मसीही बने रहे हिन्दु व मुस्लिम समुदायों के बीच मज़बूत पुल, आरक्षण लेने से भी किया था इन्कार
हिन्दु-मुस्लिम एकता कायम करने की बाकायदा ड्यूटी लगी थी मसीही समुदाय की
29 दिसम्बर, 1924 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक बम्बई (अब मुंबई) में हुई थी। स्वागत समिति (रिसैप्शन कमेटी) के चेयरमैन टी. बुएल ने उस बैठक को संबोधन करते हुए कहा था कि भारत में धार्मिक सहनशीलता बहुत मज़बूत है, इस लिए यहां पर मसीही समुदाय को कोई ख़तरा नहीं है। मसीही लोग भी अपने सभी साथी नागरिकों को पूर्ण सहयोग दे सकते हैं। प्रधान जे. आर. चिताम्बर ने तब कुछ ही समय पूर्व हुए हिन्दु-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों पर खेद प्रकट करते हुए कहा था कि भारत के ईसाई भाई उन दोनों धर्मों के लोगों को आपस में मिलाने का कार्य कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय मसीही समुदाय इस मामले में पूर्ण सहयोग देगा।
स्वतंत्रता आन्दोलनों के बहुत से मसीही नायक
सुनील रुद्र, एस.के. दत्ता, के.टी. पॉल, बिश्प वी.एस. अज़रियाह, फ़ादर तीतुस, जे.सी. कुमारअप्पा, केटी थॉमस जैसे अनेक मसीही भारतीय स्वतंत्रता सेनाानियों ने अनगिनत मसीही लोगों को राष्ट्रवाद की भावना से ओत-प्रोत किया। श्री के.टी. पॉल जब ‘यंग मैन्स क्रिसिचयन ऐसोसिएशन’ (वाई.एम.सी.ए.) के महा-सचिव अर्थात जनरल सैक्रेटरी थे, तब उन्होंने मसीही समुदाय को एक सांप्रदायिक समूह बनने से बचाया। उन्होंने भारत के मसीही समुदाय के सामने समय-समय पर अपने भाषणों व लेखनों से जागरूक करते हुए बताया था कि ‘समस्त मानवता के भले हेतु व परमेश्वर का उद्देश्य परिपूर्ण करने के लिए मसीही क्लीसियाओं में राष्ट्रवाद का आना अनिवार्य है।’ श्री पॉल जैसे मसीही नेता इस तथ्य को भलीभांति जानते थे कि भारत का मसीही समुदााय सदा ब्रिटिश अर्थात अंग्रेज़ों की सुरक्षा पर निर्भर नहीं रह सकता। श्री के.टी. पॉल ने मसीही लोगों को बार-बार यह समझाया कि यदि आज उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग न लिया, तो वे सभी भारत में अलग-थलग पड़ के रह जाएंगे। चित्र विवरणः केरल के पश्चिमी तट पर थ्रिसुर ज़िले में पलायूर स्थित सेंट थॉमस साइरो-मालाबार कैथोलिक चर्च - जिसे भारत का पहला चर्च माना जाता है, क्योंकि इसे यीशु मसीह के 12 शिष्यों में से एक सन्त थॉमस (थोमा) ने स्वयं ईसवी सन 52 में सुसंस्थापित किया था। इसी लिए इसे प्रेरित-चर्च (एपौसटौलिक चर्च) भी कहते हैं। सन्त थोमा ने भारत में सात चर्च स्थापित किए थे, यह उनमें से सर्वप्रथम है। उन्होंने अन्य छः चर्च क्रैन्गनोर, कोक्कमंगलम, कोट्टाक्वू, कोल्लम, निरनम एवं चायल (नीलाकल) में स्थापित किए थे। असल व छोटा चर्च, जो स्वयं सन्त थोमा ने स्थापित किया था, का ढांचा आज भी वैसे ही बहुत श्रद्धापूर्वक संभल कर रखा गया है। 17वीं शताब्दी के दौरान पादरी फ़ींची ने इस पर एक बड़ा चर्च बनवाया था परन्तु पुराने ढांचे को ज्यों का त्यों संभाल कर रखा था। भारत के मसीही इस स्थान को पवित्र मानते हैं। देश में सांप्रदायिक एकता कायम करने में मसीही नेताओं की रही महत्त्वपूर्ण भूमिका 1901 से लेकर 1947 में भारत के स्वतंत्र होने तक भारतीय मसीही नेताओं ने कई बार देश में सांप्रदायिक एकता कायम करने के सफ़ल प्रयास किए थे। विशेषतया जब कभी मुस्लिम लीग व इण्डियन नैश्नल कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में परस्पर वैचारिक मतभेद उत्पन्न हो जाया करते थे, तो वे अनेक मसीही नेता अर्थात मसीही स्वतंत्रता सेनानी ही हुआ करते थे, जो उन के बीच सुलह-सफ़ाई करवाया करते थे। इस प्रकार मसीही समुदाय ने अनेक बार हिन्दु व मुस्लिम समुदायों के मध्य एक मज़बूत पुल का काम किया था। बहुत से मसीही नेता रहे गांधी जी के साथ सक्रिय केरल की ‘यूथ क्रिस्चियन काऊँसिल’ स्वतंत्रता संग्राम में सक्रियता से भाग ले रही थी। श्री जे.सी. कुमारअप्पा, जॉर्ज जोसेफ़ व एस.के. जॉर्ज जैसे अनेक मसीही नेता असहयोग आन्दोलन के दौरान गांधी जी के साथ रहे थे। 1932 में श्री एस.डी. दत्ता तथा श्री के.टी. पॉल तो 1930-32 के दौरान लन्दन में गोल-मेज़ कान्फ्ऱेंस में मसीही प्रतिनिधि के तौर पर भी सम्मिलित रहे थे। 1932 में गठित साझी राजनीतिक कांग्रेस में भारत के सीरियन मसीही अग्रणी नेता चुने गए थे। भारतीय मसीही समुदाय ने संवैधानिक आरक्षण लेने से किया था इन्कार 1945 में कुछ लोगों ने सुझाव दिया था कि देश में अल्प-संख्यकों (माइनौरिटीज़) की एक लीग स्थापित की जाए परन्तु मसीही नेताओं ने ऐसे लालच में फंसने से साफ़ इन्कार कर दिया। मसीही नेताओं ने तब भी बहुत बड़ी राजनीतिक परिपक्वता दिखाई थी, जब भारत का संविधान तैयार किया जा रहा था, उस समय ईसाई समुदाय के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित करने की बात चली थी परन्तु मसीही नेताओं ने देश में सांप्रदायिक एकता की ख़ातिर ऐसे विशेष-अधिकार लेने से साफ़ मना कर दिया था। तब भारत का समस्त मसीही समुदाय भी यही मानता था कि वे अपने देश के अन्य नागरिकों की तरह ही रहेंगे व उन्हें ऐसी किन्हीं विशेष सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है। उनका कहना था कि चर्च अपने स्वयं के लाभ के लिए कभी नहीं लड़ता, अपितु वह तो सदा सभी लोगों के हितों के लिए संघर्ष अवश्य कर सकता है। हम अपने ऐसे मसीही पूर्वजों को कोटि-कोटि प्रणाम करते हैं। 1950 में आरक्षण का प्रस्ताव ठुकराया था मसीही समुदाय ने देश का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ था और तब भारत एक गणराज्य बन गया था - इसी लिए प्रत्येक वर्ष हम 26 जनवरी को ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में मनाते हैं। देश का संविधान तैयार करने हेतु योग्य परामर्श देने के लिए उस समय के सभी राज्यों व क्षेत्रों तथा लगभग सभी धर्मों के प्रतिनिधियों को सम्मिलित करके 389 सदस्यों की एक ‘कॉनस्टीच्यूएन्ट असैम्बली’ बनाई गई थी। उनमें से डॉ. जौन मथाई (जो भारत के प्रथम रेल मंत्री तथा द्वितीय वित्त मंत्री भी थे), श्री जोसेफ़ अल्बान डीसूज़ा (बम्बई), टी.जे.एम. विल्सन (मद्रास), जे.जे. निकोलस रॉय (असम), ऐनी मैस्केरीन (त्रावनकोर-कोचीन) व जैसुइट पादरी जेरोम डी’सूज़ा (मद्रास) छः मसीही थे। पादरी डी’सूज़ा ने संविधान की धारा 25 का मसौदा (प्रारूप) तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। यह धारा अपने-अपने धर्म की रीतियों को मानने, उनका प्रचार करने की स्वतंत्रता देती है। उन्होंने ही यह दलील दी थी कि मसीही लोगों को देश में अल्प-संख्यकों के तौर पर कोई विशेष आरक्षण नहीं चाहिए, क्योंकि मसीही समुदाय देश में सामान्य नागरिकों की तरह ही बने रहना चाहता है और उसे कोई विशेष अधिकार नहीं चाहिएं। पहले 1930-31 में भी ठुकराया था आरक्षण का प्रस्ताव भारत में मसीही समुदाय को विशेष अधिकार अर्थात आरक्षण देने की बात तो अंग्रेज़ों के शासन के दौरान भी चली थी। 1930-31 में जब लन्दन में गोल-मेज़ कान्फ्ऱेंस का प्रथम चरण हुआ था, तो प्रोटैस्टैन्ट मसीही समुदाय के प्रतिनिधि श्री के.टी. पॉल ने भी ईसाईयों के कोई विशेष अधिकार लेने से साफ़ इन्कार कर दिया था; जबकि दक्षिण भारत के कैथोलिक समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हुए तब श्री ए.टी. पनीरसेल्वम ने मसीही समुदाय के लिए विशेष निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित करने की दलील रखी थी। परन्तु भारत गणराज्य के धर्म-निरपेक्ष चरित्र का तो आधार ही यह है कि देश का कोई धर्म नहीं है, बल्कि सभी धर्मों को एक समान आदर व सुरक्षा प्राप्त है। सेवियो एब्रियू के अनुसार 1950 में राष्ट्रपति के एक आदेश द्वारा अनुसूचित जाति के हिन्दुओं को आरक्षण प्रदान किया गया था। फिर 1956 में संविधान में संशोधन करते हुए सिक्खों को भी विशेष आरक्षण की सुविधाएं दी गईं थीं। सूसाई केस में 1 अक्तूबर, 1985 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के पश्चात् चर्च को दलित क्रिस्चियन्ज़ के लिए लड़ने हेतु ‘ऑल इण्डिया पीपल’ज़ फ़ोर्म’ का गठन किया गया था, जिसमें विभिन्न मसीही मिशनों एवं ग़ैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे; क्योंकि अनुसूचित जाति व अनुसूचित कबीलों के जो लोग मसीही धर्म को ग्रहण कर लेते थे, उन्हें अनुसूचित जाति व अनुसूचित कबीलों से बाहर माना जाता था। भारतीय चर्च ने भी ग़रीब मसीही लोगों का पूर्णतया समर्थन किया था। -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]