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उत्तर भारत के मसीही कुछ कम हुए स्वतंत्रता आन्दोलनों में शामिल, क्यों... ?



उत्तर भारत में रहा अंग्रेज़ शासकों का कुछ अधिक दबदबा

बहुत सारे मसीही स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा अपने-अपने कार्य-काल के दौरान भारत के राष्ट्रीय आन्दोलनों में डाले गए वर्णनीय योगदान के कारण ही आज हमारा मसीही समुदाय अपने देश में सर उठा कर चलने के योग्य हो पाया है। परन्तु मसीही स्वतंत्रता संग्रामियों के लिए इन आन्दोलनों में भाग लेना इतना आसान भी नहीं था क्योंकि बहुत बार ऐसा करने पर उन्हें स्थानीय मसीही समुदायों के क्रोध व रोष का सामना भी करना पड़ता था। ऐसी स्थिति उत्तर भारत के मसीही समुदाय में अधिक थी। इसका कारण यह था कि उत्तर भारत में अंग्रेज़ शासकों का दबदबा कुछ अधिक रहा था। अधिकतर लोगों ने कुछ अंग्रेज़ प्रचारकों से प्रभावित हो कर यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण किया था और ऊपर से वे गोरे उस समय देश पर शासन कर रहे थे, इसी कारण बहुत से ग़रीब ईसाई लोग उन्हें ही अपना ‘मसीहा’ मान बैठे थे और सोचते थे कि शायद परमेश्वर उनकी अधिक सुनता है।


अंग्रेज़ शासकों की चालों को समझते थे मजबूर भारतीय, परन्तु...

1890 में एक गोरे मिशनरी डब्लयु. हारपर ने तो सार्वजनिक तौर पर भाारत के मसीही समुदाय को अपील की थी कि वे राष्ट्रीय आन्दोलनों में हिन्दुओं का साथ न दें। वे लोग विदेशी थे, ऐसा आह्वान कर सकते थे, परन्तु भारत के मसीही लोग इतने भोले व अनजान भी नहीं थे। वे अंग्रेज़ों की ऐसी चालों को भली-भांति समझते थे परन्तु उस समय की बहुत सी मजबूरियां भी तो उनके सामने दानव की तरह खड़ी हुई थीं। दक्षिण के मसीही समुदाय ने तो सरेआम अंग्रेज़ शासकों के विरुद्ध विद्रोह (बग़ावत) का बिगुल बजा दिया था।


अधिकतर मसीही स्वतंत्रता सेनानी केरल, तामिल नाडु व महाराष्ट्र राज्यों से ही रहे

Ernakulam Church चित्र विवरणः यह चित्र भारत के केरल राज्य के ज़िले एरनाकुलम के नगर एडप्पल्ली स्थित सेंट जॉर्ज फ़ोरेन चर्च का है। भारत में सब से मसीही समुदाय की सब से अधिक जनसंख्या इसी ज़िले में है। उसके बाद केरल का ही कोट्टायम ज़िला मसीही जनसंख्या के मामले में देश में दूसरे स्थान पर है। इसी राज्य के थ्रिसुर एवं थिरुवनंथापुरम का स्थान क्रमशः चौथा व पांचवां है।


इसी लिए आपने देखा होगा कि 80 प्रतिशत मसीही स्वतंत्रता सेनानी केरल, तामिल नाडु व महाराष्ट्र राज्यों से ही थे। इन राज्यों में यीशु मसीह का सुसमाचार पहली बार स्वयं यीशु मसीह के 12 में से दो शिष्यों सन्त थॉमस (जो सन्त थोमा के नाम से भी जाने जाते हैं व जिन्होंने यीशु मसीह के तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठने के पश्चात् अपनी उंगली यीशु की पसली के घाव में डाल कर अपनी तसल्ली की थी तथा जो सन 52 ई. में केरल के बन्दरगाह नगर कोडन्गलूर में आए थे और अगले 20 वर्षों तक उन्होंने केरल व तामिल नाडु के वर्तमान क्षेत्रों में अनेक लोगों को मसीही बनाया था) एवं सन्त नथानिएल (जिन्हें बार्थलम्यु भी कहा जाता है और वह महाराष्ट्र के नगर बम्बई के कल्याण क्षेत्र में पहली शताब्दी ईसवी में ही आए थे) के द्वारा आया था। भारत देश व यहां के नागरिकों को उन महापुरुषों ने यीशु मसीह के सुसमाचार व अपने उच्च विचारों से धन्य किया।


शातिर अंग्रेज़ शासकों ने उत्तर भारत के मसीही समुदाय को रखा दबा कर

हम सब जानते हैं कि भारत में यीशु मसीह का सुसमाचार सब से पहले केरल व तामिल नाडू राज्यों में आया था, इसी लिए शेष भारत के मुकाबले वहां पर मसीही भाईयों-बहनों की संख्या अधिक है। उनकी संख्या वहां पर अधिक होने के कारण स्वाभाविक रूप से देश के स्वतंत्रता संग्राम में मसीही सेनानियों का योगदान भी अधिक है।

भारत के मसीही विद्वान इतिहासकार आर्थर जे. कुमार तथा ग्रैगर आर कोलानूर अपनी पुस्तकों में ऐसे तथ्यों का वर्णन कर चुके हैं। वास्तव में कुछ शातिर किस्म के व चापलूस गोरे मिशनरी तब कुछ इस ढंग से प्रचार किया करते थे कि ‘मसीही लोग दुनियावी बातों में कभी नहीं फंसते और उन्हें ऐसी बातों से दूर ही रहना चाहिए।’ इस बात का प्रभाव आज भी उत्तर भारत के मसीही लोगों पर देखा जा सकता है। वह आज भी राजनीति की बात करने से कतराते हैं।


सिर्फ़ दुआ करने की ही सलाह देते रहे शातिर अंग्रेज़

अंग्रेज़ों के शासन के दौरान जब कभी कोई भारतीय मसीही किसी गोरे पादरी को अपनी समस्या बताता, तो आगे से उसे यही सलाह मिलती कि ‘बस आँख बन्द करके दुआ करते रहो, यीशु मसीह के आशीर्वाद से परमेश्वर भली करेंगे।’ वे लोग जानबूझ कर भोले-भाले मसीही लोगों में बाईबल में अनगिनत स्थानों लिखीं स्वयं सख़्त परिश्रम करके आगे बढ़ने व किसी पर निर्भर न रहने की शिक्षा देने वाली आयतों का ज़िक्र कभी नहीं करते थे। बाईबल की पुस्तक ‘नीति वचन’ के 14वें अध्याय में ऐसी ही एक आयत (संख्या 23) मुझे बचपन से याद है, जिसमें लिखा है कि ‘सख़्त मेहनत/परिश्रम से ही लाभ होता है, परन्तु केवल बातें करते रहने से निर्धनता ही आती है।’


भ्रम व भ्रांतियां फैला कर अंग्रेज़ करते रहे राज्य

ऐसे अंग्रेज़ प्रचारक जानबूझ कर लोगों में ऐसे भ्रम व भ्रांतियां फैला कर अपने अंग्रेज़ साथियों की हकूमत को भारत में लम्बे समय तक कायम रखना चाहते थे, जो कि बाईबल व यीशु मसीह के सिद्धांतों के सख़्त विरुद्ध है। एक सच्चा मसीही ऐसे लोगों की आज भी सख़्त निंदा ही करेगा।

और फिर उस ज़माने में बहुत से ग़रीब भारतीय मसीही परिवार अंग्रेज़ों की दया पर ही निर्भर थे, उस समय उन्हीं की कृपा से कुछ रोज़गार मिल पाता था। उस समय के अंग्रेज़ इतने चालाक थे कि जब कोई ग़ैर-ब्रिटिश मसीही प्रचारक भारत आता था, तो उससे पहले एक ऐसा ‘इकरार’ लिखवा कर उस पर उसके हस्ताक्षर ले लिए जाते थे कि ‘वे कभी राजनीति की कोई बात नहीं करंेंगे’ - जिसके कारण ऐसे मसीही प्रचारक विवश हो जाते थे परन्तु इसके बावजूद अनेक ब्रिटिश व ग़ैर-ब्रिटिश मसीही प्रचारकों ने ज़ोर-शोर से स्थानीय मसीही समुदायों को भारत के स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने हेतु प्रेरित किया था। और गुस्से में आकर दमनकारी अंग्रेज़ शासकों ने ऐसे विदेशी प्रचारकों को भारत से वापिस भेज (डीपोर्ट कर) दिया था। एच.सी. पेरुमालिल, जौन वर्गीज़, पैट्रिक जी. एवं ई.आर. हैमबाई जैसे विद्वान इतिहासकारों ने उस समय की ऐसी अनेक बातों को अपनी पुस्तकों में उजागर किया है।


उत्तर भारत के मसीही लोग भी रहे कुछ भ्रम में

इसके अतिरिक्त बहुत से मसीही लोगों, विशेषतया उत्तर भारत में, को यह भी भ्रम था कि ‘‘यदि अंग्रेज़ शासन समाप्त हो गया तो भारत में हिन्दु लोगों का राज्य आ जाएगा तथा फिर वे तो मसीही लोगों का भविष्य अन्धेरे में पड़ जाएगा। उन्हें डर था कि हिन्दु शासक उन्हें मरवा देंगे या धर्म-परिवर्तन करने हेतु विवश करेंगे।’’ फिर उस समय अधिकतर मसीही लोग अपने-अपने गांवों के ज़िमींदारों के अत्याचार भी सहते थे और उस समय के अधिकतर अमीर अन्दर से अंग्रेज़ शासकों की चापलूसी ही किया करते थे, ताकि उनके कोई कार्य न रुक सकें। मसीही श्रमिकों को ऐसे अमीरों के अत्याचार बिना मतलब सहने पड़ते थे।

ऐसे कुछ उपरोक्त महत्त्वपूर्ण कारणों से मसीही समुदाय के लोग बड़ी संख्या में भारत (विशेषतया उत्तर क्षेत्र) की स्वतंत्रता से संबंधित राष्ट्रीय आन्दोलनों में उतनी उग्रता से भाग नहीं ले सके थे, जितना कि उन्हें लेना चाहिए था।

Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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