क्या भारत के मसीही समुदाय को अन्य समुदायों व कौमों से मिला कभी सहयोग? (निजी अनुभव)
मेरे सकारात्मक निजी अनुभव
यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है कि क्या भारत के मसीही समुदाय को अन्य समुदायों व कौमों से कभी कोई सहयोग मिला है या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर की खोज हमारे बहुत से उत्सुक मसीही भाईयों व बहनों को अवश्य होगी। इस मामले में सभी के अपने-अपने अनुभव होंगे। यहां पर मैं अपने कुछ निजी सकारात्मक अनुभव साझे करना चाहता हूं। उसी के आधार पर आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि हमारे देश में कितना सहयोग मसीही लोगों को अन्य समुदायों से मिलता रहा है और मसीही कौम भी सभी लोगों से सहयोगपूर्ण बरताव करती रही है।
मसीही इतिहास को जानना अत्यावश्यक
यदि आप आज-कल के कुछेक अज्ञानी, नासमझ व सांप्रदायिक नेताओं के भाषण सुनेंगे, तो आपके मन में अवश्य कड़वाहट भर सकती है परन्तु यदि आपको भारत के अमीर मसीही इतिहास की जानकारी होगी, तो आप ऐसा कदापि नहीं सोचेंगे। यहां पर हम ने भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के विवरण देते समय ऐसी बहुत सी सत्य घटनाएं व बातें उजागर की हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि जैसे भारत के मसीही समुदाय ने भी सदा अपने अन्य सभी भारतीयों को संपूर्ण सहयोग दिया है और उनके धर्मों का सम्मान किया है, वैसे ही अन्य धर्मों से संबंधित लोगों की बहुत सी बातें ऐसी हैं, जो इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मसीही धर्म को भारत में सदा संपूर्ण सहयोग मिलता रहा है। भारत के मसीही यह बात कभी नहीं भूलते कि वे भी विशुद्ध भारतीय हैं और वे अपने मूलभूत भारतीय संस्कृति व संस्कारों को भलीभांति पहचानते व समझते हैं।
मुट्ठीभर सांपद्रायिक तत्त्व अपने हिसाब से क्यों बदल लेते हैं अपना मूल-सिद्धांत
संपूर्ण विवरण तो आप इन्हीं कालमों में पढ़ ही लेंगे, यहां पर आपको केवल कुछ उदाहरणों से ही यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि मसीही समुदाय को केवल कुछ मुट्ठी-भर सांपद्रायिक तत्त्वों (लगभग 130 करोड़ की जनसंख्या में ऐसे लोग शायद 10,000 भी न हों) को छोड़ कर सदा ही भारत में अत्यधिक सहयोग मिलता रहा है। वैसे ये कुछ मुट्ठीभर सांपद्रायिक तत्त्व दिखावे के लिए तो अपनी ‘कण-कण में भगवान’ की विचारधारा का ही प्रचार करते हैं परन्तु जब अपना तथाकथित मूल्यांकन करके अपने बच्चों को कुछ समझाते हैं, तो उन कणों में से स्वयं ही मसीही/ईसाई कौम व अन्य कुछ अल्प-संख्यकों को निकाल देते हैं। तब उनका ‘कण-कण में भगवान’ का सिद्धांत पता नहीं क्यों स्वयं ही क्यों परिवर्तित हो जाता है। यह बात मुझे आज तक समझ नहीं आ सकी।
मसीही लोग नहीं रखते कभी किसी के प्रति कड़वाहट
कुछ ऐसे तथ्य हैं कि जिनके कारण हम मसीही लोग कभी अन्य किसी भी धर्म या कौम से संबंधित व्यक्ति के प्रति बैर-भाव या कड़वाहट मन में रख ही नहीं सकते। टीपू सुल्तान ने 1784 में कर्नाटक के 27 चर्च गिरा दिए थे और एक लाख के लगभग आम निर्दोष मसीही भाईयों व बहनों को कई किलोमीटरों तक दौड़ाया था। उस संघर्ष में बहुत से मसीही मारे भी गए थे और उनमें से 60,000 से लेकर 80,000 मसीही लोगों को उस ने बन्दी बना लिया था और उन्हें आगामी 15 वर्षों तक कारावास में रखा था। टीपू ने स्वयं कहा था कि इन लोगों का कसूर केवल इतना ही था कि वे मसीही थे। जिन्होंने यीशु मसीह को छोड़ने से इन्कार किया, उन्हें हाथियों के पीछे बांध कर मीलों तक घसीटा गया और फिर उन्हीं हाथियों के पैरों तले रौंद दिया गया।
कोई भी अत्याचार नहीं बदल पाए मसीहियत के विचार
कारावास में भी मसीही लोगों पर अनेक प्रकार के अत्याचार किए गए थे। उनमें से बहुतेरों को मुस्लिम बनने पर विवश किया गया था। टीपू की लड़ाई अंग्रेज़ शासकों से थी आम जनता से नहीं। परन्तु उसका आम लोगों पर ऐसे नृशंस ज़ुल्म ढाहना उसे क्रूर शासकों की श्रेणी में ले जाता है। ख़ैर, वह मसीही ही क्या अगर किसी के प्रति मन में बैर रखे - अतः जब 4 मई, 1799 को अंग्रेज़ शासकों की सेनाओं से लड़ते हुए टीपू मारा गया था, तब सभी कैदी रिहा हुए।
हिन्दु शासकों ने की थी हज़ारों दुःखी मसीही लोगों की मदद
तब रिहा होने वाले मसीही लोगों की संख्या केवल 15,000 से 20,000 के बीच थी, जबकि ग्रिफ़्तार होने वाले मसीही लोगों की संख्या 60 से 80 हज़ार के लगभग थी। दरअसल, उनमें से बहुत से मसीही लोगों को मार दिया गया था और कुछ मुस्लिम बन गए थे। शेष बचे मसीही लोगों को ब्रिटिश जनरल आर्थर वैल्ज़ली ने उनमें से 10,000 मसीही लोगों को कनारा क्षेत्र में वापिस जाने में मदद की थी। बाकी के मसीही मालाबार व कूर्ग क्षेत्रों में जाकर बस गए थे। तब तक उनका सब कुछ लुट-पुट चुका था परन्तु ऐसे परिस्थितियों में उन्हें स्थानीय हिन्दु राजाओं व शासकों ने ही अपनी तरफ़ से रहने व चर्च-निर्माण के लिए ज़मीनें दी थीं।
क्या मसीही समुदाय उन हिन्दु भाईयों-बहनों के अहसान को कभी भुला सकता है। जो अज्ञानी होगा, केवल वही हमारे हिन्दु भाई-बहनों को ‘सही नहीं’ कहेगा।
1947 में देश के बंटवारे के समय पंजाब में मरे थे 10 लाख लोग
ऐसी सांप्रदायिक एकता की केवल एक नहीं अनगिनत मिसालें भारत में देखने को मिलती हैं - इसी लिए ‘मेरा भाारत महान’ है।
इसी प्रकार जब अगस्त 1947 में पूरा देश स्वतंत्रता के जश्न मना रहा था, उसी समय पंजाब संाप्रदायिक दंगों व कत्लेआम की आग में जल रहा था। उन दंगों में 10 लाख लोग मरे थे। उस समय केवल हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख ही नहीं, अपितु ईसाई भी बड़ी संख्या में हताहत हुए थे। परन्तु नाम केवल पहले ही तीन समुदायों का लिया जाता है, मसीही समुदाय को ‘फ़ालतू’ समझ कर छोड़ दिया जाता है।
परिवार के विरुद्ध दिया गया था तानाशाही आदेश
यहां मैं सांप्रदायिक एकता के लिए अपने दादा कर्म मसीह, दादी कम्मा मसीह, पिता नवाब मसीह (अब पिंजौर, ज़िला पंचकूला में फ़ेथ बैप्टिस्ट चर्च के पादरी जॉर्ज सैमुएल), बुआ डी. भीमा की सच्ची कहानी संक्षेप में सुनाना चाहता हूं। मेरे दादा जी व उनके भाई सम्मा ने 1925-1930 के बीच किसी समय यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण कर लिया था, जब मेरे पिता जी भी पैदा नहीं हुए थे। बुआ व दादी बताया करते थे कि जब हमारा परिवार नया-नया मसीही हुआ था, तो गांव महल कलां (ज़िला बरनाला, पंजाब) के लोगों ने पंचायत से शिकायत करके परिवार का हुक्का-पानी बन्द करवा दिया था क्योंकि स्थानीय लोगों का तब मानना था कि ‘यह परिवार अब भ्रष्ट हो गया है, इसके सदस्यों से किसी ने कोई बात नहीं करनी, न कोई रिश्ता रखना है और इस परिवार को गांव के एकमात्र कुंएं से पानी नहीं लेने देना है।’ ऐसे तानाशाही आदेश के कारण परिवार को कुछ वर्षों तक बड़ी दूर से पानी लेकर आना पड़ता था। गांव का मुखिया बदलने के पश्चात् सब ठीक हो गया था।
1650 ई. में अफ़ग़ानिस्तान के बलख प्रांत से भारत आए थे पूर्वज
पिता-पक्ष की ओर से हमारे पूर्वज अबदुल्लाह किसी समय, संभवतः मुग़ल बादशाह शाहजहां के कार्यकाल के समय 1650 के आस-पास किसी समय अफ़ग़ानिस्तान के बलख़ प्रांत के किसी गांव से भारत की राजधानी नई दिल्ली आए थे। वह बहुत बड़े योद्धा थे। उन्हें बादशाह ने अपनी सेना की एक टुकड़ी का सेनापति बना दिया था। उसके बाद जब वह सेवा-निवृत्त हुए, तो बादशाह ने उन्हें पुरुस्कार में एक गांव में काफ़ी सारी ज़मीन दी थी। वह स्थान अब पंजाब के बरनाला ज़िले का बड़ा गांव महल कलां कहलाता है। पहले यह गांव ज़िला संगरूर में था परन्तु अब यह बरनाला में आ गया है। वहां की 104 बीघा ज़मीन मेरे पिता व ताया सरदार मसीह ने 1975-76 में ही केवल 48 हज़ार रुपए में बेच दी थी।
डेढ़ शताब्दी से मातृ पक्ष है मसीही
माता मर्सी सैमुएल की ओर से हमारे पूर्वज गांव संतोख माजरा (ज़िला कैथल, हरियाणा) के गौड़ ब्राह्मण हुआ करते थे परन्तु अब लगभग डेढ़ शताब्दी से यह लगभग समूचा गांव ही मसीही है। यहां पर सीएनआई का एक बड़ा शानदार चर्च भी स्थापित है, जिसे कई किलोमीटर दूर से देखा जा सकता है।
1947 के सांप्रदायिक दंगों में सिक्खों ने बचाया परिवार
ख़ैर, हमारा मसीही परिवार देश को स्वतंत्रता प्राप्ति के समय गांव महल कलां में रहा करता था। आस-पास के गांवों के अधिकतर लोग उन्हें 20 वर्षों के बाद भी मुस्लिम ही समझा करते थे। 1947 में जब देश में आज़ादी के जश्न मनाए जा रहे थे, तब पंजाब सांप्रदायिक दंगों की आग में जल रहा था। कुछ कट्टर प्रकार के सिक्ख लोग मुसलमानों को चुन-चुन कर मार रहे थे और उधर पाकिस्तानी क्षेत्र में सिक्खों व हिन्दुओं को चुन-चुन कर मौत के घाट उतारा जा रहा था। तब देश तो आज़ाद हुआ ही था परन्तु देश के साथ ही पंजाब भी दो भागों में बंट कर रह गया था। उसी ख़ून-ख़राबे के दौर में पता चला कि कुछ हमलावर सिक्ख घोड़ों व ऊँटों पर सवार हो कर नंगी तलवारें लहराते हुए गांव धनेर से गांव महल कलां की ओर तेज़ी से बढ़ते आ रहे हैं और वे मुसलमानों को बख़शेंगे नहीं। तभी कुछ सिक्ख बजुर्ग लोगों ने हमारे परिवार को सलाह दी कि आपको आस-पास के बहुत से लोग अभी मुस्लिम ही मानते हैं, इसी लिए आप हमारे गांव के किसी भी सिक्ख के घर में छुप जाएं, ताकि आपको कोई नुक्सान न हो।
वही हुआ। आक्रमणकारी सिक्ख सीधे गांव में स्थित हमारे ही घर की ओर गए और खाली पड़े घर की तलाशी ली। परन्तु वह ख़ाली था। वह हमलावर वहां पर पड़ी कुछ कीमती वस्तुएं उठा कर अपने साथ ले गए। इस प्रकार हमारे परिवार को नया जीवन देने वाले भी सिक्ख थे और जो उस समय जान लेना चाहते थे, वे भी सिक्ख थे, तो हम सिक्खों को ग़लत कैसे कह सकते हैं?
उसके पश्चात् हमारे परिवार ने छिपते-छिपाते किसी प्रकार लगभग 35 किलोमीटर पैदल चल कर मालेरकोटला नगर (ज़िला संगरूर, पंजाब) में जाकर शरण ली थी। सन् 1947 में समस्त पंजाब में सभी जगह पर सांप्रदायिक दंगे भड़के होने के बावजूद मालेरकोटला रियास्त में कहीं कोई गड़बड़ी नहीं थी। 1991 तक हमारा परिवार वहीं पर रहा। 1991 से 1993 के बीच हम पिन्जौर (हरियाणा) में रहे तथा फिर 1993 से 1995 के बीच एक बार फिर मालेरकोटला आ गए थे। उसके पश्चात् 23 दिसम्बर 1995 को चण्डीगढ़ आ गए और तब से यहीं पर हैं।
भारतीय समाज में फूट डालने हेतु शेयर किए जा रहे सांप्रदायिक सन्देश
आजकल सोशल मीडिया पर कुछ कट्टरपंथी सिक्ख दिसम्बर माह में क्रिस्मस के आास-पास बिना सोचे-समझे ऐसा कुछ संदेश प्रसारित कर रहे हैं - जिसमें सिक्ख भाईयों-बहनों को संबोधन करते हुए कहा जाता है कि ‘‘आप लोग सोशल मीडिया पर ‘क्रिस्मस मुबारक’ क्यों कह रहे हैं, क्या कभी किसी क्रिस्चियन ने गुरुपर्व की मुबारकबाद दी है। वैसे भी यह दश्म पातिशाह श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के छोटे साहिबज़ादों (सुपुत्रों) का शहीदी पर्व है, इस लिए आप लोग इन दिनों में किसी को ‘क्रिस्मस मुबारक’ न कहा करें।’’ सचमुच ऐसे सन्देश केवल अलगाववाद की राजनीति को ही बढ़ावा देते हैं व समाज में किसी बड़े तनाव का कारण बन सकते हैं, और कुछ नहीं। ऐसे सांप्रदायिक सन्देश बहुत ख़तरनाक हैं तथा भारतीय समाज में फूट डालने हेतु कुछ समाज-विरोधी तत्त्व जानबूझ कर ऐसे सन्देश शेयर किया करते हैं।
यह हैं ऐतिहासिक तथ्य व यही है सच्चाई
मैं ऐसे लोगों को कुछ कहना चाहता हूं तथा उनके समक्ष कुछ प्रश्न भी रखूंगा, जिनका जवाब उन्हें सकारात्मक रूप से देना होगा। पहली बात तो यह कि श्री फ़तेहगढ़ साहिब (पंजाब का वह धार्मिक स्थल, जहां श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के दो छोटे साहिबज़ादों को शहीद किया गया था) में शहीदी जोड़ मेला प्रत्येक वर्ष 26 दिसम्बर को प्रारंभ होता है, 25 दिसम्बर क्रिस्मस को नहीं।
बैथलेहम व आस-पास के अन्य गांवों में भी राजा हेरोदेस ने मरवाए थे सैंकड़ों नवजात शिशु
दूसरे, जब यीशु मसीह का जन्म बैथलेहम (इस्रायल के मुख्य नगर येरुशलेम के दक्षिण में स्थित एक नगर, जो अब फ़लस्तीन के पश्चिमी किनारे में है) में हुआ था। तब अनेक तत्कालीन जयोतिषियों व भविष्यवक्ताओं ने एकजुट आवाज़ में कहा था कि ‘हमने एक ऐसा तारा देखा है, जो यहूदियों के राजा के जन्म लेने पर ही निकलना चाहिए’ और वे उस समय के राजा हेरोदेस को यह पूछने लगे कि वह नवजात शिशु कहां है, क्योंकि वे उसे प्रणाम करना चाहते हैं। क्योंकि वे यही समझ रहे थे कि यहूदियों का राजा तो राजा के घर पर ही पैदा होगा - परन्तु वास्तव में यीशु मसीह तो एकांत में पशुओं के चारा डालने वाली चरनी (मैंजर या नांद या हौदा या खुरली) में पैदा हो चुके थे। दरअसल, इस्रायल के सदियों पुराने धर्म-ग्रन्थों में यीशु के जन्म की भविष्यवाणी पहले से ही कर दी गई थी। इस बात पर राजा हेरोदेस घबरा गया कि उसके राज-सिंहासन पर राज्य करने उसकी संतान के अतिरिक्त और कौन हो सकता है। इसी लिए उसने तत्काल विगत कुछ दिनों ही नहीं पिछले एक-दो वर्षों में पैदा हुए सभी बच्चों को जान से मरवा दिया था, ताकि और कोई उसकी गद्दी को ख़तरा न बन सके। अब इस पर भी इतिहासकारों में कुछ मतभेद हैं क्योंकि कुछ इतिहासकार तो मरवाए गए बच्चों की संख्या कई हज़ारों में बताते हैं और प्रत्येक इतिहासकार के अनुसार यह संख्या भिन्न है। परन्तु इतना अवश्य है कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को उस समय के राजा के आदेशानुसार मरवाया अवश्य गया था।
आखिर कैनेडा में क्यों है सिक्खों का अत्यधिक सम्मान?
बहुत से चर्च प्रत्येक वर्ष 26 दिसम्बर व उसके कुछ आगामी दिनों को शोक के दिवस मानते हैं अर्थात 26 दिसम्बर से मसीहियत के लिए भी शोकाकुल समय प्रारंभ हो जाता है। इस लिए अलगाववादियों व समाज में फूट डालने वालों का यह कहना कि किसी को क्रिस्मस मुबारक’ न कहें - बिल्कुल बेबुनियाद है। दूसरे एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि जिस देश में सिक्ख जाना सब से अधिक पसन्द करते हैं, वह कैनेडा है, जहां के अधिकतर लोग मसीही हैं। उस देश में चार सिक्ख इस समय केन्द्रीय मंत्री हैं, विश्व के किसी भी अन्य देश में इतना मान-सम्मान सिक्खों को कहीं और नहीं मिला - भारत में भी नहीं, इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया, न्यू ज़ीलैण्ड, यूरोप के अन्य देश या किसी भी अन्य कोने में ऐसा आदर सिक्ख कौम को कहीं नहीं दिया गया। कैनेडियन एयरलाईन्स में सिक्ख कृपाण ले कर यात्रा की जा सकती है, भारत (जो सिक्खों का अपना स्वयं का देश है) तक में ऐसी अनुमति उन्हें नहीं है। ऐसा आदर-मान केवल मसीही लोग ही किन्हीं अच्छे लोगों को दे सकते हैं। यदि आप में कोई काबलियत है, प्रतिभा है और आप कुछ नया करके दिखलाना चाहते हैं, तो लगभग सभी पश्चिमी देश, जो यीशु मसीह की शिक्षाओं पर चलते हैं, वे दुनिया के किसी भी कोने के व्यक्ति को अवश्य ही सर आंखों पर बिठाएंगे - बशर्ते कुछ दम हो।
भारत में भी चुनावी उम्मीदवारों का चयन हो उनके दम पर न कि उनकी जाति के आधार पर
परन्तु यहां पर भारत में स्थिति कुछ विपरीत है, चुनाव में खड़े व्यक्ति की योग्यता नहीं, उसके धर्म, जाति व क्षेत्र पर अधिक बल दिया जाता है - अन्य किसी जाति का उम्मीदवार चाहे कितना ही ईमानदार, सशक्त व अच्छा क्यों न हो, लोग उसे अपना मतदान नहीं करेंगे अपितु केवल अपनी जाति, धर्म व क्षेत्र इत्यादि का ध्यान अधिक रखा जाएगा। पश्चिमी देश केवल धन-दौलत से नहीं, अपितु अपनी सोच व मानसिकताओं के कारण भी हम से आगे हैं। वहां पर अधिकतर स्थानों पर केवल योग्य उम्मीदवार को चुना जाता है। यही कारण है कि वहां पर संपूर्ण विकास होता है और हुआ है। उम्मीदवार चाहे दुनिया के किसी भी कोने से संबंधित हो, उसमें लोगों की सेवा करने की भावना को परख लिया जाता है और उसी का चयन भी किया जाता है।
मसीही धर्म व उसे पैरोकारों संबंधी नकारात्मक टिप्पणी करने से पूर्व सौ बार सोचें
अतः मेरी सभी प्रकार, क्षेत्र, धर्म के लोगों के अलगाववादियों से प्रार्थना है कि वे मसीही धर्म व उसके पैरोकारों के बारे में कोई नकारात्मक टिप्पणी करने से पूर्व सौ बार सोच लें। ऐसा मत समझें कि जिन्होंने कभी अपने उद्धारकर्ता यीशु मसीह की शिक्षाओं पर चलते हुए कभी हथियार नहीं उठाया या किसी हिंसक गतिविधि में कभी भाग नहीं लिया, वे किसी तरह से कमज़ोर हैं (यहां पर यह अवश्य बहस का मुद्दा बना रहा है कि अब तक दो विश्व युद्ध करवाने या उनमें भाग लेने वाले अधिकतर देश स्वयं को यीशु मसीह के पैरोकार ही कहलाते थे। परन्तु यहां पर विषय कुछ और है, अतः हम ऐसे देशों के मसीही शिक्षाओं के दूर जाने की भी बात कर चुके हैं। गांधी जी ने भी यह मुद्दा बहुत बार उठाया था)। वे भी अन्य लोगों की तरह कोई ग़लत हरकतें कर सकते हैं परन्तु उनके संस्कार, विरास्त, शिक्षाएं उन्हें कभी ऐसा नहीं करने देंगी।
हम यहां पर बात सांप्रदायिक एकता व अखंडता की कर रहे हैं, अलगाववाद की नहीं।
मेरे परम-मित्र प्रत्येक समुदाय से, अत्यधिक सहयोग हेतु उनका धन्यवाद
मैं अपने परम मित्रों जैपाल सिंह खुराना, गुरमीत सिंह शाही, गुरदीप सिंह ग्रेवाल, रणजीत सिंह, पवन कुमार वर्मा, सुमित टण्डन, मोहम्मद असलम, मोहम्मद नसीम, मोहम्मद जमील, मोहम्मद बशीर मालेरकोटलवी.............. के सांप्रदायिक एकता के प्रतीक इस गुलदस्ते से आजीवन कभी अलग नहीं हो सकता। उनसे मिले अत्यधिक सहयोग हेतु मैं उनका शुक्रगुज़ार हूं।
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1988 में मेरी बारात में थे सभी धर्मों व समुदायों के लोग, मेरा सौभाग्य
बुद्धवार, 21 सितम्बर, 1988 को जब मालेरकोटला से मेरे विवाह के समय बारात चली थी, तो उस में मेरे परिवार के सभी ईसाई/मसीही रिश्तेदार तो थे ही, उसमें हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख व अन्य जातियां भी थीं। शायद ऐसा सौभाग्य बहुतों को अपने विवाह समय नहीं मिलता। उस विवाह का संपूर्ण विडियो यू-ट्यूब पर भी उपलब्ध है।
भारतीय संस्कृति व पश्चिमी देश
पश्चिमी देशों की संस्कृति के बारे में बहुत सी भ्रांतियां व ग़लत विचार हॉलीवुड ने दुनिया भर में फैलाए हैं। हॉलीवुड की फ़िल्में देख कर तो लगता है कि पश्चिमी देशों की लड़कियां शायद बहुत खुले स्वभाव की होती हैं और जब जी चाहे किसी के साथ चली जाती हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है। उनके चरित्र भी उतने ही ऊंचे हैं, जितने कि हम भारतीय दावे करते हैं। दरअसल, ‘रील लाईफ़’ और ‘रीयल लाईफ़’ में धरती व आकाश जितना अंतर होता है। हॉलीवुड एक अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार है, जहां पर फ़िल्म नाम के उत्पाद तैयार होते हैं और पूरी दुनिया में वितरित होते हैं। अब क्योंकि ज़्यादातर देश अंग्रेज़ों के अधीन रहे हैं, इसी लिए उन देशों के तथाकथित आधुनिक नागरिकों को भी वे थर्ड-क्लास फ़िल्में बहुत अच्छी व क्लासिक लगती हैं। कुछ अधिक पढ़े-लिखे व अमीर लोगों से यदि आप उनसे उनकी फ़िल्मों की पसन्द के बारे में पूछें तो उनके कुछ रटे-रटाये उत्तर होते हैं और वे केवल अंग्रेज़ी फ़िल्मों के ही नाम लेंगे तथा हिन्दी फ़िल्मों के नाम पर नाक-भौंह सिकोड़ कर दिखाएंगे। हॉलीवुड के लोग ऐसी अंतर्राष्ट्रीय भावना को कैश करते हैं। वे कला के नाम पर नग्नता को थोड़ा नए ढंग से प्रस्तुत कर के फोकी वाहवाही लूटते हैं। यह सत्य हमें हर हालत में अवश्य जान लेना चाहिए कि उन लोगों का काम है ऐसी काम-भड़काऊ फ़िल्में बना कर लाखों करोड़ों डालर एकत्र करना, और कुछ नहीं। या फिर वे साइंस फ़िक्शन के नाम पर बिना मतलब व बेसिर-पैर की अन्य ग्रहों के जीवों या वर्तमान समय से अतीत या भविश्य में ले जाने टाईम-मशीन की फ़िल्में बनाते हुए आम भोली-भाली जनता को मनोरंजन के नाम पर पैसा ऐंठते हैं। वे अपने देश की औरतों की ऐसी छवि क्यों दिखलाते हैं, इसका एक बड़ा कारण है।
अपने देश के इतिहास को ही क्यों नहीं जानना चाहते अमेरिकन?
वास्तव में अमेरिका एक ऐसा देश है, जिसे अधिकतर इंग्लैण्ड के निवासियों व यूरोपियनों ने बसाया है। अर्थात किसी एक देश के लोगों की संस्कृति अमेरिका में आपको नहीं मिलेगी। इसी लिए उनका इतिहास सदियों पुराना नहीं है, जैसा कि भारत का है। वे लोग अमेरिका की स्थापना 4 जुलाई, 1776 से अधिक पीछे जाना ही नहीं चाहते। क्योंकि यदि जाते हैं, तो फिर अमेरिकन उप-महाद्वीप के शताब्दियों पुराने मूल नागरिकों रैड-इण्डियन्स को मान्यता देनी पड़ती है - जो वे कभी देना नहीं चाहते। इसी लिए अमेरिका की संस्कृति अब केवल और केवल पैसा बन चुकी है। परन्तु जो लोग कहीं से भी आए हैं, उन सभी में अपने-अपने मूल देश की संस्कृति पूर्णतया मौजूद है।
भारत में भी होने लगा महिलाओं का सम्मान
अधिकतर लोग क्योंकि इंग्लैण्ड (यू.के.) से हैं, इसी लिए वहां की संस्कृति कुछ अधिक हावी रहती है। दरअसल, उन लोगों ने अपनी औरतों को कभी दबा कर नहीं रखा - यही बात कई शताब्दियों पश्चात् भारतीय भी धीरे-धीरे कानून के डण्डे से सीखने लगे हैं और उन्हें भी औरत जाति का सम्मान करना पड़ रहा है। ऐसे परिवर्तन कभी रातो-रात नहीं आ जाया करते, इसी लिए अभी भारतीय दंपत्तियों में लड़ाई-झगड़े बढ़ने लगे हैं - क्योंकि भारतीय नारी अब अत्यधिक जागरूक हो गई है और मर्द की धौंस नहीं झेलती। यही कारण है कि अब पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी पति-पत्नी के मध्य तलाक के मामलों में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई है।
हमारे ‘भारत महान’ व पश्चिमी देशों में महिलाओं के मान-सम्मान के मध्य अन्तर
क्या आपने हमारे ‘भारत महान’ व पश्चिमी देशों में महिलाओं के मान-सम्मान के मध्य अन्तर देखा है। आईये कुछ साधारण सी उदाहरणों से इसे समझें। मेरी इस दलील से हो सकता है कि कुछ लोगों को थोड़ी तकलीफ़ हो परन्तु ये बातें पूर्णतया सत्य हैं -
जब भारत, विशेषतया उत्तरी भारत में जब किसी युवक का विवाह होता है, तो उसे अपनी अविवाहित सालियों से हर प्रकार का हंसी-मज़ाक करने का अधिकार मिल जाता है। बहुतेरे दूल्हे अपनी सालियों पर बुरी नज़र रखते हैं। ऐसे समाचारों की बहुतात हमारे देश के समाचार-पत्रों में बहुत मिल जाएगी, जहां पर जीजा-साली, देवर-भाभी व ऐसे अन्य बहुत से संबंधित रिश्ते तार-तार होते दिखाई देते हैं। इसका कारण केवल महिलाओं को बनता मान-सम्मान न देने के कारण ही होता है। मैं ऐसी बातों को महान संस्कृति नहीं मानता। इन बातों में बहुत से सुधारों की आवश्यकता है। अब पश्चिमी देशों, जिन्हें भारत में अधिकतर कुछ और ही नज़रों से देखा जाता है, में जब युवक-युवती का विवाह होता है, तो उसकी सास स्वयं ही ‘मदर-इन-लॉअ’ व साली ‘सिस्टर-इन-लॉअ’ बन जाती है अर्थात ‘कानूनी माँ’ व ‘कानूनी बहन’ बन जाती हैं। जहां पर शब्द ‘माँ’ व ‘बहन’ आ जाते हैं, वहां पर मन में ग़लत या अशलील विचार आने की संभावना बहुत कम हो जाती है। यही कारण है कि उन देशों में ऐसी ख़बरें नहीं मिलेंगी, जैसे कि नाजायज़ संबंधों की ख़बरें प्रमुखता से भारत के समाचार-पत्रों या मीडिया में पढ़ने व सुनने को मिलती हैं।
हम यहां पर भारत को पश्चिमी देशों के मुकाबले नीचा दिखलाने का प्रयत्न नहीं कर रहे हैं, परन्तु यदि कहीं पर हम में कोई कमी है, तो हम उस कमी को दूसरों से कुछ सीख कर दूर कर सकते हैं। यदि हम आज इस दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ाएंगे, तो भारत में इस संबंधी परिवर्तन आने में भी शायद एक शताब्दी भी लग सकती है क्योंकि लोगों की मानसिकता बदलने में इतना वक्त तो लगता ही है।
नहीं भुला सकता मालेरकोटला के मुस्लिम भाईयों का सहयोग
ख़ैर, हम बात भारतीय समाज में मसीही समाज को अन्य धर्मों व जातियों से संबंधित लोगों से मिलने वाले सहयोग के बारे में कर रहे हैं। इसी संबंध में एक बात मुझे और स्मरण हो आती है कि मार्च 1985 में जब मालेरकोटला (ज़िला संगरूर, पंजाब) में मेरी दादी कम्मा मसीह का देहांत हुआ था, तो सरहन्दी गेट के मोहल्ला बाग़बान में रहने वाले बहु-संख्यक मुस्लिम परिवारों ने अभूतपूर्व सहयोग दिया था। मुस्लिम बहु-संख्या वाले नगर मालेरकोटला में मसीही समुदाय अब भी बहुत कम संख्या में है, तब भी परिस्थितियां ऐसी ही थीं।
मुस्लिम भाईयों ने अपने परिवारों सहित मुझे इतना सहयोग दिया कि वह शब्दों में ब्यान किया ही नहीं जा सकता। मुझे ज्ञात नहीं हुआ कि मोहल्ला मालेर से थोड़ा बाहर मसीही कब्रिस्तान में उन भाईयों ने कब अपनी तरफ़ से कब्र खुदवा दी। मृतक देह धरती को सौंपने के लिए यही तो सबसे अधिक बड़ा कार्य होता है। इसके अतिरिक्त रवायत के मुताबिक तीन दिनों तक घर में चूल्हा नहीं जला, तो दिन में दो-दो बार प्रतिदिन पड़ोसियों ने खाना पहुंचाया। साथ में वे हमें निरंतर सांत्वना भी देते रहे। यह सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक कि दूर-दराज़ रहने वाले हमारे सभी रिश्तेदार इकठ्ठा नहीं हो गए। तब टैलीफ़ोन सुविधायें आज के युग की तरह नहीं थीं, तब टैलीग्राम (तार) से ही ऐसे दुःख व सुख के संदेश पहुंचाए जाते थे। परन्तु अधिकतर मामलों में तार भी उन दिनों में तत्काल नहीं मिला करती थीं, वे कई बार दूसरे-तीसरे दिन जाकर मिलती थीं।
सभी समुदायों से मिलता रहा भरपूर सहयोग
मुझे निजी तौर पर सभी धर्मों व कौमों के लोगों का भरपूर सहयोग सदैव मिलता रहा है। मैं उन सभी का अत्यधिक ऋणी हूं, जिन्होंने मुझे आर्थिक, करियर में हर प्रकार की मुसीबत में पूरा साथ दिया है। मैं यदि आज हूं, तो उन सभी के सहयोग के कारण ही हूं - मेरे अस्तित्त्व में परमेश्वर व मेरे अपने मसीही समुदाय का योगदान तो मूलतः सदा रहा ही है।
मेरा नाम व उसका आभास
मुझसे बहुत बार मेरे अपने मसीही भाई-बहन यह प्रश्न अवश्य पूछते हैं कि मेरे नाम (मेहताब-उद-दीन) से एक मुस्लिम होने का आभास क्यों होता है। तब मेरा उत्तर सदा यही होता है कि प्रत्येक व्यक्ति की पहचान उसके धर्म से नहीं, अपितु उसके कार्यों से हुआ करती है। यह मेरे अपने निजी विचार हैं, किसी अन्य के विचार कुछ भिन्न हो सकते हैं। मेरे अन्य पाँच भाई -- अपने नाम के साथ शब्द ‘सैमुएल’ लगाते हैं परन्तु मेरा नाम मेरी सरकारी अध्यापिका बुआ डी. भीमा जी ने जैसे रखा था, मैंने उसे परिवर्तित नहीं किया। उन्होंने ही मुझे पाला-पोसा व पढ़ाया-लिखाया। उन्हीं के साथ मैं मालेरकोटला में 1964 से 1991 तक रहा।
अपने कार्य-स्थल पर मैंने कभी अपने निजी जीवन के बारे में स्वयं नहीं बताया कि मैं मसीही हूं परन्तु ऐसी बातें लोग स्वयं ही ज्ञात कर लिया करते हैं - किसी को ऐसा कुछ बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं होती। आप किसी को बताएं या न बताएं, लोगों को आपके धर्म, गौत्र व पृष्ठभूमि के बारे में इधर-उधर के सूत्रों से ज्ञात हो ही जाता है।
‘पंजाबी जागरण’ के यादगारी क्षण
मैं 21 जून, 2017 से लेकर 12 जून, 2018 तक दैनिक समाचार-पत्र ‘पंजाबी जागरण’ के जालन्धर स्थित कार्यालय में असिस्टैंट एडिटर के पद पर कार्यरत रहा। वहां पर मुझे चीफ़ जनरल मैनेजर श्री मोहिन्द्र कुमार, सम्पादक श्री वरिन्द्र वालिया जी, 42 से अधिक सब-एडिटर्स, चीफ़ सब-एडिटर्स व समाचार सम्पादक श्री सुशील खन्ना जी व मैनेजर श्री नीरज शर्मा जी का भरपूर सहयोग मिला। उस एक वर्ष के कार्यकाल में मैंने कभी किसी से अपने धर्म के विषय पर कभी कोई बातचीत नहीं की। परन्तु जब वहां से मैं ‘’हिन्दुस्तान टाईम्स’ के मोहाली स्थित कार्यालय में ‘हिन्दुस्तान टाईम्स पंजाबी’ के असिस्टैंट एडिटर के तौर पर कार्य हेतु जालन्धर से रवाना होने लगा, तो सब-एडिटर्स ने मिल कर 11 जून, 2018 को बिदाई (फ़ेयरवैल) पार्टी दी। तब मेरी पत्नी ऐनी व बेटा विल्सन भी वहां पर विद्यमान थे। तेजिन्द्र सिंह मठाड़ू के नेतृत्त्व में सब-एडिटर्स ने मिल कर कुछ राशि एकत्र की तथा मुझे एक यादगारी चित्र व पैन उपहार-स्वरूप भेंट किए। वह चित्र था हमारे मुक्तिदाता प्रभु यीशु मसीह का। वही मेरी प्राप्ति थी - मैंने कभी अपने सह-कर्मियों से धर्म के विषय पर बात नहीं की परन्तु उनका यह उपहार देखकर मेरी आँखें नम हो गईं थीं। हम मसीही लोगों की पहचान कार्यों से ही होनी चाहिए।
इस विचार-चर्चा का निष्कर्ष यही निकलता है कि भारत के आम लोग सर्वदा एक-दूसरे से मिलजुल कर ही रहना चाहते हैं। उनमें प्रायः कभी सांप्रदायिकता का विष देखने को नहीं मिलता, परन्तु जब भी कोई राजनीतिक लोग आ जाते हैं, उनके आ जाने से कुछ लोगों (सभी को नहीं) अपने पुराने साथियों में भी हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख या ईसाई दिखाई देने लग पड़ते हैं। ऐसा रुझान बेहद हानिकारक है।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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