Tuesday, 25th December, 2018 -- A CHRISTIAN FORT PRESENTATION

Jesus Cross

जानिए वह तिथि व ईसवी सन, जिस दिन यीशु मसीह को सलीब दी गई



यीशु मसीह को 3 अप्रैल, सन 33 ईसवी को सलीब (सूली या क्रूस) पर टांगा गया था और उसी दिन चन्द्र ग्रहण भी लगा था। जानिए कि ये सब अनुमान कैसे लगाए गए?

भारत में मसीही/ईसाई धर्म तब (ईसवी सन् 52) से है, जब विश्व में ईसाई धर्मों की कोई मिशनें नहीं थीं। यीशु मसीह को सलीब पर टांगे जाने के बाद उनके 12 शिष्य समस्त विश्व की यात्राओं के लिए तथा यीशु मसीह का सुसमाचार सुनाने निकल गए थे। तब सन्त थॉमस (थोमा) भी सन् 52 में भारत आए थे। उनके बाद सन्त नथानिएल (बार्थलम्यु) भी भारत आए थे। परन्तु जब धीरे-धीरे ईसाई मिशनरियों ने प्रचार करना प्रारंभ किया, तो उनमें आपस में कई बातों व मुद्दों को लेकर मतभेद उत्पन्न होने लगे। फिर वे अपनी-अपनी सरदारियां व चौधराहट कायम करने के लिए वे निरंतर लड़ने लगे। इतना अधिक लड़े कि 2000 वर्षों के बाद आज तक यीशु मसीह की कब्र पर मसीही समुदाय का अधिकार नहीं हो पाया। वह अधिकार अब भी इस्रायल की यहूदी सरकार के पास है तथा उसकी देखभाल दो मुस्लिम भाईयों के पास है, जिनके बारे में इसी वैबसाईट पर विस्तारपूर्वक जान सकते हैं।


बहुत शीघ्र पूरे संसार में फैल गई थी 2000 वर्ष पूर्व यीशु को सलीब पर चढ़ाने की घटना की ख़बर

Jesus on Cross अब कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न भी उठता है कि आख़िर वह कौन सा सही दिन था, जब यीशु मसीह को सलीब पर टांगा गया था और वह घटना विश्व के इतिहास की अपने-आप में एक अनोखी घटना थी, और वह समाचार उन दिनों संचार के किन्हीं साधनों के बिना भी समस्त संसार में जंगल की आग की तरह फैल गया था।


शुक्रवार तो था ही, सभी विद्वान एकमत

यीशु मसीह के चार मुख्य शिष्यों मत्ती, लूका, मरकुस व यूहन्ना के सुसमाचार में सभी ने एक मत हो कर यही बताया है कि यीशु मसीह ने पासओवर (यहूदियों का एक उत्सव/त्यौहार, जो बहार अर्थात स्प्रिंग के मौसम मार्च व अप्रैल में मनाया जाता है) यहूदी सबत प्रारंभ होने से कुछ घंटे पूर्व सलीब पर अपनी जान दे दी थी (मत्ती 27ः62, 28ः1, मरकुस 15ः42, लूका 23ः54 एवं यूहन्ना 19ः31, 42)। बाईबल के नए नियम में दर्ज ऐसे तथ्यों से विद्वानों ने भी एक मत हो कर यही अनुमान लगाया था कि वह दिन अवश्य ही शुक्रवार होगा, इसी लिए दुनिया भर के मसीही यदि दिन शुक्रवार को ही ‘गुड फ्ऱाईडे’। चाहे अब तक कुछ विद्वान यीशु मसीह को सलीब पर टांगे जाने का दिन बुद्धवार भी मानते रहे हैं।


वैज्ञानिक न्यूटन ने लगाया था स्टीक अनुमान

1733 में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईसक न्यूटन (जो गणित विषय के भी बहुत बड़े विशेषज्ञ थे) ने अनुमान लगाया था कि यीशु मसीह को प्राप्त आंकड़ों व तथ्यों के आधार पर ईसवी सन् 31 व 36 के मध्य किसी समय सूली पर लटकाया गया होना चाहिए। और यदि शुक्रवार को यह दिन मानें तों 3 अप्रैल, 33 का वह दिन हो सकता है क्योंकि उस दिन शुक्रवार भी था।


अन्य विद्वान भी मानते हैं 3 अप्रैल, 33 को यीशु मसीह का सलीबी दिवस, चन्द्र ग्रहण भी लगा था उसी रात्रि

इसी प्रकार जे.के. फ़ोदरिंगम ने भी 3 अप्रैल, 33 को ही यीशु मसीह का सलीबी दिवस माना है और उन्होंने 1910 में अपने अनुसंधान के दौरान यह भी बताया था कि उस दिन चन्द्र ग्रहण भी लगा था। इसी प्रकार 1990 के दश्क में ब्रैडले ई. शेफ़र एवं जे.पी. प्रैट ने भी अपनी-अपनी विधियों के द्वारा यही दिन ‘सलीबी दिवस’ के तौर पर निकाला था। वैसे न्यूटन ने एक अन्य तिथि 23 अप्रैल, 34 भी ‘सलीबी दिवस’ के तौर पर निकाली थी, परन्तु उस दिन वास्तव में बृहस्पतिवार (वीरवार) था, परन्तु यदि उस में लीप का एक दिन और जोड़ दिया जाए, तो वह दिन भी शुक्रवार बन जाएगा जबकि वह वर्ष तो लीप का नहीं था, क्योंकि लीप के वर्ष तो 32 ई. व 36 ई. थे। इस प्रकार 3 अप्रैल, 33 का दिन ही ‘सलीबी दिवस’ माना जाना चाहिए।


यीशु के 5 अप्रैल, 33 ईसवी को पुनः जी उठने संबंधी तथ्य

यीशु मसीह के मुर्दों में से जी उठने संबंधी कुछ ऐसे तथ्य हैं, जिन पर विचार करना आवश्यक है - जो इस बात के प्रमाण हैं कि यीशु मसीह 5 अप्रैल, 33 ईसवी को पुनःजीवित हो उठे थे। यीशु मसीह के पुनः जीवित होने की सब से पहली गवाह महिलाएं थीं। पवित्र बाईबल में दर्ज बाईबल के अनुसार मरियम मगदलीनी एवं मरियम नामक एक अन्य महिला जब रविवार को भोर के समय यीशु की कब्र पर पहुंचीं, तो वहां पर मौजूद एक फ़रिश्ते ने उन्हें बताया कि वह यहां पर नहीं, अपितु पुनः जीवित हो उठे हैं। (मत्ती 28ः1, 5-6)। ऐसे कुछ तथ्य हैं, जो विश्व के सभी अनुसंधानकर्ता/खोजकार मानते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म से संबंधित हों, वे ये हैं कि -


(क). यीशु मसीह को सलीब पर टांगा गया,


(ख). यीशु मसीह के शिष्यों का यह मानना था कि यीशु जी उठे हैं, और उन्होंने स्वयं अपनी आँखों से उन्हें देखा है,


(ग). पौलूस रसूल का अचानक बदल जाना और यीशु मसीह पर पूर्णतया विश्वास करने लगना। पौलूस, जिन्हें पहले शाऊल (हिन्दी में) या थ्योफ़िलस (अंग्रेज़ी में) के नाम से जाना जाता था, तो सलीब दिए जाने से पूर्व यीशु पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते थे, परन्तु जब उन्हें स्वयं यीशु मसीह ने प्रकट हो कर बताया कि वह मुर्दों में से जी उठे हैं, तब वह उनके पक्के भक्त बन गए। शाऊल का वर्णन नए नियम की पुस्तक ‘प्रेरितों के काम’ के 9वें अध्याय में हुआ है


(घ) यीशु मसीह के अपने सगे दुनियावी भाई याकूब (अंग्रेज़ी में जेम्स) भी उन पर पहले उस प्रकार से विश्वास नहीं करते थे, जितना उनके पुनः जीवित हो उठने से करने लगे थे। नए नियम की पुस्तक ‘गलातियों’ के पहले अध्याय की 19वीं आयत में उनका वर्णन है।


(ङ), वह कब्र ख़ाली थी, जहां पर यीशु मसीह की मृत देह को 3 अप्रैल, 33 को रखा गया था।


यीशु मसीह का पुनः जीवित होने पर किया था अधिकतर लोगों ने विश्वास

ऐसे बहुत से मामलों पर गैरी हेबरमस, एन.टी. राईट एवं ब्रायन चिल्टन जैसे लाखों विद्वान अब तक ऐसी बातों पर विस्तृत विचार-चर्चा कर चुके हैं। यह भी एक तथ्य है कि प्रारंभ में जिन्होंने भी यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता मानना प्रारंभ किया था, वे सब यीशु के पुनः जीवित हो उठने से ही तो प्रभावित हुए थे। यीशु मसीह के अपने भाई का उनके पुनः जीवित हो उठने के बाद विश्वास करने लगना एवं येरूशलेम के प्रारंभिक चर्च का नेतृत्त्व संभालना इन्हीं बातों के पक्के प्रमाण हैं।


प्रारंभ में सभी ने जान जोखिम में डाल कर यीशु पर किया विश्वास

यीशु मसीह का नाम लेना भी उन दिनों में स्थानीय प्रशासन एवं उसके अधिकारियों की नज़र में पाप माना जाता था; ऐसे में कोई क्यों अपनी जान जोखिम में डाल कर यीशु मसीह पर विश्वास कर रहा था - केवल इसी लिए क्योंकि उसने यीशु के चमत्कार स्वयं देखे थे। बाईबल में वर्णन है कि स्टीफ़न (हिन्दी की बाईबल में स्तिुफ़नुस) को केवल इस लिए पत्थर मार-मार कर ख़त्म कर दिया गया था, क्योंकि वह यीशु मसीह का सुसमाचार सुना रहे थे (प्रेरितों के काम 7ः54-60) और इसी प्रकार राजा हैरोदेस ने ज़ब्दी के याकूब को कत्ल करवा दिया था (प्रेरितों के काम 12ः2)। उन प्रारंभिक दिनों में यीशु मसीह व मसीहियत के लिए ऐसी कुर्बानियां केवल वही लोग दे सकते थे, जिन्हें यीशु पर पक्का विश्वास था और उन्होंने अपनी आँखों से सब कुछ स्वयं देखा था।

फिर बप्तिसमा (बैप्टिज़्म) तो वही लेता है, जो यीशु मसीह के सलीब पर टांगे जाने, उनके कब्र में दफ़नाने एवं उनके पुनः जी उठने पर विश्वास करता है।


आखिर जान पर खेल कर भी लोग क्यों कर रहे थे यीशु मसीह पर विश्वास?

आख़िर उन दिनों जब यीशु मसीह का नाम लेना भी गुनाह माना जाता था, तो उन दिनों में कोई क्यों यीशु मसीह पर विश्वास करता और धड़ल्ले से उनके सिद्धांतों का प्रचार व पासार करता। आखिर यीशु के उन अनुयायियों को क्या दुनियावी लालच था कि वे ऐसा करते? क्या उन्हें धन या कोई संपत्ति इसके बदले में मिलने वाली थी? जी नहीं - एक सच्चा व्यक्ति ही हज़ारों-लाखों लोगों के सामने अपनी छाती ठोक कर सत्य ब्यान कर सकता है और हंसते-हंसते सत्य के लिए कुर्बान भी हो सकता है। उन दिनों यहूदी व रोमन शासक यीशु मसीह के अनुयायियों को पकड़-पकड़ उन्हें जान से मार रहे थे।

अपने जी उठने से लेकर बादलों पर बैठ कर आसमान में जाने तक 40 दिनों तक यीशु मसीह अनेक लोगों को दिखाई देते रहे थे। अनगिनत लोग उन्हें मिले थे। उन सभी ने उन्हें देखा और उन पर विश्वास किया। जिन्होंने उन्हें देखा, उनमें से केवल कुछेक नाम ही बाईबल में दर्ज हैं।

आज हम इस बात पर विश्वास क्यों करते हैं कि जॉर्ज वाशिंग्टन अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति थे - केवल इस लिए क्योंकि इतिहास इस बात का गवाह है। इसी प्रकार यीशु मसीह के जीवन, सलीब पर उनकी मृत्यु एवं उनके जी उठने से संबंधित तथ्यों का गवाह भी इतिहास है।


सन् 52 में भारत आए थे यीशु मसीह के शिष्य सन्त थॉमस

भारत में मसीही/ईसाई धर्म तब (ईसवी सन् 52) से है, जब विश्व में ईसाई धर्मों की कोई मिशनें नहीं थीं। यीशु मसीह को सलीब पर टांगे जाने के बाद उनके 12 शिष्य समस्त विश्व की यात्राओं के लिए तथा यीशु मसीह का सुसमाचार सुनाने निकल गए थे। तब सन्त थॉमस (थोमा) भी सन् 52 में भारत आए थे। उनके बाद सन्त नथानिएल (बार्थलम्यु) भी भारत आए थे।


जंगल की आग की तरह समस्त विश्व में फैला था यीशु मसीह के पुनः जीवित होने का समाचार

परन्तु जब धीरे-धीरे ईसाई मिशनरियों ने प्रचार करना प्रारंभ किया, तो उनमें आपस में कई बातों व मुद्दों को लेकर मतभेद उत्पन्न होने लगे। फिर वे अपनी-अपनी सरदारियां (वर्चस्व) व चौधराहट कायम करने के लिए निरंतर लड़ने लगे। इतना अधिक लड़े कि लगभग 2000 वर्षों के बाद आज तक यीशु मसीह की कब्र तक पर मसीही समुदाय का अधिकार नहीं हो पाया। वह अधिकार अब भी इस्रायल की यहूदी सरकार के पास है तथा उसकी देखभाल दो मुस्लिम भाईयों के पास है, जिनके बारे में हम अलग संबंधित अनुभाग में काफ़ी विस्तारपूर्वक बात कर चुके हैं। अब कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न भी उठता है कि आख़िर वह कौन सा सही दिन था, जब यीशु मसीह को सलीब पर टांगा गया था और वह घटना विश्व के इतिहास की अपने-आप में एक अनोखी घटना थी, और वह समाचार उन दिनों संचार के किन्हीं साधनों के बिना भी समस्त संसार में जंगल की आग की तरह फैल गया था।


यहूदी सबत प्रारंभ होने से कुछ घंटे पूर्व यीशु मसीह ने सलीब पर दे दी थी अपनी जान

यीशु मसीह के चार मुख्य शिष्यों मत्ती, लूका, मरकुस व यूहन्ना के सुसमाचार में सभी ने एक मत हो कर यही बताया है कि यीशु मसीह ने पासओवर (यहूदियों का एक उत्सव/यहोवा का पर्व/त्यौहार, जो बहार अर्थात स्प्रिंग के मौसम मार्च व अप्रैल में मनाया जाता है) यहूदी सबत प्रारंभ होने से कुछ घंटे पूर्व सलीब पर अपनी जान दे दी थी (मत्ती 27ः62, 28ः1, मरकुस 15ः42, लूका 23ः54 एवं यूहन्ना 19ः31, 42)। बाईबल के नए नियम में दर्ज ऐसे तथ्यों से विद्वानों ने भी एक मत हो कर यही अनुमान लगाया था कि वह दिन अवश्य ही शुक्रवार होगा, इसी लिए दुनिया भर के मसीही यदि दिन शुक्रवार को ही ‘गुड फ्ऱाईडे’। चाहे अब तक कुछ विद्वान यीशु मसीह को सलीब पर टांगे जाने का दिन बुद्धवार भी मानते रहे हैं।


यीशु मसीह के सलीबी दिवस संबंधी न्यूटन के तर्कपूर्ण तथ्य

1733 में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईसक न्यूटन (जो गणित विषय के भी बहुत बड़े विशेषज्ञ थे) ने अनुमान लगाया था कि यीशु मसीह को प्राप्त आंकड़ों व तथ्यों के आधार पर ईसवी सन् 31 व 36 के मध्य किसी समय सूली पर लटकाया गया होना चाहिए। और यदि शुक्रवार को यह दिन मानें तों 3 अप्रैल, 33 का वह दिन हो सकता है क्योंकि उस दिन शुक्रवार भी था। इसी प्रकार जे.के. फ़ोदरिंगम ने भी 3 अप्रैल, 33 को ही यीशु मसीह का सलीबी दिवस माना है और उन्होंने 1910 में अपने अनुसंधान के दौरान यह भी बताया था कि उस दिन चन्द्र ग्रहण भी लगा था। इसी प्रकार 1990 के दश्क में ब्रैडले ई. शेफ़र एवं जे.पी. प्रैट ने भी अपनी-अपनी विधियों के द्वारा यही दिन ‘सलीबी दिवस’ के तौर पर निकाला था। वैसे न्यूटन ने एक अन्य तिथि 23 अप्रैल, 34 भी ‘सलीबी दिवस’ के तौर पर निकाली थी, परन्तु उस दिन वास्तव में बृहस्पतिवार (वीरवार) था, परन्तु यदि उस में लीप का एक दिन और जोड़ दिया जाए, तो वह दिन भी शुक्रवार बन जाएगा जबकि वह वर्ष तो लीप का नहीं था, क्योंकि लीप के वर्ष तो 32 ई. व 36 ई. थे। इस प्रकार 3 अप्रैल, 33 का दिन ही ‘सलीबी दिवस’ माना जाना चाहिए।


असल तिथि को लेकर विद्यानों व विशेषज्ञों में काफ़ी मतभेद

उधर हंफ्रेज़ एवं वैडिन्गटन के अनुसंधान के अनुसार यीशु मसीह की दुनियावी मृत्यु का दिन पौन्टियस पिलेट (पिन्तुस पिलातुस) के राज्य के दौरान यहूदी माह निसान की 14 तारीख़ को होना चाहिए। उन्होंने यह तिथि यूहन्ना की इंजील में दिए गए तथ्यों के आधार पर निकाली है। उनके अनुसार ‘सलीबी दिवस’ या तो 7 अप्रैल, 30 होगा और या फिर 3 अप्रैल, 33 . उस दिन आकाश में बादल भी छाए हुए थे, जिसके कारण घनघोर अन्धेरा भी हो गया था। वैसे कुछ विद्वान यह दिन अप्रैल, 30 ईसवी सन् भी मानते हैं। परन्तु यह भी एक सत्य है कि अधिकतर विद्वान 3 अप्रैल, 33 को ही मानते हैं हमारे मुक्तिदाता यीशु मसीह का ‘सलीबी दिवस’।

Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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