आलोचक पहले सही ढंग से जानें भारतीय मसीहियत को
आर.एस.एस. के मुख-पत्र में माना गया कि मसीही समुदाय का भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में निरंतर योगदान था
आज विश्व हिन्दु परिषद, बजरंग दल, आर.एस.एस. अथवा भारतीय जनता पार्टी के कुछेक समर्थक मसीही समुदाय संबंधी जो भी टिप्पणियां करते हैं, वे ऐसा केवल इस लिए करते हैं क्योंकि वे अज्ञानी हैं। उन्हें मसीही लोगों की क्षमता संबंधी जानकारी ही नहीं है। आर.एस.एस. के प्रचारक व आर.एस.एस. के मुख-पत्र ‘दि ऑर्गेनाईज़र’ के नियमित कालम-नवीस एम.वी. कामथ को चाहे भारत के मसीही समुदाय से कोई हमदर्दी तो नहीं है परन्तु उन्होंने भी अपनी स्व-जीवनी में यह माना है कि भारत के स्वतंत्रता आन्दोलनों में मसीही समुदाय का योगदान निरंतर बना रहा था तथा उन्होंने सिप्रियन अल्वारेस, जोआकिम अल्वा, मार्सल ए.एम. डी’सूज़ा जैसे मसीही स्वतंत्रता संग्रामियों/सेनानियों का वर्णन भी किया है (एम्ब्रोस पिन्टो, मेन-स्ट्रीम, दिनांक 20 अगस्त, 2017)। केवल कोई अज्ञानी पुरुष ही मसीही समुदाय संबंधी कोई ग़ल्त बात कह सकता है।
अंग्रेज़ों से कोई लेना-देना नहीं मसीहियत का जैसे कि हम पहले भी कई बार यह बात स्पष्ट कर चुके हैं कि यदि कोई मसीही/ईसाई धर्म को अंग्रेज़ों के साथ जोड़ कर देखेगा, तो पहली नज़र में सभी को यही लगेगा कि शायद भारत के मसीही सदा अंग्रेज़ शासकों का पक्ष लेते रहे होंगे। परन्तु ऐसा कभी कोई प्रमाण नहीं देखा गया। भारत के ईसाईयों के लिए कभी कुछ नहीं किया अंग्रेज़ शासकों ने भारत के ईसाईयों के दूर-दृष्टिपूर्ण भविष्य के लिए अंग्रेज़ शासकों ने कभी कुछ नहीं किया। आज भारतीय मसीही जो भी हैं, अपने अकेले के दम पर हैं। ग़रीब ईसाईयों ने भला ऐसे ब्रिटिश शासकों ने भला क्या लेना था, क्योंकि वे तो भारत को केवल लूटने के लिए आए थे। यह बात अलग है कि उन्होंने यहां पर कुछ प्रमुख विकास-कार्य किए, जो भारत-वर्ष के लिए वरदान सिद्ध हुए। मसीही लोगों की अच्छाईयां देख बहुत से भारतीयों ने स्वेच्छा से ग्रहण किया यीशु मसीह को उधर अमेरिकन बैप्टिस्ट एवं वैल्श प्रैसबाईटिरियन मिशनरियों ने 19वीं शताब्दी के अन्त में उत्तर-पूर्वी भारत में जाकर सकारात्मक प्रचार किया तथा आम लोगों की ख़ूब सेवा की। उनकी अच्छाईयां देख कर लोग अपनी इच्छा से यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण करने लगे परन्तु कभी किसी पर दबाव नहीं डाला गया। विदेशी मसीही प्रचारकों ने वहां पर सड़कें व गलियां-नालियां तक साफ़ कीं। कुष्ट रोगियों के घाव धोए, जिन्हें देख कर भारत के बहु-संख्यक तथाकथित उच्च जाति के लोग नाक-भौंह सिकोड़ते थे, उन लोगों ने ऐसे समुदायों के बीच जाकर कई वर्षों तक दिन-रात सेवा की। उस सेवा का प्रभाव तो सभी पर पड़ता ही है। मदर टैरेसा व ग्राहम स्टेन्ज़ ने भी की भारत में सेवा मदर टैरेसा ने भी कलकत्ता में यही सब किया था। आस्ट्रेलियन मिशनरी ग्राहम स्टेन्ज़ भी तो यही सब कर रहे थे, जब उन्हें उड़ीसा में कुछ असहनशील हिन्दू मूलवादियों द्वारा कत्ल कर दिया गया था। इन मूलवादियों का आरोप यह था कि श्री स्टेन्ज़ ज़बरदस्ती कबाइली लोगों को ईसाई बना रहे थे। परन्तु यह तो सर्व-विदित है कि श्री स्टेन्ज़ के पास न तो कोई हथियार था और न ही धन की कोई ताकत थी; वह तो अपने बीवी बच्चों के साथ आस्ट्रेलिया से केवल मसीही प्रचार करने आए थे परन्तु जब उन्होंने उड़ीसा के क्षेत्रों में कुछ दुःखी लोगों को देखा, तो वह उनकी सेवा में जुट गए। क्योंकि मसीही धर्म यही सिखलाता है; परन्तु यह बात अन्य लोगों को इस लिए समझ में नहीं आती क्योंकि उन्होंने ऐसा अच्छा इन्सान कभी पहले देखा नहीं होता और उन्हें लगता है कि शायद इसमें उनका कुछ बहुत बड़ा आर्थिक फ़ायदा होने वाला है। जबकि 99 प्रतिशत मामलों में ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता। 99.99 प्रतिशत भारतीय चर्चों को विदेश से कोई वित्तीय सहायता नहीं आती भारत के अधिकतर बहु-संख्यक लोगों में यही ग़लत धारणा पाई जाती है कि ‘...बई भारत के चर्चों को तो विदेशों से वित्तीय सहायता आती है’; वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। भारत के सभी चर्च (कुछ उंगलियों पर गिने जा सकने वाले कुछ प्रमुख महानगरों के पांच-छः गिर्जाघरों को छोड़ कर) आत्म-निर्भर हैं, वे सभी क्लीसिया अर्थात मसीही सदस्यों द्वारा दिए जाने वाले चन्दे/दान से ही चलते हैं। अपने समय के सक्रिय कार्यकर्ता श्री राजीव दीक्षित के उच्च विचारों की मैं बहुत ज़्यादा कद्र करता हूँ परन्तु उन्हें भी यह भ्रम अर्थात वहम था कि भारत के सभी गिर्जाघरों को विदेशों से वित्तीय सहायता मिलती है। आज यदि वह जीवित होते, तो मैं अवश्य उन्हें जाकर यह वास्तविकता बताता कि ऐसा कुछ नहीं है। मैं ऐसे असंख्य पादरी साहिबान को जानता हूँ, जो विगत 50 वर्षों से चन्दे के रूप में मिलने वाले केवल दो-तीन हज़ार रुपए से अपना घर चला रहे हैं परन्तु अपने जीवन में वे जो भी कर रहे हैं, उससे वे पूर्णतया प्रसन्न हैं। उनमें से बहुतेरों के पास अपना स्वयं का कोई घर भी नहीं है (यदि किसी भाई-बहन को शक है तो उनको ऐसे लोगों से जाकर मिलवाया भी जा सकता है और वे स्वयं उनकी हालत देख सकते हैं)। अरे भई, यदि उनको कहीं विदेशों से कोई सहायता मिल रही होती, तो आज वे भी बड़े बंगलों में रह रहे होते तथा बड़ी गाड़ियों में घूम रहे होते। अल्प-संख्यक होते हुए भी वर्णनीय रहा मसीही समुदाय का स्वतंत्रता आन्दोलनों में योगदान प्रसिद्ध इतिहासकार जॉर्ज थॉमस ने कहा था कि ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में सक्रिय रहने व किसी भी प्रकार का बलिदान देने में मसीही समुदाय कभी किसी से पीछे नहीं रहा।’ यह बात पूर्णतया सत्य है, क्योंकि देश में हिन्दु बहुसंख्कों के सामने ईसाईयों की संख्या नाम-मात्र को ही थी, परन्तु फिर भी स्वतंत्रता आन्दोलनों में उनका योगदान वर्णनीय रहा - यह बात अलग है कि उनके योगदान को जानबूझ कर पीछे धकेल दिया गया। अधिकतर बहुसंख्यक इतिहासकारों ने मसीही स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को तो पूर्णतया भुला दिया और बहुसंख्यकों से संबंधित जिस किसी व्यक्ति ने अपनी उंगली भी कटवाई थी, उनका वर्णन जान-बूझ कर बढ़ा-चढ़ा के किया गया; इस तथ्य को आज कोई माने या न माने परन्तु ऐसा हुआ अवश्य है। मसीही समुदाय ने सदा सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए मांगी दुआ, परन्तु... मसीही स्वतंत्रता सेनानी सदा देश की ख़ातिर लड़े। उनका सदा यही प्रयत्न रहा कि भारत में सांप्रदायिक एकता बनी रहे, आपसी भाईचारा कायम रहे। उन्होंने सभी धर्मों व उनके सभी अनुयायियों की सलामती के लिए दुआ मांगी। परन्तु इसके विपरीत कुछेक कट्टर, मूलवादी विचारधारा के धारणी बहु-संख्यक नेताओं ने सदा केवल हिन्दु धर्म, हिन्दु संस्कृति एवं हिन्दु राष्ट्र की ही बात की। उन्होंने अपने असल दुश्मन कभी अंग्रेज़ों को नहीं, अपितु ईसाईयों व अन्य अल्पसंख्यकों को ही माना। ऐसा आज तक उनके कार्यों, उदघोषणाओं व अन्य गतिविधियों से दिखाई देता रहता है। नकारात्मक राष्ट्रवाद हावी रहा कुछ बहुसंख्यक नेताओं में ऐसे मुट्ठी भर तथाकथित राष्ट्रवादी नेताओं के ब्यान आम तौर पर समाचार-पत्रों में आते ही रहते हैं, जिनमें वे कभी भारत में सांपद्रायिक एकता की बात करते दिखाई नहीं देते, केवल अल्पसंख्यकों को किसी न किसी बहाने से (और वे बहाने 99 प्रतिशत झूठे हैं, कोई भी कभी भी हमारे पास आकर सही तथ्यों को जान सकता है) बुरा-भला ही कहते रहते हैं और इस प्रकार वे सरेआम संविधान का उल्लंघन करते हैं परन्तु किसी भी सरकार की हिम्मत नहीं अभी तक तो पड़ी कि उन्हें नकेल डाल सके या उनके विरुद्ध कभी कोई एफ़आई.आर. भी दर्ज कर सके। कभी-कभार ऐसे मामलों में यदि कोई कार्यवाही दिखावे के लिए की भी जाती है, तो उस मामले की जांच करवाने के नाम पर बाद में उस मामले को ही जानबूझ कर भुला दिया जाता है या ऐसे मामलों की फ़ाईलें ही खुर्द-बुर्द कर दी जाती हैं। इस प्रकार ऐसे तथाकथित राष्ट्रवादी वास्तव में नकारात्मक राष्ट्रवाद के धारणी हैं। जबकि उनके मुकाबले ईसाई सदा मुख्य-धारा में ही बने रहे हैं तथा वे कभी देश के संविधान का उल्लंघन करने वाली गतिविधियों में सम्मिलित नहीं रहे। आलोचकों से निवेदन - यह है वास्तविकता मैं ऐसे आलोचकों से यह निवेदन करना चाहता हूँ कि एयर-कण्डीशन्ड कमरों में महंगे सोफ़ा सैट्स पर बैठ कर केवल फोके ब्यान जारी कर देने से असलियत नहीं बदल जाया करती है, ज़रा मसीही समुदायों में जाकर देखो, उनके मनों में झांक कर देखो कि वह कितनी ग़रीबी में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं परन्तु यीशु मसीह की शिक्षाओं पर चल कर अत्यंत ख़ुश हैं और अपने देश भारत को प्यार करते हैं व उस पर मर-मिटने के लिए भी तैयार हैं। परन्तु बहुत से असर-रसूख वाले बहुसंख्यक नेता जानबूझ कर मसीही लोगों को कभी मान्यता नहीं देना चाहते क्योंकि फिर उनके पास कोई मुद्दा ही बाकी नहीं रह जाएगा और फिर वे अपनी राजनीतिक रोटियां किस ज्वलन्तशील मामले पर सेंकेंगे? एक छोटी सी उदाहरण से भारत में देश-भक्त ईसाईयों की सारी स्थिति स्पष्ट हो जाएगी और ऐसे सैंकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। कारगिल युद्ध के वीर मसीही सैनिक मोती लाल प्रधान हार गए थे दंगाईयों से चित्र विवरणः वीर मसीही सैनिक श्री मोती लाल प्रधान और (दाएं) पह पत्र जिसमें उनके भाई के हत्यारों की पहचान बताई गई थी परन्तु एक ओर सरकारी शरणार्थी शिविर का पता देख कर पुलिस अधिकारियों ने वह पत्र लेने से ही इन्कार कर दिया था अर्थात उड़ीसा पुलिस पहले कथित तौर पर दंगा पीड़ित ईसाईयों के लिए कुछ करना ही नहीं चाहती थी। 1999 में कारगिल के युद्ध के दौरान दुशमन देश पाकिस्तान की सेनाओं के दांत खट्टे करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान डालने वाले देशभक्त भारतीय मसीही सैनिक मोती लाल प्रधान वर्ष 2008 में उड़ीसा के कन्धामल ज़िले में बहु-संख्यक सांप्रदायियों व दंगाईयों के हाथों हार गए थे। उन्हें अपने परिवार सहित कई माह तक शरनाणर्थी शिविरों में रहना पड़ा था क्योंकि ‘हिन्दू मूलवादियों’ की एक भीड़ ने उनके घर जला कर तबाह कर दिए थे। तब उस क्षेत्र के गांवों के मसीही निवासियों को शरारती तत्त्वों ने यह चेतावनी भी दी थी कि वे अब पुनः हिन्दु धर्म ग्रहण करके ही अपने घरों में वापिस आ सकते हैं, अन्यथा वे अपने पुश्तैनी गांवों की ओर देखने की भी जुर्रअत न करें। हिंसा का नंगा नाच हुआ था 2008 में 244 मीडियम आर्टिलरी रैजिमैन्ट के जवान श्री मोती लाल प्रधान के एक विकलांग भाई रौशन लाल 10 वर्ष पूर्व हुए उन दंगों की भेट चढ़ कर मारे भी गए थे। वर्ष 2008 में 24 अगस्त को शरारती तत्वों की एक भीड़ ने उनके गांव गदरगांव में बड़े स्तर पर घरों को जलाया था। ये सभी बातें उड़ीसा के सरकारी रेकार्ड्स में दर्ज हैं। श्री मोती लाल असम के उल्फ़ा आतंकवादियों से भी लोहा ले चुके हैं।, बारामूला (कश्मीर) में उन्होंने लम्बे समय तक अपना सैन्य कर्तव्य निभाया था। कारगिल के युद्ध के दौरान वह दरास क्षेत्र में अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ तायनात रहे थे। सैंकड़ों मसीही मारे गए थे उड़ीसा के दंगों में 2008 में उड़ीसा में हुए ईसाई-विरोधी दंगों में, सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 100 से अधिक मसीही लोग मारे गए थे परन्तु वास्तव में यह संख्या कहीं अधिक थी क्योंकि एक लाख से अधिक लोगों को तो शरारती तत्त्वों की उग्र भीड़ के डर के कारण अपने घर छोड़ कर जंगलों में जा कर शरण लेनी पड़ी थी और बहुत से लोग तो वहीं पर भूख-प्यास से भी दम तोड़ गए थे। उनके हज़ारों घर बर्बाद कर दिए गए थे। तब 140 चर्च भी जला कर राख कर दिए गए थे। इस के अतिरिक्त एक मसीही नन (साधवी) का सामूहिक बलात्कार भी हुआ था। ऐसे होता है मसीही लोगों के साथ पक्षपात श्री मोती लाल प्रधान ने उन दिनों बताया था कि उनके भाई रविन्द्र प्रधान ने बालीगुड़ा पुलिस थाना प्रभारी को रजिस्ट्रड डाक से पत्र भी भेजा था, जिस में लिखा गया था कि उन्होंने अपने भाई रौशन लाल की हत्या होते अपनी आँखों से देखी है तथा वह इस हत्या के चश्मदीद गवाह हैं परन्तु वह पत्र बिना पढ़े वापिस भेज दिया गया था। यह पत्र लेने से ही इन्कार कर दिया था क्योंकि इस पर प्रेषक (भेजने वाले) का नाम व सरकारी शिविर का पता देख कर ही शायद ऐसा किया गया था। इसका सीधा अर्थ यही है कि उड़ीसा पुलिस उस समय बहु-संख्यकों के दबाव के कारण दंगा पीड़ित ईसाईयों के लिए कुछ करना ही नहीं चाहती थी। यह था उड़ीसा में दंगों का कारण श्री मोती लाल प्रधान का घर विश्व हिन्दु प्रीषद के नेता स्वामी लक्ष्मणनन्द सरस्वती के डेरे से केवल ढ़ाई किलोमीटर की दूरी पर स्थित था। यहां वर्णनीय है कि 23 अगस्त, 2008 को श्री सरस्वती तथा उनके चार अंग-रक्षकों की संदिग्ध माओवादियों ने हत्या कर दी थी। परन्तु वहां के कुछ संकीर्ण हितों से प्रेरित राजनीतिक नेताओं ने यह बात फैला दी थी कि इस हत्या के पीछे ईसाईयों का षड़यंत्र है, जबकि उच्च पुलिस अधिकारी तब पहले ही दिन से अत्यंत आत्म-विश्वास से यही कहते रहे थे कि श्री सरस्वती की हत्या माओवादियों ने की है। उड़ीसा के उन दंगों में मारे गए लोगों को भारत का मसीही समुदाय अब अपने ‘शहीद’ मानता है। वास्तव में भारत में समस्या यही है कि किसी विरोधी नेता को मसीहियत संबंधी सही ज्ञान तो होता नहीं, परन्तु वे आलोचना करने लगते हैं। मसीही समुदाय ने कभी खुल कर ऐसे लोगों की आलोचना भी नहीं की और केवल प्रार्थनाओं से स्वयं को ही समझा लिया। इसी लिए ऐसे अज्ञानी किस्म के नेताओं के हौसले बुलन्द होते हैं। ऐसे लोग पहले भारत में मसीहियत के योगदान को समझें और फिर बात करें। -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - 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