गांधी जी के दृष्टिकोण से मसीही प्रचार करते थे प्रो. स्रामपिकल कुरुविला जॉर्ज
गांधी जी के व्यक्तित्त्व से अत्यधिक प्रभावित थे एस.के. जार्ज
प्रो. एस.के. जॉर्ज एक कट्टर गांधीवादी थे कि जिनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। श्री एस.के. जॉर्ज का पूरा नाम स्रामपिकल कुरुविला जॉर्ज था। उन्होंने 1932 में कलकत्ता के बिश्प’ज़ कॉलेज से ग्रैजुएशन की थी। वह एंगलिकन चर्च के पारंपरिक पादरी थे। वह इसी बात से हैरान हुआ करते थे कि गांधी जी जबकि मसीही भी नहीं है, फिर वह यीशु मसीह की शिक्षाओं पर कैसे चल रहे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि गांधी जी में न केवल एक सच्चे मसीही की तरह जीवन जीने का हौसला था बल्कि वह अन्य लोगों को भी इसी राह पर चलने की शिक्षा भी दिया करते थे। प्रो. एस.के. जॉर्ज ने ऐसे पहले किसी भी व्यक्ति को नहीं देखा था जो पहाड़ पर यीशु मसीह के उपदेश व श्रीमद भगवद्गीता को एकसमान सुसमाचार मानते थे। उस समय के बहुत से कट्टर मसीही पादरी साहिबान प्रो. जॉर्ज की ऐसी बातों से बहुत परेशान हुआ करते थे। वह क्योंकि गांधी जी के दृष्टिकोण से लोगों को यीशु मसीह व मसीही धर्म के बारे में समझाते थे; इस बात से चिढ़ कर उनके अधिकारीगण बड़े पादरी साहिबान ने सामूहिक निर्णय लेकर प्रो. एस.के. जॉर्ज को पादरी के पद से निलंबित (सस्पैण्ड) कर दिया था क्योंकि उन्हें लगता था कि ऐसा करने से वह चर्च के वास्तविक पथ पर वापिस आ जाएंगे।
यह चित्र कोलकाता स्थित बिश्प’ज़ कॉलेज ऑफ़ थ्योलोजियन्स के चर्च का है। इस कॉलेज की स्थापना 15 दिसम्बर, 1820 को एंग्लीकन डायोसीज़ ऑफ़ कलकत्ता के पहले बिश्प थॉमस फ़ैन्ज़हवे मिडलटन द्वारा हुगली नदी के किनारे एक बाग़ के समीप शिबपुर में की गई थी। 1883 में कॉलेज का परिसर 224 लोयर सर्कुलर (जहां अब यह कॉलेज स्थित है और इस सर्कुलर को अब आचार्य जगदीश चन्द्र बोस सर्कुलर कहते हैं) में लाया गया था तथा यहीं पर इस चर्च की स्थापना 9 मई, 1898 को की गई थी।
मसीही समुदाय को प्रेरित किया गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने हेतु
1930 का दशक चल रहा था और प्रो. एस.के. जॉर्ज तब धार्मिक प्रचार करने से समर्थ हो गए थे। उन्होंने जब देखा कि भारत के कुछ चर्च भारत के राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग नहीं ले रहे हैं, तो उन्होंने सीधे मसीही समुदाय को आह्वान किया कि वह गांधी जी के शहरी असहयोग आन्दोलन में भाग अवश्य लें। प्रो. जॉर्ज का मानना था कि गांधी जी के सत्याग्रह एक प्रकार से ‘क्रॉस इन एक्शन’ अर्थात ‘सलीबी कार्यवाही’ है। तत्कालीन बंगाल सरकार ने प्रो. जॉर्ज की ऐसी व्याख्या पर आपत्ति प्रकट की थी और कलकत्ता के जिन दो समाचार-पत्रों में प्रो. जॉर्ज का ब्यान प्रकाशित हुआ था, उन्हें सरकार ने दण्ड के तौर पर जुर्माना भी किया था। परन्तु तब प्रो. जॉर्ज किसी प्रकार की सरकारी कार्यवाही से बच गए थे। परन्तु भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति उनकी ऐसी भावना को तब अंग्रेज़ों के चापलूस लोगों ने ‘चर्च एवं सरकार के प्रति द्रोह’ माना था।
प्रो. एस.के. जॉर्ज ने अंग्रेज़ शासकों किया था डट कर विरोध, अंग्रेज़ शासकों से हुई तीखी बहस
पी.एन. बैंजामिन ने प्रो. एस.के. जॉर्ज के बारे में 22 अक्तूबर, 2000 को ‘सण्डे हैरार्ल्ड’ में एक विस्तृत लेख लिखा था। प्रो. जॉर्ज के बारे में जानकारी केवल उसी से मिलती है, और कहीं पर उनका वर्णन नहीं मिलता। श्री बैंजामिन के उस लेख के अनुसार भारत के एंग्लिकन चर्च के उस समय के मुख्य मैट्रोपॉलिटन फ़ॉस वैस्टकॉट ने गांधी जी के असहयोग आन्दोलन को ‘ग़ैर-मसीही’ करार दिया था और ब्रिटिश कानून को ‘प्रकृति का कानून’ बताया था। प्रो. एस.के. जॉर्ज ने उनकी ऐसी बात का डट कर विरोध किया था। उन्होंने बाईबल में दर्ज ‘इस्रायलियों की बग़ावत’ और उसके बाद प्रारंभ हुए धार्मिक युद्ध को गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के समान बताया। उन्होंने शासकों से कहाः ‘‘जब मैं गांधी जी के आन्दोलनों के बारे में सोचता हूँ तो मुझे मूसा द्वारा किया गया ‘इस्रायलियों की बग़ावत’ का नेतृत्व याद आ जाता है, क्योंकि उस युग में इस्रायली अपने शासकों से नाख़ुश चल रहे थे और उसी से विद्रोह उत्पन्न हुआ था; उसी विद्रोह के कारण उन्हें स्वतंत्रता मिल पाई थी। यदि हम श्री वैस्टकॉट की ‘प्रकृति के कानून’ की दलील मानें, तब तो वह मूसा की ही निंदा कर रहे हैं।’’ इस पर श्री वैस्टकॉट ने जवाब दिया,‘‘मैं सदा यही समझता हूँ कि मूसा ने वह सब बादशाह फ़िरौन की स्वीकृति से ही किया था... परन्तु फ़िरौन का लक्ष्य मूसा की हिंसा से नहीं, अपितु परमेश्वर की मर्ज़ी से पूर्ण नहीं हो पाया था।’’ इसके प्रत्युत्तर में प्रो. एस.के. जॉर्ज ने कहा,‘‘आप कहते हैं कि हमारे परमेश्वर राजनीति से दूर रहते हैं, परन्तु हम तो परमेश्वर को राजनीति में नहीं ला रहे हैं परन्तु वह हमारे संपूर्ण जीवन के परमेश्वर तो हैं। ...मैं ऐसे विरोध को चुनौती देता हूँ, जो यह कहता है कि ‘पूर्णतया अहिंसक असहयोग आन्दोलन एक अन्यायपूर्ण बात है तथा यीशु मसीह के उपदेश के विरुद्ध है।’ ’’ वास्तव में प्रो. एस.के. जॉर्ज का धार्मिक स्टैण्ड बड़ा सरल था। उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी - ‘गांधी’ज़ चैलेन्ज टू क्रिस्चियनिटी’ (मसीहियत को गांधी की चुनौती), जिसमें उन्होंने लिखा था कि ‘परमेश्वर का राज्य मसीहियत में केन्द्रीय विषय है।’ दरअसल, प्रो. एस.के. जॉर्ज उस समय के चर्च का विरोध नहीं कर रहे थे, बल्कि ‘परमेश्वर के राज्य’ का सन्देश ही ला रहे थे। उनका मानना था कि परमेश्वर के राज्य की प्राप्ति सलीब पर दुःख उठाने के बाद ही मिल सकती है। ‘मैं यदि एक गांधीवादी हूँ तो उसके साथ एक मसीही भी हूँ। मैं मानता हूं कि भारत के एक सच्चे मसीही को अवश्य ही गांधीवादी होना चाहिए। गांधी जी चाहे हिन्दु धर्म के अनुयायी भी हैं, परन्तु वह एक मसीही भी हैं।’ प्रो. जॉर्ज का मानना था कि गांधी जी व्यवहारिक रूप से केवल और केवल यीशु मसीह की शिक्षाओं पर ही चलते हैं।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने की प्रो. एस.के. जॉर्ज की सराहना
प्रो. एस.के. जॉर्ज की ऐसी बातों से प्रभावित हो कर ऑक्सफ़ोर्ड से 1939 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (5 सितम्बर, 1888 - 17 अप्रैल, 1975) ने लिखा था,‘‘प्रो. एस.के. जॉर्ज भारत के ऐसे मसीही लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी संख्या अब नित्य बढ़ती जा रही है और जो आधुनिक भारतीय जीवन के आन्दोलनों में भाग ले रहे हैं और अपने धर्म को भारत की आध्यात्मिक विरास्त में समझने लगे हैं।’’ यहां वर्णनीय है कि डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के दार्शनिक एवं राजनेता थे, जो 152 से लेकर 1962 तक भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति तथा फिर 1962 से लेकर 1967 तक देश के दूसरे राष्ट्रपति रहे थे।
बग़ावती स्टैण्ड के कारण प्रो. एस.के. जॉर्ज को अलग-थलग कर दिया था अंग्रेज़ शासकों ने
इस प्रकार प्रो. एस.के. जॉर्ज के बग़ावती स्टैण्ड के कारण मसीही समुदाय में वह अलग-थलग पड़ गए, अपितु उनकी नौकरी भी चली गई। उनका निजी जीवन में भी उस समय उथल-पुथल हुई, जब उनकी पत्नी को अपने दो छोटे बच्चों के साथ जाकर अपने मायके में रहना पड़ा और श्री जॉर्ज स्वयं साबरमती स्थित गांधी जी के आश्रम में आकर रहने लगे। उस समय गांधी जी जेल में थे। गांधी जी ने प्रो. एस.के. जॉर्ज को लिखे एक पत्र में कहा था,‘‘...निराशा के इस दौर में कहीं मुझे छोड़ मत जाना...।’’ तो उसके उत्तर में प्रो. एस.के. जॉर्ज ने लिखा था,‘‘मैं आपको छोड़ नहीं सकता, मैं तो मानवता को प्रकाश देने वाले फ़व्वारे से निरंतर प्रेरणा ले रहा हूँ और प्रमाशु शक्तियों के युग का यह संसार इस समय हिंसा के पथ पर आगे बढ़ता जा रहा है...।’’
सुपुत्री के देहांत पर गांधी जी शोक प्रकट करने पहुंचे केरल में प्रो. एस.के. जार्ज के घर
इस बीच प्रो. एस.के. जॉर्ज की सुपुत्री का निधन हो गया और उनहें तब अपनी अत्यंत दु‘खी पत्नी मेरी जॉर्ज को सांत्वना देने के लिए उन्हें केरल स्थित अपने ससुराल जाना पड़ा। तभी गांधी जी त्रावनकोर मन्दिर में दाख़िले के समारोहों की अध्यक्षता करने के लिए त्रिवेन्द्रम पहुंचे थे। उन समारोहों से निपट कर गांधी जी तब विशेष तौर पर श्रीमति मेरी जॉर्ज का हालचाल जानने व उनकी सुपुत्री के निधन पर शोक प्रकट करने के लिए उनके घर पहुंचे थे।
प्रो. एस.के. जॉर्ज लिखीं विलक्ष्ण पुस्तकें
इस प्रकार प्रो. एस.के. जॉर्ज ने अपने जीवन में काफ़ी संघर्ष किए। चर्च के नियंत्रण में चलने वाले अनेक संस्थानों ने उन्हें उनके स्वतंत्र धार्मिक विचारों के कारण कभी नौकरी पर नहीं रखा। 1942 में प्रो. जॉर्ज ने ‘लाईफ़ एण्ड टीचिंग्ज़ ऑफ़ जीसस क्राईस्ट’ (यीशु मसीह का जीवन एवं शिक्षाएं) लिखी। उस पुस्तक की समीक्षा करते हुए सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने लिखा थाः ‘‘मैंने यीशु के बारे में बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं हैं, परन्तु इस पुस्तक से मैं जितना यीशु मसीह के बारे में जान पाया हूँ, उतना और किसी से भी नहीं जान पाया था।’’ सर सी.पी. रामास्वामी तब त्रावनकोर के दीवान (मुख्य मंत्री) थे।
प्रो. एस.के. जॉर्ज की पत्नी रहीं केरल में कस्तूरबा ट्रस्ट की प्रतिनिधि
गांधी जी ने श्रीमति मेरी जॉर्ज को केरल में कस्तूरबा ट्रस्ट की प्रतिनिधि नियुक्त किया था, जिस ने 1946 में अपना कार्य प्रारंभ किया था। तब इस ट्रस्ट का कार्य जॉर्ज परिवार के घर व ज़मीन पर से ही चलता था। श्रीमति जॉर्ज ने इस ट्रस्ट के लिए आठ वर्ष तक कार्य किया था।
1947 से लेकर 1950 तक प्रो. जॉर्ज शांति-निकेतन स्थित विश्व भारती में रहे। वहां पर वह ‘साइनो-इण्डियन जरनल’ के संपादक तथा उनके कॉलेज में अंग्रेज़ी भाषा के प्रोफ़ैसर थे। फिर क्रिस्चियन एण्ड वैस्टर्न स्ट्डीज़ हेतु सी.एफ़ एण्ड्रयूज़ मैमोरियल हॉल के वह अध्यक्ष भी रहे।
बहुत से लेख लिखे प्रो. एस.के. जॉर्ज ने
भारत के मसीही स्वतंत्रता सेनानी प्रो. एस.के. जॉर्ज (स्रामपिकल कुरुविला जॉर्ज) ने इस दौरान बहुत से लेख लिखे। 26 जून, 1949 को उन्होंने ‘इलस्ट्रेट्ड वीकली ऑफ़ इण्डिया’ में एक लेख लिखा था - ‘‘कैन वी इवॉल्व ए बेसिक रिलिजन?’’ (‘क्या हम केवल एक बुनियादी धर्म को विकसित कर सकते हैं’); जिसमें उन्होंने यह विचार-विमर्श किया था कि कैसे विभिन्न धर्म पहले परस्पर सामुदायिक भाईचारा कायम करके रखने में असफ़ल रहे थे। प्रो. जॉर्ज ने सुझाव दिया था कि महात्मा गांधी द्वारा दी गई ‘सत्य को ही परमेश्वर’ मानने की परिभाषा पर ध्यान देने की आवश्यकता है तथा गांधी जी की इस बात को भी क्रियान्वित करने पर बल दिया था कि धर्म को व्यक्ति की प्रत्येक गतिविधि का पासार करना चाहिए तथा बुनियादी धर्म किन्हीं भी प्रकार की बन्दिशों एवं विरोध से मुक्त होना चाहिए।
प्रख्यात राजनीतिवान, स्वतंत्रता सेनानी, वकील व लेखक श्री चक्रवर्ती राजागोपालाचारी ने की थी प्रो. एस.के. जॉर्ज के विचारों की प्रोढ़ता
भारत के अंतिम गवर्नर-जनरल तथा भारतीय के प्रख्यात राजनीतिवान, स्वतंत्रता सेनानी, वकील व लेखक श्री चक्रवर्ती राजागोपालाचारी (10 दिसम्बर, 1878 - 25 दिसम्बर, 1972) ने प्रो. एस.के. जॉर्ज का यह लेख पढ़ कर शिमला से 30 जून, 1949 को उन्हें प्रेमपूर्वक एक पत्र लिखा था... ‘‘मैंने भी सत्य पर आधारित एक बुनियादी धर्म संबंधी विचार किया है। ऐसा कुछ होना चाहिए। परस्पर प्यार को अवश्य ही सत्य के साथ जोड़ा जाना चाहिए... मसीहियत की अमीरी व शक्ति समाप्त हो जाएगी, यदि हम यीशु मसीह के जीवन, प्यार एवं दया-भावना को त्याग देंगे...।’’
वर्द्धा (महाराष्ट्र) के जी.एस. कॉलेज में बने अंग्रेज़ी विषय के प्रोफ़ैसर
1950 में प्रो. एस.के. जॉर्ज ने श्रीमन नारायण के निमंत्रण पर वर्द्धा (महाराष्ट्र) में गांधीवादी गतिविधियों के केन्द्र जी.एस. कॉलेज में अंग्रेज़ी विषय का प्रोफ़ैसर बनना स्वीकार कर लिया था। 1951 में प्रो. एस.के. जॉर्ज ने एक पुस्तक लिखी थी ‘दि स्टोरी ऑफ़ दि बाईबल’, जिसकी भूमिका राजकुमारी अमृत कौर ने लिखी थी।
मध्य प्रदेश सरकार ने दिया था प्रो. एस.के. जॉर्ज के पक्ष में स्पष्टीकरण
1954 में मध्य प्रदेश सरकार ने मसीही मिशनरियों की गतिविधियों की जांच संबंधी एक समिति नियुक्त की थी। न्यायमूर्ति एन.बी. न्योगी उसके अध्यक्ष थे और उसके पांच सदस्य थे। प्रो. जॉर्ज भी उनमें एकमात्र मसीही सदस्य थे। तब लोगों के एक वर्ग ने उस समिति तथा विशेषतया प्रो. जॉर्ज का ज़ोरदार विरोध किया था। सरकार को इस संबंधी स्पष्टीकरण देने पड़े थे। सरकार द्वारा जारी एक प्रैस विज्ञप्ति में कहा गया था कि ‘‘जहां तक श्री एस.के. जार्ज का संबंध है, वह एक सच्चे मसीही तथा राष्ट्रवादी हैं तथा इण्डियन-सीरियन क्रिस्चियन चर्च से संबंधित है तथा वह एक जाने-माने शिक्षा-शास्त्री हैं तथा विगत 25 वर्षों से सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत तथा ऑक्सफ़ोर्ड में धार्मिक अध्ययन किया है तथा शांति-निकेतन में भी कार्यरत रहे हैं। मसीहियत पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं।’’ इस विज्ञप्ति में यही बताया गया था कि प्रो. जॉर्ज को इस समिति का सदस्य बनाया जाना पूर्णतया सही निर्णय है।
प्रो. एस.के. जॉर्ज ने कहा था - भारतीय आध्यात्मिकता एवं हिब्रू (यहूदी) नैतिक मूल्य मिलकर संपूर्ण विश्व को अमीर बना सकते हैं
नियोगी समिति के ग़ैर-मसीही सदस्यों का एकमत विचार यही था कि प्रो. जॉर्ज को भारत के मसीही समुदाय का नेतृत्व करना चाहिए तथा भविष्य के लिए कार्य-योजना तैयार करनी चाहिए। तब प्रो. एस.के. जॉर्ज ने कहा था: ‘‘आज एक भारतीय चाहे वह उच्च जाति से संबंधित है, चाहे वह आदिवासी है, हिन्दु या मसीही है, यदि उसके दिल में प्यार एवं अपनी मातृ-भूमि के प्रति सच्ची निष्ठा नहीं है, तो उसे अकलमन्द नहीं माना जाएगा, अपितु वह राष्ट्र का द्रोही होगा। ऐसा नहीं है कि पश्चिमी देशों में मसीहियत कोई हिब्रूवाद, यहूदी विरास्त तथा यूनानी-रोमन संस्कृति के सम्मिश्रण से नहीं बनी है। भारतीय आध्यात्मिकता एवं हिब्रू (यहूदी) नैतिक मूल्य मिलकर संपूर्ण विश्व को अमीर बना सकते हैं। भारतीय मसीहियत सचमुच भारतीय है तथा सच्ची मसीही है और उसे विश्व की मसीहियत का नेतृत्व करना चाहिए। यदि पश्चिमी देशों के मिशनरी अपने विशिष्ट प्रशिक्षण व अन्दरूनी योग्यताओं के साथ भारत में सेवा करने के इच्छुक हैं तथा अपनी-अपनी मिशनों की संख्या बढ़ाने का उनका उद्देश्य नहीं है, तो वह सचमुच परमेश्वर के सच्चे प्रतिनिधि होंगे तथा ईश्वर के लिए भारत का दिल जीतने के लिए अपने श्रेष्ठ कार्यों का प्रदर्शन करेंगे। ...हम चाहते हैं कि भारत में मसीहियत पूर्णतया भारतीय हो एवं सच्चे मसीही हों।’’ अक्तूबर 1956 में ‘वेदांत केसरी’ नामक पत्रिका ने प्रो. जॉर्ज की इस टिप्पणी को ‘जांच समिति की सृजनात्मक एवं दयालुतापूर्ण भावना’ बताया था।
पत्नी के देहांत के साढ़े चार माह के पश्चात् ही चल बसे थे प्रो. एस.के. जॉर्ज
प्रो. जॉर्ज को पार्किनसन्ज़ रोग (जिसमें वृद्वावस्था में पहले हाथ-पांव हिलने लग जाते हैं तथा फिर चलना-फिरना भी कठिन हो जाता है) था, इसी लिए वह कई बार स्वयं को ‘एक थका हुआ व्यक्ति’ मानते थे। उन दिनों में इस रोग को काई प्रगतिशील उपचार उपलब्ध नहीं था। उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और इसी बीच उनकी पत्नी का 19 दिसम्बर, 1959 को निधन हो गया। फिर उसके कुछ ही माह के पश्चात् 4 मई, 1960 को प्रो. एस.के. जॉर्ज भी चल बसे। तब उनकी आयु 60 वर्ष थी। मसीही समुदाय के लिए यह एक बड़ी क्षति थी। पादरी आर.आर. कीथाहन ने कहाः ‘‘जॉर्ज हम में से बहुतेरों से आगे थे। उनकी सोच बड़ी थी, वह अन्य व्यक्तियों, अन्य व्यक्तियों, अन्य विचारों व धारणाओं तक आसानी से पहुंच बना सकते थे और इसी क्षमता बहुत कम लोगों में होती है। उनमें किसी के प्रति कोई पक्षपात नहीं था ...वह सचमुच परमेश्वर को सच्चे दिल से मानने वाले व्यक्ति थे।’’
प्रो. जॉर्ज वैसे तो अत्यंत विनम्र थे परन्तु जब सिद्धांतों की बात आती थी, तो चट्टान की तरह डट जाया करते थे।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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