सैंकड़ों गोरे पादरी साहिबान ने ब्रिटिश शासकों को की थी भारत को स्वतंत्र करने की अपील
1857 की क्रांति के बाद समस्त भारतीयों में बढ़ी राष्ट्रवाद की भावना
1857 की बग़ावत (ग़दर या क्रांति) के बाद भारत के नागरिकों में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ने लगी थी। वह भावना सभी नागरिकों में समान रूप से धड़क व भड़क रही थी; उसमें किसी धर्म-विशेष की कोई बात पैदा होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अन्य लोगों व समुदायों की तरह मसीही समुदाय भी एकसमान रूप से स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लिया करता था। परन्तु मसीही भाईयों-बहनों की संख्या तो अब भी भारत में बहुत कम है और तब भी कम थी, इसी कारणवश उनका अधिक नोटिस किसी ने लिया ही नहीं। हम यह मान कर चलते हैं कि कुछ धर्म-निरपेक्ष इतिहासकारों व विद्वानों को तो सचमुच मसीही समुदाय की गतिविधियों संबंधी कोई जानकारी नहीं मिल पाई, क्योंकि उन दिनों में प्रचार व संचार के साधन इतने विकसित नहीं थे। परन्तु कुछ इतिहासकारों ने जानबूझ कर भी मसीही समुदाय को नज़रअंदाज़ किया। परन्तु आज भारत के समस्त मसीही भाई-बहन गर्व से सर उठा कर चल सकते हैं। मसीही समुदाय ऐसे मसीही स्वतंत्रता सेनानियों का सदैव ऋणी रहेगा। बहुत से विदेशी मसीही नागरिक भी जुड़े भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ स्टैनले जोन्स, जे.सी. विन्सलो, वारियर, एल्विन, राल्फ रिचर्ड एफ़ ऐन्ड्रयूज़, राल्फ़ रिचर्ड कीथाहन, अर्नैस्ट फ़ॉरैस्टर-पैटन, सी.एफ़. ऐन्ड्रयूज़, पादरी विलियम पीयरसन, ए.ओ ह्यूम, विलियम केरी, डेविड हेयर तथा ऐनी बेसैंट जैसी विदेशी (विशेशतया ब्रिटिश) नागरिकों के भारत में डाले योगदान को भला कौन भुला सकता है। इन लोगों ने विदेशी होने के बावूजूद अपना सारा जीवन भारत की धरती तथा यहां के नागरिकों की सेवा में अर्पण कर दिया। भारत को आधुनिक बनाने व भारत के स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे लोगों के महान् योगदान भला मसीही समुदाय सहित समूह भारत वासी कैसे भुला सकते हैं? लालची अंग्रेज़ शासक अपने साथी गोरे मसीही प्रचारकों को समझते थे अपने रास्ते की रुकावट अंग्रेज़ शासक (जो वास्तव में लालची व्यापारी किस्म के लोग थे तथा किसी भी प्रकार से सच्चे मसीही कहलाने के योग्य नहीं थे, क्योंकि वे कभी यीशु मसीह की शिक्षाओं व उनके सिद्धांतों पर न कभी चले तथा न ही उन्होने ऐसा करने का कभी प्रयत्न ही किया) अपने ऐसे गोरे साथियों से बहुत चिढ़ते थे तथा उन्हें वे उन दिनों ‘बैड फ़ॉर बिज़नेस’ (व्यापार हेतु बुरे) की संज्ञा दिया करते थे। उन अत्याचारी गोरे शासकों का यही मानना था कि ऐसे धार्मिक व सही पथ पर चलने वाले लोग ही उनके रास्ते की बड़ी रुकावटें हैं। इसी लिए उन हाकिमों ने अपने उन ऐसे साथियों को भारत से डीपोर्ट तक करवा (निकलवा) दिया था। भारतीय मसीही स्वतंत्रता सेनानियों का साथ देने पर बहुत से विदेशी मसीही प्रचारक किए गए थे डीपोर्ट अंग्रेज़ों की गुलामी झेल रहे भारत की राजनीतिक स्थिति की गंभीरता को देखते हुए बहुत से ब्रिटिश मिशनरियों ने भी इस देश की आज़ादी का समर्थन किया था। इसी कारणवश वे इस संबंधी समय-समय पर अपने वक्तव्य दिया करते थे व मैनिफ़ैस्टो जारी किया करते थे परन्तु यह भी एक कटु सत्य था कि सभी गोरे मसीही प्रचारक भारत के मसीही स्वतंत्रता सेनानियों के पक्ष में नहीं थे। परन्तु तामिल नाडू में सक्रिय कुछ अमेरिकन मसीही प्रचारकों ने भारतीय मसीही स्वतंत्रता सेनानियों का साथ दिया था परन्तु तत्कालीन ब्रिटिश सरकार उन्हें तभी अनुशासन में रहने की चेतावनी दे देती थी। ऐसे ही एक अमेरिकी मसीही प्रचारक थे राल्फ़ रिचर्ड कीथाहन, जिन्हें उनकी मिशन ने केवल इस लिए त्याग दिया था क्योंकि वह भारतीय मसीही स्वतंत्रता सेनानियों के पक्षधर थे। इसी लिए बाद में उन्हें डीपोर्ट (ज़बरदस्ती देश से निष्कासित) कर दिया गया था। स्कॉटलैण्ड के डॉ. अर्नैस्ट फ़ारैस्टर-पैटन भी भारतीय मसीही स्वतंत्रता सेनानियों के पक्ष में थे और इसी कारण मद्रास में एक बार उन्हें पुलिस ने बहुत बुरी तरह से पीटा था। उनसे उस मार-पीट व ग्रिफ़्तारी का मुद्दा तब इंग्लैण्ड में ब्रिटिश संसद में बहुत ज़ोर-शोर से उठा था। तब राजनीतिक दबाव के कारण उनसे वह केस वापिस ले लिया गया था। ऐसे ही जी.पी. हालस्टैड एवं मौरिस बल्लांजर दो ऐसे अमेरिकन मैथोडिस्ट थे, जिन्हें 1930 के दश्क में इन्हीं कारणों के चलते भारत से निष्कासित कर दिया गया था। 1932 में निराद बिसवास, जो बाद में सीआईबीसी के असम के बिश्प नियुक्त हुए थे, ने 1932 में कलकत्ता से बाहर नमक बनाने के राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हुए थे। सांप्रदायिकता का विष फैलाते हैं भारत में कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी नेता यदि भारत में रहने वाले विशुद्ध भारतीय मसीही समुदाय को 2,000 वर्षों के अपने योगदान संबंधी विवरण आज एक स्थान पर एकत्र करने की आवश्यकता महसूस हुई है, तो उसके लिए आर.एस.एस., विश्व हिन्दु परिषद, बजरंग दल जैसे संगठनों में मौजूद कुछ अज्ञानी प्रकार के लोग (जो स्वयं को नेता कहलाते तो हैं परन्तु वास्तव में उन्हें ऐसा कहलाने का कोई अधिकार नहीं) ज़िम्मेदार हैं, जो मनमर्ज़ी से जो भी बात मन में आती है, बिना सोचे-समझे बोल देते हैं। दुःख की बात यह भी है कि ऐसे संगठनों के कर्ता-धर्ता अपने अधीनस्थ ऐसे लोगों व भारतीय समाज में सांप्रदायिकता का विष फैलााने वाले इन कुछ मुट्ठी भर अनसरों को केवल इस लिए रोकते-टोकते नहीं क्योंकि ऐसे ही बिना मतलब हो-हल्ला मचाने वाले लोगों के मतदान व समर्थन के कारण वे अपने पदों पर आसीन हुए होते हैं। हम शुक्रगुज़ार हैं ऐसे तथाकथित राष्ट्रवादी नेताओं के भी परन्तु हम ऐसे लोगों व तत्त्वों के भी शुक्रगुज़ार हैं, क्योंकि उन्होंने ही हमें भारतीय मसीही समुदाय के इतिहास में मुड़ कर देखने के लिए प्रेरित किया। इसी लिए हम उन्हें भी नमन करना चाहते हैं। हम यहां पर केवल कुछ ऐसी प्रमुख मसीही शख़्सियतों संबंधी ही चर्चा कर पाए हैं, जो अपने समय में बहुत अधिक चर्चित रहीं थीं। परन्तु अधिकतर लोग तो पीछे रह कर कार्यरत व सक्रिय रहते हैं, शायद वैसे ही चकाचौंध में आना नहीं चाहते। असंख्य मसीही कार्यकर्ताओं के विवरण नहीं मिले, जो स्वतंत्रता आन्दोलनों से जुड़े रहे ऐसे बहुत से असंख्य लोग हमसे रह भी गए हैं, जिनका वर्णन हम अपनी कुछ आर्थिक सीमाओं के कारण भी नहीं कर पाए हैं। यह विषय तो इतना विशाल व विस्तृत है कि इस एक ही विषय के कई संस्करणों की आवश्यकता पड़ेगी। ऐसे लोगों में हम श्री पौल रामासामी (जन्म 1906) व फ़िलिपोस एलेन्जिकल जौन (1903-1955) जैसे मसीही भाईयों का विशेष वर्णन करना चाहते हैं, जिनका योगदान भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बहुमूल्य था, परन्तु उन संबंधी कोई अधिक जानकारी कहीं पर भी उपलब्ध नहीं है। उनके चित्र तक शीघ्रतया नहीं मिल पाते। श्री रामासामी ने नमक सत्याग्रह में भाग लिया था। उन्होंने जब तामिल नाडू के तिरूचिरापल्ली स्थित बिश्प हर्बर कॉलेज के सामने धरना दिया था, तो उन्हें ग्रिफ़्तार कर लिया गया था व उन्हें छः माह कारावास का दण्ड दिया गया था। उन्हें तिरूचिरापल्ली एवं अलीपुरम जेलों में रखा गया था। इसी प्रकार टी.एम. वर्गीज़ एवं श्री फ़िलिपोस एलेन्जिकल जौन के योगदान को भी कोई भुला नहीं सकता। श्री जौन त्रावनकोर राज्य कांग्रेस के प्रमुख सदस्यों में से एक थे। अनेक अंग्रेज़ मसीही प्रचारकों ने भारतीय मसीही समुदाय को किया था स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने हेतु प्रेरित यदि एक ओर डब्लयु. हारपर जैसे ब्रिटिश सरकार के पिट्ठू गोरे मसीही प्रचारक थे, तो दूसरी ओर ई. स्टैनले जोन्स, जे.सी. विन्सलो, वेरियर एल्विन, टी.ई. स्लेटर, ई. ग्रीव्स, राल्फ़ रिचर्ड, सी.एफ. एण्ड्रयूज़, अर्नैस्ट फ़ॉरैस्टर, पादरी विलियम पीयरसन एवं ए.ओ. ह्यूम जैसे अंग्रेज़ मसीही प्रचारक भी थे; जिन्होंने स्वयं भारत के मसीही समुदाय को अत्यचारी ब्रिटिश शासकों से आज़ादी करने के लिए प्रेरित किया था। कुछ अंग्रेज़ों की अच्छाईयों के कारण भारत में लोगों ने अपनाया यीशु मसीह को भारत में ऐसे ही कुछ अंग्रेज़ों के कारण यीशु मसीह को बड़ी संख्या में लोगों ने दिल से अपनाया। यह गोरे प्रचारक एक बार भारत में आए, तो उन्हें यहां की धरती व यहां के लोग इतने पसन्द आए कि वे सब यहीं के हो कर रह गए। यह सब अधिकतर भारत वासियों का प्यार व ‘जियो व जीने दो’ का सिद्धांत ही था, जिसने ऐसे विदेशियों का भी अपने यहां तहे दिल से स्वागत किया। भारत का मसीही समुदाय ऐसे भारतीय लोगों को कोटि-कोटि प्रणाम करता है। उन लोगों का इतना बड़ा दिल था, तभी तो उन लोगों ने एक नए मसीही धर्म का ऐसे स्वागत किया और जिन्हें वे बातें पसन्द आईं, उन्होंने सदा के लिए उसे अपना लिया। जागरूक अंग्रेज़ प्रचारकों ने ही भारतियों को किया था कांग्रेस पार्टी की स्थापना हेतु प्रेरित इन्हीं जागरूक अंग्रेज़ मसीही प्रचारकों व कुछ अन्य ब्रिटिश नागरिकों की प्रेरणा के कारण ही 1885 में कांग्रेस पार्टी की स्थापना हो पाई थी, जिसका तब एकमात्र उद्देश्य केवल ‘स्वतंत्रता प्राप्ति’ ही था। बहुत से युवा मसीही लोग तो पहले ही अपने समयों के राष्ट्रीय आन्दोलनों में जाने के लिए बेताब हो रहे थे। ...जब 200 गोरे मसीही प्रचारकों ने एक मैनीफ़ैस्टो द्वारा अंग्रेज़ शासकों को की थी भारत को स्वतंत्र करने की अपील यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1930 में 200 ब्रिटिश (इंग्लैण्ड के) गोरे मसीही प्रचारकों ने एक मैनीफ़ैस्टो (घोषणा-पत्र) पर हस्ताक्षर कर के तत्कालीन ब्रिटेन सरकार को यह अपील की थी कि वह भारत को स्वतंत्र करने की अपील पर हमदर्दी से ग़ौर करे। उससे पहले ई. ग्रीव्स 1910 में बाकायदा कुछ प्रमुख समाचार पत्रों में यह लिख भी चुके थे कि ‘परमेश्वर को यह अच्छा लगेगा कि यदि भारत के ईसाई/मसीही लोग भी राष्ट्रीय आन्दोलनों में बढ़-चढ़ कर भाग लें।’ मसीही प्रचारकों ने भारत के गांवों व नगरों में किए क्लयाण कार्य परन्तु जो भी मसीही प्रचारक भारत आए, उन्होंने भाारतीय गांवों तथा नगरों में जाकर सेवा व कल्याण कार्य किए। कभी किसी को तलवार या बन्दूक की नोक पर धर्म-परिवर्तन करने के लिए मजबूर नहीं किया, क्योंकि यीशु मसीह तो ज़बरदस्ती करने या हिंसा के सख़्त विरुद्ध थे। उनका ऐसा सन्देश ज़बरदस्ती से कभी फैलाया ही नहीं जा सकता था और ऐसा तो केवल प्रेम-प्यार व सेवा भावना से संभव हो सकता था। मसीही सेवकों की सेवा-भावना व उनके मुख से सुबह-सुबह यीशु मसीह का सुसमाचार सुन कर लोग अपने-आप मसीही धर्म को अपनाने लगे। भारतीय मसीही नहीं भुला सकते सी.एफ़. एण्ड्रयूज़, विलियम मिलर व विलियम केरी जैसे विदेशी मसीही प्रचारकों का योगदान स्कॉटलैण्ड के गोरे मसीही प्रचारक विलियम मिलर मद्रास क्रिस्चियन कॉलेज के प्रिंसीपल भी रहे। उन्होंने कभी अपने पश्चिमी संस्कार भारतीय मसीही विद्यार्थियों पर नहीं थोपे। उन्होंने मसीहियत व इसके सिद्धांतों को सदा भारतीय संदर्भ व परिप्रेक्ष्य में रख कर ही देखना व समझना सिखलाया। भारतीय मसीही उनके ऐसे सकारात्मक योगदान को कभी भुला नहीं सकते। इसी प्रकार भारत का मसीही समुदाय सी.एफ़. एण्ड्रयूज़, स्टैनले जोन्स व विलियम केरी जैसे विदेशी मसीही प्रचारकों के योगदान को भी कैसे भुला सकता है। -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]