भारत में आधुनिक कृषि सुधारक डॉ. सैम हिगिनबौटम
उत्तर प्रदेश के प्रमुख कृषि विश्वविद्यालय की नींव रखी
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश की विधान सभा ने 2016 में एक राज्य-स्तरीय अधिनियम संख्या 35 पारित किया था, जिसके अंतर्गत इलाहाबाद (अब प्रयागराज) स्थित ‘सैम हिगिनबौटम युनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चर, टैक्नॉलौजी एण्ड साइंसज़’ की स्थापना की घोषणा की गई थी। दरअसल यह 1910 से स्थापित एक कृषि संस्थान था, जिसे 2016 में विश्वविद्यालय (युनिवर्सिटी) का कानूनी दर्जा दिया गया था, वैसे यह संस्थान वर्ष 2009 से एक स्वतंत्र विश्वविद्यालय के तौर पर कार्यरत रहा है। वैसे इसे 31 अगस्त, 1994 से डीम्ड युनीवर्सिटी का दर्जा भी प्राप्त था।
डॉ. सैम हिगिनबौटम का मानचैस्टर (इंग्लैण्ड) में हुआ जन्म
अब सब के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आख़िर इन सैम हिगिनबौटम की क्या पृष्ठभूमि व भूमिका थी। सैम हिगिनबौटम का जन्म 27 अक्तूबर, 1874 को इंग्लैण्ड के मानचैस्टर में हुआ था। बचपन में पारिवारिक निर्धनता के कारण उन्हें बहुत से काम करने पड़े, जैसे उन्हें कभी एक कसाई का सहायक बनना पड़ा, कभी टैक्सी ड्राईवर बने व कभी दूध वितरण करने वाले दोधी बने। 1894 से 1899 तक उन्होंने मासाशुसैट्स (अमेरिका) के माऊँट हरमन स्कूल से शिक्षा ग्रहण की। फिर अमेरिका के ही एमहर्स्ट कॉलेज व पिंसटन युनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा ग्रहण की।
भारत में दिल से की सेवा
इंग्लैण्ड के प्रैसबाईटिरियन चर्च की ओर से हैनरी फारमैन की सिफारिश पर डॉ0 सैमुएल (सैम) हिगिनबौटम को ख़ास तौर पर भारत में मसीही प्रचार हेतु भेजा गया था। परन्तु उसके बाद वह भारत के सामाजिक व सांसकृतिक ताने-बाने में इतने गहरे चले गए कि भारत में ही दश्कों तक दिल से सेवा की। प्रचार उनके लिए उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रहा, उन्होंने देश की कृषि को बिना किसी की प्रेरणा के स्वयं एक वैज्ञानिक व आधुनिक रूप देने में बड़ी भूमिका निभाई।
1903 में वह भारत आए। वर्ष 1909 तक उन्होंने इलाहाबाद क्रिस्चियन कॉलेज (अब यह ईविंग क्रिस्चिियन कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध है) में इक्नौमिक्स व साइंस विषय पढ़ाए। वर्ष 1904 में उन्होने क्लीवलैण्ड (ओहाईयो, अमेरिका) की ईथलिण्ड कोडी से विवाह रचाया। इस जोड़ी के पांच बच्चे हुए। 1909 में वह अमेरिका लौट गए तथा तीन वर्ष लगातार ओहाईयो युनिवर्सिटी में कृषि विषय का गहन गंभीर अध्ययन किया। तब वह इलाहाबाद लौटे तथा ‘कृषि की वैज्ञानिक विधियां’ विषय पढ़ाने लगे।
गांधी व नेहरु के रहे परम-मित्र
भारत में डॉ0 सैम हिगिनबौटम के परम मित्रों में महात्मा गांधी व जवाहरलाल नेहरु जैसी शख़्सियतें सम्मिलित रहीं। वह 1945 में फ़्लोरिडा में सेवा-निवृत्त हुए। उनका निधन 11 जून, 1958 को फ़्लोरिडा के फ्ऱौस्टप्रूफ़ में अपनी पुत्री चार्ल्स कोट्स के निवास पर हुआ था।
युनिवर्सिटी की वैबसाईट के अनुसार डॉ. सैम हिगिनबौटम ने इलाहाबाद के कृषि संस्थान को तो ग़ैर-विधिवत् रूप से तो 1910 में चालू कर दिया था। तब यह मसीही चर्च का एक संस्थान था। डॉ. हिगिनबौटम ने भारत में आकर सबसे पहले उत्तर भारत की स्थानीय भाषा सीखी। फिर स्थानीय उप-भाषा व शैली को अपनाया। ऐसा करते हुए वह इलाहाबाद के बहुत से लोगों व गांवों के जानकार हो गए थे।
डॉ0 सैम हिगिनबौटम ने भारत के देहाती जीवन को सुधारा, कुष्ट रोगियों की सेवा की
उन्होंने गांवों के रहन-सहन को देखा व परखा। वह भारतियों को कृषि की प्राचीन प्रणाली पर निर्भर देख कर चिंतित हुए क्योंकि भारतियों का परिश्रम तो बहुत अधिक था परन्तु फ़सलों का उत्पादन उनकी अपेक्षाकृत बहुत कम था। डॉ0 सैम हिगिनबौटम ने देखा कि बहुत से लोग तो केवल इस कम उत्पादकता के कारण ही ग़रीब हैं। फिर उन्होंने यह भी देखा कि शहरी मसीही व देहात के आम लोगों के बीच का अन्तर काफ़ी अधिक है। तभी उन्होंने गांवों के बच्चों, युवाओं व किसानों को कृषि करने के ढंग में सुधार लाने की अनेक विधियां पढ़ाने का निर्णय लिया। उन्होंने किसानों की बहुत सी समस्याएं स्वयं जाकर प्रैक्टीकल अर्थात व्यावाहारिक ढंग से हल कीं। उन्होंने कृष्ट रोगियों के पहले से चल रहे एक होम का काम भी संभाला, जिसे इलाहाबाद चैरिटेबल ऐसोसिएशन चलाया करती थी। उस होम के पास क्योंकि धन का अभाव था, इसी लिए कुष्ट रोगियों के पास खाने के लिए भोजन नहीं होता था, पहनने के लिए वस्त्र नहीं हुआ करते थे। इसी लिए कृष्ट रोगियों को तब भिखारियों की तरह इधर से उधर मांगने जाने पड़ता था। उनमें से अधिकतर रोगियों की हाथों व पांवों की उंगलियां पूर्णतया गल-सड़ कर झड़ चुकी थीं और वे अंगहीन बन कर रह गए थे। वस्त्रों के नाम पर उनके शरीर पर बस चीथड़े ही हुआ करते थे।
ऐसे में डॉ. सैम हिगिनबौटम ने यीशु मसीह की उदाहरणें दे कर आम लोगों को समझाया कि कुष्ट रोगों के घावों की सफ़ाई कैसे करनी चाहिए। यीशु मसीह ने भी कितने ही कुष्ट रोगियों को चंगा किया था। ऐसे दिल से सेवा करने में विश्वास करते थे डॉ0 सैम। इलाहाबाद के नैनी क्षेत्र में कुष्ट रोगियों के लिए स्थापित वही अस्पताल आज भी मौजूद है।
युवाओं को सदा गांव में रह कर काम करने हेतु प्रेरित किया
डॉ. सैम हिगिनबौटम युवाओं को सदा गांवों में रह कर काम करना सिखलाया करते थे। ऐसी मूलभूत बातें ही किसी देश की नींव को मज़बूत करती हैं तथा फिर ऐसे ही युवाओं के सख़्त परिश्रम के कारण ही देश ख़ुशहाल व समृद्ध होता है। क्या ये बातें व ऐसी सेवाएं किसी सच्चे देश-भक्त अथवा महानायक से कम हैं। उन्होंने उस वक्त के स्कूलों व कालेजों में पढ़ाए जाने वाले पश्चिमी विषयों व उन देशों की नीतियों के ज्ञान को फ़िजूल बताया और ऐसे शैक्षणिक संस्थानों के प्रबन्धकों को समझााया कि विद्यार्थियों को यह सब जब तक भारतीय पृष्ठभूमि में नहीं समझाया जाएगा, तब तक यह उनकी समझ में नहीं आएगा और ऐसे ज्ञान का उन्हें कोई लाभ भी नहीं हो पाएगा। इसी लिए वह विद्यार्थियों को पहले भारतीय अर्थ-व्यवस्था व कृषि संबंधी ज्ञान अधिक दिया करते थे और उन्हें इन्हीं विषयों पर सुविज्ञता (मुहारत) भी हासिल थी। वह अपने विद्यार्थियों को लकड़ी तराशना (बढ़ईगिरी), बर्तन बनाने की कला, फ़टे-पुराने कपड़ों से बहुत सी गुड्डियां व अन्य वस्तुएं बनाना, केन की कुर्सियां बनाना इत्यादि सिखलाया करते थे, ताकि वे बच्चे अपने पैरों पर स्वयं खड़े हो सकें। यह बातें 1910 व 1925 के बीच की हैं, जब आज जैसी कोई भी सुविधायें कहीं पर उपलब्ध नहीं थीं।
बंजर भूमि को हरियाली से किया भरपूर
डॉ. सैम हिगिनबौटम ने इलाहाबाद में क्रिस्चियन कालेज के सामने यमुना नदी के पार एक स्कूल खोलने की योजना बनाई। वह क्षेत्र तब केवल लकड़ी के दो पुलों से जुड़ा होता था। 1910 में यह कृषि संस्थान (एग्रीकल्चरल इनस्टीच्यूट) की स्थापना कर दी गई थी। उसी सड़क के 120 किलोमीटर आगे रीवा की एस्टेट थी। वह क्षेत्र तब पूर्णतया वीरान व बंजर पड़ा था क्योंकि शायद उस पर कितनी सदियों से कृषि नहीं हुई थी। परन्तु डॉ. सैम हिगिनबौटम के पास तो अंतर्दृष्टि थी। उन्हें मालूम था कि गंगा, यमुना व सरस्वती जैसी भरपूर नदियों के संगम के पास की भूमि कभी बंजर नहीं हो सकती। उसी ‘बंजर’ कहलाने वाली भूमि पर उन्होंने स्थानीय निवासियों की मदद से आधुनिक ढंग से कृषि प्रारंभ कर दी। मेहनत रंग लाई और कुछ ही समय में वह सारा क्षेत्र हरियाली से लहलहा उठा। उन्होंने कृषि के बहुत से प्रशिक्षण कोर्स प्रारंभ किए। देश के दूर-दराज़ के विद्यार्थी उनके पास आने लगे और वही विधियां सीख कर अपने-अपने क्षेत्रों को हरा-भरा करने लगे।
डॉ. हिगिनबौटम का कृषि संस्थान 1943 में बना एग्रीकल्चरल इन्जियनिरिंग की डिग्री देने वाला एशिया का पहला शैक्षणिक संस्थान
वर्ष 1912 तक तो पढ़ाई अनियमित रूप से ही होती रही। फिर 1912 से लेकर 1919 तक (1914 से 1918 तक चले विश्व युद्ध के कारण भी) कुछ अनिश्चितता बनी रही। डॉ. सैम हिगिनबौटम ने वहीं पर डेयरी फ़ार्मिंग व पशु-पालन को भी विकसित किया। इन सभी का लाभ किसानों को बहुत अधिक हुआ। 1923 में इसी संस्थान में फ़ार्म मशीनरी व डेयरी फ़ार्मिंग का डिपलोमा शुरु किया गया और 1932 से कृषि की डिग्री तक की पढ़ाई प्रारंभ कर दी गई। वर्ष 1943 में इसी संस्थान ने एग्रीकल्चरल इन्जियनिरिंग भी प्रारंभ कर दी थी और इस प्रकार यह एग्रीकल्चरल इन्जियनिरिंग की डिग्री देने वाला एशिया का पहला शैक्षणिक संस्थान बन गया।
इसी कृषि संस्थान के प्रो.वॉग ही भारत में पहली बार कृषि के समय इस्तेमाल में आने वाली आधुनिक कहियां, कल्टीवेटर्स व गेहूं के थ्रैशर लेकर आए थे।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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