Tuesday, 25th December, 2018 -- A CHRISTIAN FORT PRESENTATION

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भारत के मसीही समुदाय के स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने के अनेक ऐतिहासिक प्रमाण (1914-1947



 




 


जब होने लगे मसीही चर्च व संगठनों की ओर से स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने के एकजुट आह्वान

‘ऑल इण्डिया कान्फ्ऱेंस ऑफ़ प्रोटैस्टैन्ट क्रिस्चियनज़’ का गठन 1914 में किया गया था। 1920 में इसके 7वें सत्र में यह घोषणा की गई थी - ‘‘भारतीय ईसाईयों को देश के सभी सकारात्मक राजनीतिक आन्दोलनों व अभियानों में भाग लेना चाहिए तथा ऐसी प्रत्येक बात का विरोध करना चाहिए जो इस देश व इस धरती की सरकार हेतु नुक्सानदेह है।’’ इस प्रस्ताव में रखी गई ‘देश’ की बात का उस समय बहुत अधिक महत्त्व था। तब तक 1919 का जल्लियांवाला बाग़ का सामूहिक हत्याकाण्ड (जो अंग्रेज़ शासकों की बर्बरता का शिख़र था) घटित हो चुका था। भारत के जन-साधारण में गोरे अंग्रेज़ों के प्रति घृणा भी चरम सीमा पर पहुंचती जा रही थी। ऐसी परिस्थिति में भारत का मसीही समुदाय भला क्यों पीछे रहता। इस प्रस्ताव में जहां तक ‘धरती की सरकार’ शब्दों का प्रश्न है; इस का सीधा अर्थ तो यही है कि ‘‘जब कि वर्तमान सरकार इस देश व स्थानीय निवासियों के हित में कोई निर्णय लेगी, तब तक ही उसे सहन किया जाएगा। उससे आगे नहीं।’’

प्रस्ताव की तकनीकी शब्दावली के कारण मन मसोस कर रह गई ब्रिटिश सरकार

Secular India यही कारण है कि इस प्रस्ताव में देश हित को सर्वोपरि माना गया था और सरकार से पहले ‘देश’ शब्द को रखा गया था। अर्थात इस प्रस्ताव व उद्घोषणा को अत्यंत ध्यानपूर्वक लिखा गया था कि देश की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार तब ऐसी गतिविधियों के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर पाई थी, अपितु मन मसोस कर रह गई थी। क्योंकि ‘देश व धरती’ को आगे रखने का भारत के मसीही समुदाय को पूर्ण अधिकार था और अंग्रेज़ शासक वह अधिकार कभी उनसे छीन नहीं सकते थे।


बाईबल भी है मानवीय स्वतंत्रता के पक्ष में

और फिर अनेक ब्रिटिश मसीही मिशनरियों का पूर्ण समर्थन भी तो भारतीय मसीही लोगों के साथ था और वे पूर्णतया भारत को स्वतंत्र करवाने के पक्ष में थे क्योंकि यीशु मसीह का सिद्धांत सदैव दास अथवा ग़ुलाम बना कर रखने के विरुद्ध ही रहा है; क्योंकि बाईबल के नए नियम की पुस्तक गलातियों के पांचवें अध्याय की पहली आयत में लिखा है कि ‘‘यीशु मसीह ने हमें स्वतंत्रता के लिए आज़ाद किया है। इस लिए दृढ़ बने रहो तथा पुनः कभी स्वयं को ग़ुलामी के जूए (‘योक’ अथवा किसान के हल का जूआ या पंजाली) में फंसने न दो।’’ ऐसे प्रचार व भारत-पक्षीय गोरे पादरियों व मिशनरियों के अच्छे निर्णयों के कारण ही मसीही धर्म भारत में फल-फूल पाया था। बाईबल को अच्छे ढंग से समझने वाला कोई व्यक्ति कभी इस दुनिया में कोई कुकृत्य नहीं करेगा।


यदि अंग्रेज़ शासकों ने बाईबल ढंग से पढ़ी होती, तो वे दुनिया के विभिन्न देशों में जाकर अत्याचारी कुकृत्य न करते

यदि ईस्ट इण्डिया कंपनी के व्यापारी शासकों ने कभी ‘गलातियों’ के इस पांचवें अध्याय की केवल इस पहली आयत को ही ध्यान से पढ़ा होता, तो वे कभी समस्त विश्व में जाकर लोगों पर ऐसे अत्याचार न ढाहते या उन्हें अपने ग़ुलाम न बनाते। हां, यदि वे अपनी सरकार बनाकर मानवता (इन्सानियत) की भी कोई मिसाल कायम कर पाते या लोगों के कल्याण की बातें करते, तो भी कुछ बात होती।


भूखे-नंगों व बेशर्मों की तरह झपटे ब्रिटिश शासक ‘सोने की चिड़िया’ - भारत पर

परन्तु उस समय के ब्रिटिश शासक तो सोने की चिड़िया माने जाने वाले भारत व समूह भारत वासियों पर ‘भूखे नंगों’ की तरह ऐसे झपट पड़े थे, जैसे उन्होंने कभी कुछ देखा ही न हो। बेशर्मों की तरह भारत का बेशकीमती कोहिनूर हीरा भारत से इंग्लैण्ड ले गए। भारत में पैदा होने वाले प्रत्येक कच्चे माल को वे अपने समुद्री जहाज़ों की सहायता से इंग्लैण्ड ले जाते थे, वहां पर उसका माल तैयार करके फिर उसी को भारत जैसे बड़े बाज़ार में पांच से 10 गुना अधिक दामों पर बेच कर ख़ूब माल कमाते थे।


नैश्नल क्रिस्चियन काऊँसिल ऑफ़ इण्डिया’ की घोषणा

इस दौरान बिश्प वी.एस. अज़रियाह के नेतृत्व में ‘नैश्नल क्रिस्चियन काऊँसिल ऑफ़ इण्डिया’ ने घोषणा कर दी कि ‘‘शिक्षित भारतीय मसीही लोग अपने शेष सभी देश-वासियों की राष्ट्रीय इच्छाओं का पूर्ण सम्मान करें। वर्तमान राजनीतिक गतिरोध के कारण लोगों को जो भी दुःख-दर्द पहुंच रहे हैं, भारत के मसीही लोग उनका दर्द बांटें।’’ दर्जनों मसीही संगठनों ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित सभी आन्दोलनों में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था।


वेल्ज़ के राजकुमार एडवर्ड-आठवें से नहीं मिले थे मसीही स्वतंत्रता सेनानी

28 जुलाई, 1921 को जब वेल्ज़ के राजकुमार एडवर्ड-आठवें (एडवर्ड अल्बर्ट क्रिस्चियन जॉर्ज एण्ड्रयू पैट्रिक डेविड - 23 जून 1893-28 मई 1972, 20 जनवरी 1936 से लेकर 11 दिसम्बर, 1936 तक इंग्लैण्ड व भारत के राजा भी रहे थे) इंग्लैण्ड से भारत आए थे, तो गांधी जी ने उनका बॉयकॉट किया था, क्योंकि उन दिनों देश भर असहयोग आन्दोलन चल रहा था। तब बहुत से भारतीय ईसाईयों ने राजकुमार एडवर्ड का स्वागत ही किया था परन्तु बहुत से मसीही स्वतंत्रता सेनानियों ने ऐसी किसी बात की परवाह न करते हुए अपना ध्यान पूर्णतया राष्ट्रीय आन्दोलन पर ही केन्द्रित रखा था।


1930 में बम्बई मसीही सम्मेलन ने पास किया था ‘पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव

1930 में बम्बई में भारत के ईसाईयों का एक बड़ा सम्मेलन आयोजित किया गया था, जहां वैसे तो बहुत से प्रस्ताव पारित हुए थे परन्तु वहां पर सब से पहले जो प्रस्ताव पास हुआ था, वह कुछ इस प्रकार था - ‘‘पूर्ण स्वराज।’’

दरअसल, मई 1930 में साईमन कमिशन ने भारत में संवैधानिक सुधारों संबंधी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी थी परन्तु भारत वासी उससे पूर्णतया नाख़ुश थे। रोष बढ़ता देख कर तब ब्रिटिश शासकों ने ‘राऊण्ड टेबल कान्फ्ऱेंस’ (गोल मेज़ कान्फ्ऱेंस) पर सहमति प्रकट कर दी थी। और यह कान्फ्ऱेंस कई चरणों में 1930 से लेकर 1932 तक चलती रही थी। कांग्रेस ने तो इस कान्फ्ऱेंस का बायकॉट किया था क्योंकि वैसे भी उसके अधिकतर नेता ‘असहयोग आन्दोलन’ में भाग लेने के कारण जेलों में बन्द थे। कांग्रेस की ओर से तब केवल महात्मा गांधी ने ही भाग लिया था। 5 मार्च, 1931 को तब भारत के वॉयसराय लॉर्ड इरविन व महात्मा गांधी के मध्य समझौता हो गया था (जिसे ‘गांधी-इरविन सन्धि’ के नाम से अधिक जाना जाता है) परन्तु गोल-मेज़ कान्फ्ऱेंस 1932 तक भी चलती रही थी, क्योंकि भारत में संवैधानिक सुधारों संबंधी अनेक मदों पर बातचीत करनी बाकी थी।

1930 में बंगाल की इण्डियन क्रिस्चियन ऐसोसिएशन ने कार्यकारिणी समिति की बैठक में बाकायदा एक प्रस्ताव पारित करके स्वतंत्रता संग्राम को समर्थन देने के संकल्प को दृढ़ किया था। मुंबई के मसीही समुदाय ने भी राष्ट्रीय इच्छाओं के अनुरूप ही स्वतंत्रता संग्राम के प्रति पूर्ण हमदर्दी की घोषणा कर दी थी। उस समय के साप्ताहिक अख़बार ‘‘दि इण्डियन सोशल रिफ़ार्मर’’ ने असहयोग आन्दोलन की रिपोर्ट करते हुए लिखा था कि भारत का मसीही समुदाय पूर्णतया ‘संपूर्ण स्वराज’ चाहता है और उसका यही मानना है कि अहिंसक नमक सत्याग्रह से यीशु मसीह की शिक्षाओं का बिल्कुल भी कोई उल्लंघन नहीं होता, अपितु इससे महान नैतिक जीत प्राप्त की जा सकती है।


1931 में मसीही समुदाय ने ब्रिटिश शासकों से कहा था कि भारतियों को बिना देरी दी जाएं सभी राजनीतिक शक्तियां व ज़िम्मेदारियां

1931 में जब अभी महात्मा गांधी उसी ऐतिहासिक गोल-मेज़ कान्फ्ऱेंस की तैयारियां कर रहे थे, तब भारत के मसीही समुदाय ने एकजुट होकर एक ज्ञापन दिया था, जिसमें उन्होंने ‘स्वराज’ की अपनी परिभाषा भी दी थी - ‘‘हम तहे दिल से राष्ट्रीय मांग का समर्थन करते हैं कि वास्तविक राजनीतिक शक्ति व ज़िम्मेदारी हर हालत में बिना किसी देरी के भारतीयों को हस्तांत्रित की जाए और इंग्लैण्ड के लोगों की भारत के लोगों पर कोई शर्त कदापि न रखी जाए। हम स्वतंत्रता का पूर्ण समर्थन करते हैं, निर्देश देने का पूर्ण अप्रतिबंधित अधिकार होना चाहिए, हम अपने आर्थिक एवं राजनीतिक मामलों का प्रबंध स्वयं करने/देखने के इच्छुक हैं। तथापि, हम संपूर्ण गुणवत्ता की मदों पर आधारित भारत व इंग्लैण्ड के सहयोग का स्वागत भी करेंगे परन्तु ऐसा करते हुए हम कभी अपने प्रभुसत्ता संपन्न अधिकारों का हनन नहीं होने देंगे।’’


‘नैश्नल क्रिस्चियन काऊँसिल ऑफ़़ इण्डिया’ का 1944 का ब्यान

‘नैश्नल क्रिस्चियन काऊँसिल ऑफ़़ इण्डिया’ (एन.सी.सी.आई. - भारतीय मसीही राष्ट्रीय परिषद) ने 1944 में, जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने जा रहा था, उस समय की परिस्थितियों व चर्च व तत्कालीन सरकार संबंधी यह ब्यान जारी किया था - ‘‘मसीही ज़मीर (अंतर-आत्मा) के आधार पर बात करें, तो इस समय भारत में जिस सरकार का शासन है, उसके देश के नागरिकों के साथ संबंध किसी भी तरह मसीही मापदण्डों पर के अनुसार संतोषजनक नहीं हैं; तथा अब समय आ गया है कि जब ये संबंध मूलतः परिवर्तित होने चाहिएं। मसीही अंतरात्मा साम्राज्यवाद की निंदा करती है तथा इस पर पूर्णतया सहमति बन चुकी है कि अब भारत में इसका अन्त होना ही चाहिए।’’


लखनऊ क्रिस्चियन कॉलेज व ऐसोसिएशन व पूना क्रिस्चियन एसोसिएशन

लखनऊ क्रिस्चियन कॉलेज व ऐसोसिएशन की स्थापना 1862 में हुई थी तथा पूना क्रिस्चियन एसोसिएशन का गठन भी 19वीं शताब्दी के अंतिम दश्क में ही हुआ था। ये दोनों संगठन उस समय के मसीही समुदाय की समस्याओं का समाधान उचित संसाधनों द्वारा ढूंढने हेतु स्थापित किए गए थे। तब ये दोनों मसीही संगठन धर्म संबंधी पश्चिमी/पाश्चात्य सिद्धांतों को बिल्कुल भी ठीक व उचित नहीं समझते थे। उन्होंने मसीही धर्म को भारतीय संस्कृति के परिपेक्ष्य में रह कर समझा और उसे उसी प्रकार से क्रियान्वित भी किया।


पश्चिमी चर्च से अलग विशुद्ध भारतीय चर्च की स्थापना

1878 में स्थापित ‘बंगाल क्रिस्चियन ऐसोसिएशन’ ने देश के राष्ट्रीय आन्दोलनों में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इस ऐसोसिएशन ने पश्चिमी चर्च से अलग अपने स्वतंत्र भारतीय चर्च की स्थापना के लिए भारत के मसीही समुदाय को जागृत किया था। श्री कृष्ण मोहन बैनर्जी इस मसीही संस्था के पहले अध्यक्ष थे। 1887 मे के.सी. बैनर्जी एवं शोम ने ‘कैलकटा क्रिस्टो समाज’ (कलकत्ता मसीही समाज) की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य ‘ब्रह्मो समाज’ के मुकाबले मसीही धर्म का प्रचार करना व समस्त भारत के मसीही लोगों को एकजुट करना था। 1886 में ‘नैश्नल चर्च ऑफ़ मद्रास’ की स्थापना भारतीय मैडिकल डॉक्टर एस. परानी ऐण्डी ने की थी। 1892 में ‘लखनऊ क्रिस्चियन ऐसोसिएशन’ तथा ‘पूना क्रिस्चियन ऐसोसिएशन ’ का गठन हुआ था। ये मसीही संगठन मुख्यतः मसीही समाज की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का समाधान वैध ढंग से करने हेतु गठित हुए थे। ये सभी संगठन मसीही मिशनरियों एवं उनके पश्चिमी सिद्धांतों के विरुद्ध थे। इन्हीं मसीही संगठनों ने भारत के मसीही समुदाय को देश के स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने हेतु प्रेरित किया था।


‘यंग मैन्न’ज़ क्रिस्चियन ऐसोसिएशन’ (वाई.एम.सी.ए.) अपनी पत्रिका ‘यंग मैन ऑफ़ इण्डिया’ के माध्यम से प्रकट करती थी राजनीतिक विचार

‘यंग मैन्न’ज़ क्रिस्चियन ऐसोसिएशन’ (वाई.एम.सी.ए.) का गठन भारत के विभिन्न भागों में मसीही मिशनरियों की पहलकदमियों द्वारा हुआ था। कलकत्ता में इस युवा मसीही संगठन की स्थापना 1857 में, बम्बई में 1875 में, बोत्रीविली में 1873 में हुई थी। जब 21 फ़रवरी, 1891 को राष्ट्रीय (नैश्नल) वाई.एम.सी.ए. की स्थापना मद्रास (वर्तमान चेन्नई, तामिल नाडू) डेविड मैकनौई के प्रयत्नों द्वारा हुई थी, तो उस समय देश में कुल 35 वाई.एम.सी.ए. सक्रिय थीं और उनके 1,896 सदस्य थे। सर्वश्री वी.एस. अज़रियाह, के.टी. पॉल एवं एस.के.दत्ता इस युवा मसीही संगठनन के प्रमख नेता थे। यह संगठन वैसे तो राजनीति में सीधे तौर पर कभी शामिल नहीं हो सकता था क्योंकि इसे उस समय इसका काम विदेशी दान-राशियों से चलता था; परन्तु इसकी पत्रिका ‘यंग मैन ऑफ़ इण्डिया’ का प्रयोग प्रायः राजनीतिक विचार प्रकट करने के लिए किया जाता था तथा उसी के माध्यम से भारत के मसीही लोगों को भारत के स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने के लिए जागरूक व प्रेरित व किया जाता था।


राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत थीं विभिन्न मसीही संस्थायें

1908 में मद्रास में भी एक ‘क्रिस्टो समाज’ की स्थापना हुई थी, उसका उद्देश्य भी यीशु मसीह का सुसमाचार प्रसारित करने के साथ-साथ देश व चर्च में परस्पर तालमेल कायम करना था। पी. चेनिचयाह, वी. चक्काराय, एस.के. जॉर्ज, पी.ए. थांगासामी इसके कुछ प्रमुख मसीही नेता थे। स्टूडैन्ट क्रिस्चियन मूवमैन्ट एक अन्य प्रमुख संस्था थी, जिसकी प्रथम अखिल भारतीय कान्फ्ऱेंस श्री जौन आर. मौट्ट के नेतृत्व में 1912 में सीरामपुर कॉलेज में हुई थी। 1920 में स्टूडैन्ट क्रिस्चियन ऐसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया तथा सीलोन की स्थापना की गई थी तथा 1935 में यह एस.सी.ए. ऑफ़ इण्डिया, बर्मा, एवं सीलोन बन गई थी। 1935 में इसे इसका नाम बदल कर स्टूडैन्ट क्रिस्चियन मूवमैन्ट ऑफ़ इण्डिया, बर्मा एवं सीलोन रख दिया गया था। इस संस्था ने भी मसीही विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भावना भरी थी।


कुछेक को छोड़ कर अधिकतर मसीही मिशनरी थे कांग्रेस की अंग्रेज़-विरोधी नीति के समर्थक

1888 में बंगलौर में मसीही मिशनरियों की एक कान्फ्ऱेंस हुई थी, जहां पर श्री टी.ई. स्लेटर ने इण्डियन नैश्नल कांग्रेस के प्रति मिश्नरियों का स्टैण्ड स्पष्ट करते हुए कहा था,‘‘कांग्रेस के राजनीतिक उद्देश्यों के इलावा यदि बात करें तो यह पार्टी एक अनमोल नैतिक व सामाजिक शिक्षक की तरह है तथा इसका स्वागत किया जाना चाहिए तथा प्रत्येक मसीही मिशनरी को इसका समर्थन करना चाहिए।’’ वैसे कुछ मिशनरी राष्ट्रीय राजनीति के विरुद्ध भी थे, इसी लिए उन्होंने भारत के मसीही समुदाय को अनुरोध किया था कि वे कांग्रेस में शामिल न हों। विलियम हार्पर ने 1890 में लिखा था,‘‘मसीही समुदाय द्वारा कांग्रेस का साथ देना तो सूझबूझ वाला व सही निर्णय है परन्तु पादरी साहिबान को इस में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेना चाहिए। राजनीति से मसीही धार्मिक अगुवाओं का कोई संबंध नहीं हुआ करता।’’ परन्तु इसके बावजूद बहुसंख्या में मिशनरियों का रवैया कांग्रेस के प्रति सकारात्मक ही रहा था तथा उन्होंने भारत के मसीही भाईयों-बहनों को सदा इसमें भाग लेने हेतु उत्साहित ही किया था। टी.ई. स्लेटर, सी.पी. ऐण्ड्रयूज़ तथा ई. ग्रीवज़ जैसे कुछ प्रमुख भारतीय मसीही मिशनरी तो कांग्रेस के सत्रों में भाग भी लेते रहे थे।


कांग्रेस के प्रत्येक सत्र में भाग लेते रहे मसीही प्रतिनिधि

फिर 1900 से लेकर 1910 के बीच कांग्रेसी सत्रों में मसीही डैलीगेट्स की संख्या बहुत कम रही थी। इतिहासकार जी.ए. ऑडी के अनुसार उन 10 वर्षों में इन सत्रों में मसीही डैलीगेट्स की संख्या कभी छः से अधिक नहीं हो पाई थी, परन्तु ऐसा कभी कोई सत्र नहीं रहा कि जिसमें किसी भी मसीही सदस्य ने भाग न लिया हो।


व्यक्ति मसीही धर्म को अपना कर और भी अधिक देश-भक्त बन जाता है, यही दर्शाये सच्चा मसीहीः सी.एफ़ इण्ड्रयूज़

उधर जब तक कांग्रेस पार्टी ने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के अपने उद्देश्य को जग-ज़ाहिर नहीं किया था, तब तक तो अधिकतर मसीही मिशनरी इस के साथ रहे परन्तु ऐसी घोषणा किए जाने के पश्चात् उनमें से बहुत से पीछे हट गए। कांग्रेस के प्रति इन मिशनरियों का रवैया पूर्णतया परिवर्तित हो गया था और वे मसीही क्लीसियाओं व संगतियों को कांग्रेस से दूर रहने की सलाह भी देने लगे। परन्तु सी.एफ़ इण्ड्रयूज़ जैसे ब्रिटिश मसीही मिशनरी कभी पीछे नहीं हटे। उन्होंने भारतीय मसीही समुदाय को सदा स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े रहने की ही सलाह दिया करते थे। उन्होंने बार-बार लिखा व कहा,‘‘भारतीय मसीही समुदाय को कभी राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेने के महान सुअवसर गंवाने नहीं चाहिएं। वे अन्य जाति के अपने साथी भारत-वासियों को सदा यही दिखाएं कि यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता मान कर व मसीही धर्म ग्रहण कर के वे भारत में अलग-थलग नहीं पड़ गए हैं, अपितु उन्हें भारतवर्ष के समक्ष यह भी दर्शाना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति मसीही धर्म को अपना कर और भी अधिक देश-भक्त बन जाता है।’’ मसीही नेता श्री के.टी. पॉल ने भी 1909 में कहा था कि भारत के ईसाईयों को स्वयं को अलग रखने की नीति नहीं अपनानी चाहिए, अपितु राष्ट्रीय आन्दोलनों में सक्रियतापूर्वक भाग लेना चाहिए।


1914 में ए.आई.सी.टी.सी. ने संभाली थी मसीही समुदाय की राजनीतिक बागडोर

‘ऑल इण्डिया कान्फ्ऱेंस ऑफ़ इण्डियन क्रिस्चियन’ (प्रोटैस्टैन्ट्स), जिसे ए.आई.सी.टी.सी. के नाम से अधिक जाना जाता रहा है, की स्थापना कलकत्ता में 1914 में हुई थी तथा भारतीय मसीही समुदाय की राजनीतिक बागडोर इस ने संभाल ली थी। इस की राष्ट्रीय स्तर की बैठक प्रत्येक वर्ष दिसम्बर माह में भारत के विभिन्न शहरों में हुआ करती थी। भारत के मसीही नेता उन बैठकों में राजनीतिक मुद्दों पर विचार-विमर्श किया करते थे और इसी कान्फ्ऱेंस के द्वारा ही भारत के मसीही समुदाय के राजनीतिक विचार व दृष्टिकोण प्रकट किया करते थे। मसीही इतिहासकारों लाल छुआनलियाना व अतुला इमसौंग के अनुसार 1920 के दौरान कलकत्ता में इस राष्ट्रीय संगठन के 7वें सत्र में घोषित किया गया था,‘‘भारतीय मसीही समुदाय को देश के सभी सार्थक आन्दोलनों में भाग लेना चाहिए तथा ऐसी सभी बातों का विरोध करना चाहिए, जो इस देश व इस भूमि की सरकार को क्षति पहुंचाने वाली हों।’’


‘नैश्नल क्रिस्चियन काऊँसिल ऑफ़ इण्डिया’ ने कभी नहीं दी पश्चिमी चर्च के सिद्धांतों को मान्यता

इससे पूर्व दिसम्बर 1912 में जौन आर. मौट्ट के नेतृत्व में ऑल इण्डिया मिशनरी कान्फ्ऱेंस का आयोजन किया गया था तथा उसमें ‘नैश्नल मिशनरी काऊँसिल ऑफ़ इण्डिया’ की स्थापना करने का निर्णय लिया गया था परन्तु वह 1914 में जाकर स्थापित हो पाई थी। 1923 में इसका नाम बदल कर ‘नैश्नल क्रिस्चियन काऊँसिल ऑफ़ इण्डिया’ (एन.सी.सी.आई.) रख दिया गया था। इस ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान देश भर में विशेष प्रार्थना सभाएं करने के आह्वान किए थे। 1941 में इसी की बागडोर डॉ. जे.ज़ैड्ड हौज से हस्तांत्रित हो कर डॉ. आर.बी. मनीकाम के पास चली गई थी। इस राष्ट्रीय मसीही संगठन ने राष्ट्रवादी आन्दोलनों के प्रति पूर्णतया सकारात्मक रवैया रखा था। जनवरी 1944 में बिश्प वी.एस. अज़रियाह के नेतृत्व में एन.सी.सी.आई द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया था,‘‘शिक्षित भारतीय ईसाई अपने सभी देश-वासियों की राष्ट्रीय इच्छाएं साझी करते हुए वर्तमान राजनीतिक गतिरोध द्वारा उत्पन्न हुई निराशा से दुःखी हैं।’’ इस प्रकार इन सभी संगठनों ने जहां भारत के मसीही समुदाय में राष्ट्रीय जागरूकता लाने के प्रयास किए, वहीं इन्होंने भारतीय चर्च की एक अलग पहचान बनाने व उसकी स्वायत्ता कायम करने के अथक प्रयास किए। कुल मिला कर इन्होंने पश्चिमी चर्च के सिद्धांतों को कभी मान्यता नहीं दी।

मसीही समुदाय ने किया था ‘पूर्ण स्वराज’ का समर्थन

इन सब बातों के बावजूद स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेज़ शासकों के प्रभाव के कारण भारत के ईसाईयों पर प्रायः ये आरोप भी लगते रहे थे कि ‘मसीही मुख्य राष्ट्रीय धारा से टूट कर ही रहते हैं और एक क्रिस्चियन का अर्थ है ‘ग़ैर-भारतीय (नॉन-इण्डियन)।’’ इसी लिए 1923 में एक प्रमुख मसीही नेता श्री एस.सी. मुखर्जी ने लिखा था,,‘‘प्रत्येक मसीही का तत्काल यह कर्तव्य होना चाहिए कि वे देश के अन्य धर्मों के लोगों के मनों से यह बात निकाल दें कि भारत का मसीही समुदाय राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-थलग ही रहता है।’’ भारतीय मसीही समुदाय की चाहे राष्ट्रीयता की भावना से सदा हमदर्दी बनी रही थी परन्तु उस ने सदा संवैधानिक कार्य-विधियों को ही अपनाने को प्राथमिकता दी। इसी लिए जब गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया था, तो दिसम्बर 1921 में लाहौर में ऑल इण्डिया कान्फ्ऱेंस ऑफ़ इण्डियन क्रिस्चियन्ज़ ने असहयोग आन्दोलन के नेताओं के पक्ष में तो प्रस्ताव पारित किया था परन्तु साथ में भारत की ब्रिटिश सरकार का भी टेढ़े ढंग से समर्थन कर दिया था। परन्तु बाद में राष्ट्रीय मसीही नेताओं ने राष्ट्रीय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान भारत के लिए ‘पूर्ण स्वराज’ का ज़ोरदार समर्थन किया था और यह बात भी मसीही समुदाय के समक्ष स्पष्ट कर दी थी कि ऐसे आन्दोलनों में भाग लेने से यीशु मसीह की शिक्षाओं व मसीही धर्म के सिद्धांतों का कोई उल्लंघन नहीं होता।


स्वतंत्रता सेनानियों की ग्रिफ़्तारियों का विरोध करती रही ‘नैश्नल काऊँसिल ऑफ़ चर्चेज़ इन इण्डिया’

1940 के दश्क में, ‘नैश्नल काऊँसिल ऑफ़ चर्चेज़ इन इण्डिया’ (एन.सी.सी.आई.) का नेतृत्व अंग्रेज़ पादरी साहिबान से भारतीय मूल के ईसाईयों के हाथों में आ गया था। 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में जब अंग्रेज़ शासकों ने गांधी जी व अन्य कांग्रेसी नेताओं को ग्रिफ़्तार कर के जेलों में डाल दिया था, तो भारत के मसीही समुदाय ने भी इस का ज़ोरदार विरोध किया था। मद्रास क्रिस्चियन काऊँसिल, तिन्नेवेली (तामिल नाडू राज्य में) के चर्च नेताओं, बंगलौर स्थित थ्योलोजिकल स्टूडैंट्स (मसीही धार्मिक विद्यार्थी), कलकत्ता के कई पादरी साहिबान व देश के और भी बहुत से मसीही संगठनों ने कांग्रेसी नेताओं की इन ग्रिफ़्तारियों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित किए थे तथा भारत की अंग्रेज़ शासकों से तत्काल स्वतंत्रता मांगी थी। 1944 में एन.सी.सी.आई. ने द्वितीय विश्व युद्ध के अन्त के समय में चर्च व सरकार संबंधी अपने एक ब्यान में कहा था,‘‘सरकार एवं भारत के नागरिकों के मध्य संबंध किसी भी तरह मसीही मापदण्डों को संतुष्ट नहीं करते तथा यह स्पष्ट है कि अब समय आ गया है कि जब ऐसे संबंधों को मूल रूप में परिवर्तित किया जाना चाहिए। मसीही समुदाय साम्राज्यवाद की निंदा करता है तथा इस बात पर पूर्ण सहमति है कि अब भारत में इस साम्राज्य का अंत हो जाना चाहिए।’’


कांग्रेस की तामिल नाडू कान्फ्ऱेंस में किया गया था भारतीय मसीही समुदाय की देश-भक्ति की भावना को सलाम

इण्डियन नैश्नल कांग्रेस के नेताओं ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने वाले मसीही नेताओं व कार्यकर्ताओं की भागीदारी को मान्यता देना व उनकी सराहना करना भी प्रारंभ कर दिया था। इण्डियन नैशनल कांग्रेस ने चेंगलपेट में तामिल नाडू प्रान्तीय कान्फ्ऱेंस के 41वें सत्र में एक प्रस्ताव पारित किया था; जिसमें भारतीय मसीही समुदाय की देश-भक्ति की भावना को सलाम करते हुए उन्हें बधाई दी गई थी। उस कान्फ्ऱेंस के अध्यक्ष ने स्वयं वह प्रस्ताव प्रस्तुत किया था और वह सर्वसम्मति से पारित किया गया था।


गांधी जी का सदा साथ दिया मसीही समुदाय ने

इस प्रकार हमने देखा कि स्वतंत्रता आन्दोलनों के अधिकतर समय मसीही समुदाय पूर्णतया अन्य भारतीयों के साथ खड़ा रहा है। केवल कुछ समय ही कुछ मुट्ठी भर विदेशी मसीही मिशनरियों व चापलूस प्रकार के कुछ भारतीय नागरिकों के कारण इन आन्दोलनों अधिक सक्रिय नहीं रह पाए परन्तु ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि भारत के सभी मसीही लोग ही राष्ट्रवाद से पीछे हट गए हों। हां, कुछ थोड़े से समय के लिए ही उनकी सक्रियता कुछ कम हो गई थी और उन दिनों कुछ कम संख्या में मसीही लोग राष्ट्रवाद की बात किया करते थे। परन्तु 1910 के बाद ऐसी स्थिति समाप्त हो गई थी। गांधी जी के भारतीय राजनीति में आने के बाद तो फिर मसीही नेताओं ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

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