जैसे बहुत सोची-समझी साज़िश के अंतर्गत मसीही लोगों को जानबूझ कर अन्य लोगों से पीछे कर दिया (रखा) जाता है, वैसे ही हालात आज भी हैं।
केरल के मसीही युवाओं ने किया था अंग्रेज़ों के अत्याचार का विरोध
St. George Forane church , Edapally, Kerala. metrovaartha.com - सेंट जॉर्ज फ़ोरेन चर्च, एडापल्ली, केरल। मैट्रोवार्ता.कॉम
उधर शिक्षित मसीही लोगों ने स्वतंत्रता हेतु प्रारंभ किए जाने वाले सभी प्रकार के राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया था। परन्तु उस समय अधिकतर गिर्जाघरों के मुख्य अधिकतर अंग्रेज़ लोग ही थे। उन अधिकारियों एवं मसीही युवाओं के मध्य मतभेद उत्पन्न होने स्वाभाविक थे। इसी लिए उस समय के बिश्प एवं चर्च के अन्य नेता स्वतंत्रता आन्दोलनों के विरुद्ध ही स्टैण्ड लिया करते थे परन्तु केरल की ‘यूथस’ क्रिस्चियन काऊँसिल ऑफ़ एक्शन’ (मसीही युवा कार्य-परिषद) ने इस बात का ज़ोरदार विरोध किया। गांधी जी के मसीही अनुयायी तथा स्वतंत्रता सेनानी जे.सी. कुमारअप्पा ने कलकत्ता के बिश्प एवं भारत के मैट्रोपॉलिटन डी.एफ़ वैस्टकॉट को लिखा कि सरकार के अत्याचारी व दमनकारी कार्यों/गतिविधियों का विरोध देश के चर्च एवं मसीही समुदाय की ओर से किया जाना चाहिए।
कुमारअप्पा ने कहा था - ये गोरे मिशनरी ‘ब्रिटिश’ अधिक दिखाई देते हैं, ‘मसीही’ कम
श्री कुमारअप्पा ने बिश्प को यह भी लिखा कि वे सभी मसीही लोगों को गांधी जी के अहिंसा के पथ पर चलने की सलाह दें। परन्तु इसके विपरीत बिश्प वैस्टकॉट ने एक औपचारिक उत्तर भेजा कि बाईबल की पुस्तक रोमियों 13 में कहा गया है कि उच्च अधिकारियों की आज्ञा का पालन किया जाना चाहिए। इस लिए वह महात्मा गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से सहमत नहीं हो सकते। फिर एक लम्बे उत्तर में श्री कुमारअप्पा ने ऐसी दलीलों की निंदा करते हुए कहा कि ‘ये गोरे मिशनरी लोग ‘ब्रिटिश’ अधिक दिखाई देते हैं, मसीही कम और वे अपनी स्वयं की सुविधानुसार चलना चाहते हैं।’
अंग्रेज़ मिशनरियों ने इंग्लैण्ड सरकार से की थी भारतियों की मांगें मानने की मांग
परन्तु ऐसा भी नहीं था कि सभी ब्रिटिश (इंग्लैण्ड) के मसीही मिशनरी ही ऐसे थे, केवल कुछेक मिशनरी ही दिखावे के मसीही थे। 1930 में इंग्लैण्ड से भारत आए 200 से अधिक मसीही मिशनरियों ने एक मैनीफ़ैस्टो (घोषणा-पत्र) पर हस्ताक्षर करके ब्रिटेन सरकार को अपील की थी कि वे भारतीय लोगों की मांगों पर हमदर्दी से विचार करें। सी.एफ़. एण्ड्रयूज़, वेरियर एल्विन, स्टैनले जोन्स जैसे बहुत से ब्रिटिश मसीही मिशनरी थे, जिन्होंने यीशु मसीह की शिक्षाओं का सही ढंग से पालन करते हुए भारत के स्वतंत्रता आन्दोलनों का पूर्णतया समर्थन किया था। डॉर्नाकल के बिशप अज़रियाह जैसे भारतीय चर्च के प्रमुख नेता भी खुल कर स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने लगे थे।
कांग्रेस पार्टी के गठन से तेज़ हुआ मसीही स्वतंत्रता संग्रामियों का आगमन
1895 में आर्य समाज के विरोध के कारण मसीही समुदाय ने अपनी गतिविधियां कुछ कम कर दीं थीं। उस दौर में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलनों में भी कम ही भाग लिया था। जबकि उससे पहले कृष्ण मोहन बैनर्जी, लाल बिहारी डे तथा पण्डिता रमा बाई जैसे कुछ मसीही लोगों ने 1885 में कांग्रेस पार्टी की स्थापना एवं उसकी गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। इस पार्टी के संस्थापकों में ए.ओ. ह्यूम एवं विलियम वैडरबर्न जैसे ब्रिटिश मसीही भी तो सम्मिलित थे। 1885 में कांग्रेस पार्टी के गठन के पश्चात् से ही मसीही स्वतंत्रता संग्रामियों का आगमन होना कुछ तेज़ हो गया था।
आत्म-निर्भरता चाहते थे भारतीय चर्च
1905 में बंगाल का विभाजन होने के साथ स्वदेशी लहर प्रारंभ हो गई। उस दौर में भारत में कुछ नए मसीही नेता उभर कर सामने आए, जो देश की स्वतंत्रता को प्रमुख समझते थे और विदेशी चर्च के स्थान पर भारत के चर्च की भी आत्म-निर्भरता चाहते थे। इसी विचार से ‘नैश्नल मिशनरी सोसायटी’ की स्थापना हुई थी। उस मसीही सोसायटी का मुख्य सिद्धांत ही यही था कि वह अपने कार्यों हेतु केवल देश के लोगों, देश की विधियों एवं धन का इस्तेमाल करेगी। यह सोसायटी चाहे राजनीति में कभी सक्रिय नहीं हुई परन्तु इसके सभी कर्मचारी व अधिकारीगण भारतीय ही थे, उस लिए इस सोसायटी की हमदर्दी सदा राष्ट्रीय आन्दोलनों के साथ बनी रही। 1923 में रांची में काऊँसिल की बैठक में जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी, उसमें ‘स्वराज’ के विचार को पूर्णतया स्वीकृति दी गई थी।
सीरियन मसीही लोगों का ध्यान अधिकतर भूतपूर्व त्रावनकोर एवं कोचीन राज्यों पर केन्द्रित रहा था। वहां के मसीही समुदाय ने सामाजिक न्याय एवं स्वराज के लिए बहुत अधिक संघर्ष किए। बड़ी संख्या में सीरियन क्रिस्चियन्ज़ ने अत्यंत सक्रियतापूर्वक स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लिया था। टी.एम. वर्गीज़, ए.जे. जौन, इडीकुल्ला वायला जैसे कुछ सीरियन मसीही नेताओं ने त्रावनकोर के दीवान (मुख्य मंत्री) के दमनकारी शासन के विरुद्ध ज़ोरदार संघर्ष किया था।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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