Tuesday, 25th December, 2018 -- A CHRISTIAN FORT PRESENTATION

Jesus Cross

अंग्रेज़ी भाषा बनाम भारतियों की मातृ भाषाएं तथा भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन



 




 


क्या अंग्रेज़ी भाषा का भारत को स्वतंत्र करवाने में है कोई योगदान?

भारत को प्राचीन समय से ही ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता रहा है। और फिर अचानक उस पर आक्रमण होने लगते हैं और फिर उस पर विदेशी मुस्लिम शासक आकर राज्य करने लगते हैं। ‘जियो और जीने दो’ की परंपरा व विरास्त के कारण भारत व समस्त भारतीय उन समयों में भी प्रफ़ुलत व प्रसन्न रहे परन्तु अन्दरूनी तौर पर विदेशियों को हराने व खदेड़ कर बाहर करने के संर्घष व प्रयत्न सदा चलते रहे। परन्तु उनके साथ मध्य-पूर्वी देशों की भाषाएं अरबी, फ़ारसी भी भारत आईं और फिर भारत में उर्दू ज़ुबान विकसित हुई। मुग़लई खाने भारत में प्रचलित होने लगे व मुस्लिम संस्कृति का प्रचार व प्रसार हुआ।

यह बातें कुछ उन तथाकथित पढ़े-लिखे तुग़लक प्रकार के मूर्ख लोगों के लिए लिखनी पड़ीं हैं, जो अंग्रेज़ी या विदेशी भाषाओं को बुरा-भला कहते हैं तथा स्वयं को संस्कृत के पांच अक्षर मालूम नहीं होते - शायद उनकी भी कभी आंखें खुल जाएं।


अंग्रेज़ों ने दर्द दिया, अंग्रेज़ी ने दवा दी

Alphabetsचित्रः ceiimage.org

उसके पश्चात् इंग्लैण्ड देश से अंग्रेज़ लोग व्यापार करने के बहाने भारत आ गए और धीरे-धीरे यहां के शासक ही बन बैठे। उन्हीं के साथ आई अंग्रेज़ी भाषा। जैसे 1956 की फ़िल्म ‘छूमंतर’ का मोहम्मद रफ़ी साहिब व गीता दत्त जी का गाया गीत है- ‘‘ग़रीब जान के हमको न तुम मिटा देना, तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना....’’ (गीतकार- जांनिसार अख़्तर व संगीतकार‘ ओ.पी. नैयर), बिल्कुल उसी प्रकार से यदि अंग्रेज़ हम भारतीयों के लिए एक समस्या थे, तो उनकी भाषा अंग्रेज़ी ने हमारे लिए जागरूकता व नई आधुनिक शिक्षा के द्वारा खोले अर्थात यदि अंग्रेज़ों ने यदि अत्याचारों के दर्द दिए, वहीं उनकी अंग्रेज़ी भाषा ने दवा भी दी। जितने अधिक लोग अंग्रेज़ी भाषा सीखने लगे, वे जागरूक होते चले गए। अंग्रेज़ी भाषा का साहित्य व पश्चिमी देशों के इतिहास व जीवन संबंधी अधिक जानकारी उन्हें मिलती चली गई। तब तक ऐसी जानकारी हमारी किसी भी भारतीय भाषा में उपलब्ध नहीं थी। भारतियों ने विज्ञान के रंग भी इसी अंग्रेज़ी भाषा से ही सीखे। इससे भारत वासियों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक बनने लगा। उस समय तक आध्यात्मिक ज्ञान में भारत अवश्य आगे था परन्तु केवल उस ज्ञान से आप आधुनिक युग में कहीं पर नहीं पहुंच सकते थे तथा विश्व में किसी प्रकार का कोई स्थान ग्रहण नहीं कर सकते थे। उसके लिए चाहिए था आधुनिक शिक्षा का ढांचा। ऐसी प्रणाली भारत में प्रथमतया विदेशी मसीही प्रचारकों ने उपलब्ध करवाई। बहुत सी भारतीय भाषाओं के व्याकरण तक उन्होंने पहली बार वैज्ञानिक ढंग से सुव्यस्थित किए।


तथ्यों को मानने में शर्म क्यों आती है तथाकथित राष्ट्रवादियों को?

उपर्युक्त तथ्यों को समझने व मानने में तथाकथित राष्ट्रवादियों को शर्म आती है। केवल अपने अहंकारी रवैये के कारण वे इस वास्तिवकता से कोसों दूर हैं और अलग-थलग पड़े हुए हैं। वर्तमान पीढ़ी के अधिकतर इन सभी तथ्यों को भली-भांति समझते व जानते हैं - इसी लिए अंग्रेज़ी भाषा दिन-ब-दिन और भी अधिक प्रचलित होती चली जा रही है। नई पीढ़ी ऐसे तथाकथित राष्ट्रवादियों को तुच्छ समझती है क्योंकि ऐसे लोगों को वे मूर्ख मानते हैं और शायद हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि वे लोग मूर्ख नहीं अपितु षड़यंत्रीय हैं, जो देश के टुकड़े करवा देना चाहते हैं।


केरल, पश्चिमी बंगाल जैसे राज्यों में अधिक क्यों हैं मसीही स्वतंत्रता सेनानी?

केरल राज्य वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में संपूर्ण भारत में सब से आगे रहा है। क्या आपने कभी सोचा है कि केरल में साक्षरता दर इतनी अधिक क्यों है? इसका कारण वास्तव में यह था कि सन् 1806 में यहां पर विदेशी एजेन्सियां आ गईं थी, जिसके कारण यहां पर अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान मिलने लगा था और लोगों में तेज़ी से जागरूकता आने लगी थी। यही कारण है कि भारत के संपूर्ण मसीही समुदाय में से केरल, पड़ोसी राज्य तामिल नाडू, पूर्वी भारत के राज्य पश्चिमी बंगाल व महाराष्ट्र के ही मसीही नेता सदा देश के स्वतंत्रता आन्दोलनों में भी आगे रहे। इन्हीं राज्यों में अंग्रेज़ी शिक्षा सब से पहले पहुंची। यदि हम इसी बात को ऐसे कह लें कि शायद अंग्रेज़ी भाषा तो समस्त भारत में अंग्रेज़ों के आने से फैल गई होगी परन्तु जिन्होंने अंग्रेज़ी भाषा को अपनाया, उन्हीं लोगों ने देश को आज़ाद करवाने में बढ़-चढ़ कर अपना योगदान डाला।


अंग्रेज़ी भाषा ने निकाला संकीर्ण दृष्टिकोणों से

पश्चिमी संस्कृति ने उन्हें एक विस्तृत सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण दिया। लोग संकीर्ण दृष्टिकोणों में से निकल कर स्वतंत्र होकर सोचने लगे तथा अपने स्वयं के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को जानने लगे। यहां यह भी वर्णनीय है कि केरल, तामिल नाडू, पश्चिमी बंगाल व महाराष्ट्र के जिन भी मसीही लोगों ने अंग्रेज़ी भाषा की शिक्षा लेकर अपनी मातृ-भूमि के लिए कुछ न कुछ सकारात्मक किया, वे कभी अपनी मातृ-भाषाएं क्रमशः मल्यालम, तामिल, बंगला व मराठी भाषाओं के महत्त्व को नहीं भूले। मातृ-भाषा सदा सर्वोपरि होती है और सदैव रहेगी। भाषाएं सभी महान हुआ करती हैं, परन्तु मातृ-भाषा का स्थान कभी कोई अन्य भाषा नहीं ले सकती। मातृ-भाषा से ही बच्चा जीवन के सभी रंग-ढंग सीखता है। कोई व्यक्ति अपनी भाषारुपेण माँ को कैसे भुला सकता है। यह बात नई पीढ़ी को अवश्य समझनी चाहिए क्योंकि इस समय केवल टूटी-फूटी अंग्रेज़ी भाषा बोल कर स्वयं को अन्य लोगों से कुछ ऊपर समझने वाले लोगों की संख्या तीव्रता से बढ़ती जा रही है। उन्हें अभी से संभलना होगा।


अज्ञानियों हेतु ज्ञान

राष्ट्रीय स्तर पर जितनी भी शख़्सियतों ने विदेशों में जा कर शिक्षा ग्रहण की अथवा भारत में रह कर ही अंग्रेज़ी शिक्षा ग्रहण करके अपने अधिकारों के बारे में जाना, केवल वही लोग स्वतंत्रता आन्दोलनों में अथवा देश वासियों को जागरूक करने में आगे रहे। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु, डॉ. बी.आर. अंबेडकर जैसे कई दर्जनों नाम आप ले सकते हैं, उनका भारत को आधुनिक रूप देने में महान योगदान रहा है। आज कुछ मूर्ख किस्म के अज्ञानी लोग उसी अंग्रेज़ी शिक्षा को बुरा कह रहे हैं। अरे भाई, कोई भाषा तो बुरी नहीं होती, हां उसे बोलने वाला कोई व्यक्ति अवश्य कभी बुरा हो सकता है। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की माँ है परन्तु उसे बरतने वाले ब्राह्मण वर्ग के बहुत से (सभी नहीं) लोगों ने अपने अहंकारी व तानाशाही रवैये के कारण समाज में ऊँच-नीच व जात-पात की इतनी अधिक घृणा फैला दी कि बहुत से (सभी नहीं) लोग उस ब्राह्मण वर्ग को ही नफ़रत करने लगे। हमें कभी बुरे व्यक्ति से नहीं अपितु बुराई से घृणा करनी चाहिए। किसी भी बुरे व्यक्ति को किसी भी समय सुधारा जा सकता है, बशर्ते कोई उस के मानसिक स्तर पर जाकर उसे समझाने का प्रयत्न करे। कई बार कुछ लोग वैसे तो काफ़ी तीक्षण बुद्धि वाले होते हैं परन्तु वे या तो अपनी स्वयं की कुछ धारणाएं बना लेते हैं और कोई उन्हें सच्चा मार्गदर्शक नहीं मिल पाता या कोई घटना या बात विशेष उनके मन में इतना विष भर देती है, जिसके कारण वह बुरे कार्य (कुकृत्य) करने लगते हैं। अनपढ़ लोग किसी बुरे व्यक्ति को मार-पीट कर या उसे सदा के लिए ख़त्म करके समस्या का समाधान ढूंढने लगते हैं (जैसे ऐलोपैथी दवाएं करती हैं) परन्तु समझदार व्यक्ति सदा बुरे व्यक्ति को ठीक करने का ही पथ ढूंढते हैं (जैसे होम्योपैथी दवाएं करती हैं)। इस दूसरे ढंग से समस्या का समाधान सदा के लिए हो जाता है।


भारतीय समाज में नफ़रत का ज़हर फैला रहा भीड़-तंत्र

आज कल तथाकथित राष्ट्रवादी लोगों की भीड़ आती है तथा किसी एक व्यक्ति को पीट-पीट कर मार देती है। ऐसा भीड़-तंत्र भारतीय समाज में नफ़रत का ज़हर फैला रहा है। ऐसे लोगों को कानूनी व मनोवैज्ञानिक ढंग से सीधा करने की आवश्यकता है। ऐसे लोगों को लगता है कि वे कानून व समाज के अन्य लोगों के मुकाबले उच्च हैं, ऐसे लोगों का वहम वक्त स्वयं ही निकाल देगा।


जागरूकता के कारण इन मसीही नेता बने स्वतंत्रता आन्दोलनों के सशक्त स्तंभ

1861 के ‘त्रावनकोर मैमोरियल’ अथवा ‘मल्याली मैमोरियल’ नामक प्रसिद्ध आन्दोलन के दौरान उच्च स्तरीय शिक्षित व जागरूक आन्दोलनकारियों ने 11 जनवरी, 1891 को महाराजा को जो ज्ञापन दिया था, उसमें त्रावनकोर की जनता को राजनीतिक अधिकार देने की मांग की गई थी। इस ज्ञापन में नायर, एज़ावा, नम्बूरी, लातीनी मसीही समुदाय, सीरियन मसीही समुदाय तथा एंग्लो-इण्डयिन्ज़ जैसे समुदायों की राजनीतिक आकांक्षाएं उजागर हुईं थीं। ‘मल्याली मैमोरियल’ आन्दोलन बाद में होने वाले सभी आन्दोलनों के लिए एक सशक्त आधार व वर्णनीय मिसाल बनता रहा। इस आन्दोलन में बहुत से मसीही नेताओं व कार्यकर्ताओं ने भाग लिया था। उत्तरी परूर, कोट्टायम व त्रिवेन्द्रम में हुईं अनेकों राजनीतिक एकत्रताओं की अध्यक्षता परूर चर्च के विकार फ़ादर हिलेरियन, सीरियन चर्च के मैट्रोपॉलिटन रट. पादरी मार एथानासियस तथा एंग्लो-इण्डियन्ज़ के नेता टी.एफ़ लॉयड ने की थी। महाराजा को दिए जाने वाले ज्ञापन के विषय व भाषा पर विचार करने के लिए तीन जनवरी, 1891 को कोट्टायम में जो कान्फ्ऱेंस हुई थी, उसमें अन्य समुदायों के प्रतिनिधियों के अतिरिक्त वर्गीज़ मैपिला एवं मनी कैथनर जैसे प्रमुख मसीही नेताओं ने भी भाग लिया था। इस प्रकार ऐसे मसीही नेता स्वतंत्रता आन्दोलनों के सश्क्त स्तंभ बनते रहे।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें
-- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]

 
visitor counter
Role of Christians in Indian Freedom Movement


DESIGNED BY: FREE CSS TEMPLATES