यीशु मसीह कभी नहीं आए भारत, उनके दो शिष्य सन्त थॉमस व सन्त नथानियेल आए थे भारत [भारत में सन् 52 ई0 से लेकर अब तक की मसीहियत का आलोचनात्मक मूल्यांकन]
यीशु मसीह केवल अंग्रेज़ों या पश्चिमी देशों के ही नहीं, अपितु समस्त ब्राह्मण्ड के हैं
जैसा कि हम पहले भी कई बार बता चुके हैं कि हमारे भारत के नागरिकों को यह कदापि नहीं सोचना चाहिए कि मसीही/ईसाई धर्म केवल इन अंग्रेज़ों का ही है। पश्चिमी देशों व वहां की सभ्यता का हमारे उद्धारकर्ता यीशु मसीह से बिल्कुल कोई संबंध कभी रहा ही नहीं। यीशु मसीह तो एशिया के देश इस्रायल के नगर येरूशलेम में पैदा हुए थे तथा वहीं पर उनकी कब्र है और उस पर ‘चर्च ऑफ़ सैपल्कर’ सुसंस्थापित है।
सन् 52 ई0 में सन्त थोमा (थॉमस) भारत लाए थे मसीहियत का सिद्धांत
भारत में मसीही धर्म तो ई. सन् 52 में यीशु मसीह के 12 शिष्यों में से एक सेंट थॉमस (जिन्हें सन्त थोमा के नाम से भी जाना जाता है एवं जिन्होंने यीशु मसीह के सलीब पर टांगे जाने, जान देने व तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठने के बाद उन पर एक क्षण के लिए विश्वास नहीं किया था कि यीशु मसीह पुनः इस दुनिया में आ सकते हैं। इसी लिए उन्होंने यीशु मसीह की पसली के घाव में अपनी उंगली डाल कर पुष्टि की थी) के केरल स्थित नगर कोडुंगलूर में पांव रखने से ही आ गया था।
संत थॉमस के चमत्कार प्रसिद्ध हुए भारत में
इतिहासकारों क्रिस्टा एण्डर्सन एवं डॉ. वर्नाल के अनुसार संत थॉमस के केरल में आने के बहुत शीघ्र पश्चात् ही समस्त भारत में उनसे संबंधित बहुत सी कहानियां प्रचलित होने लगी थीं। कहानियों से अधिक उनसे जुड़े कुछ ‘चमत्कार’ जैसी बातें लोग काफ़ी दिलचस्पी से ब्यान किया करते थे। ऐसी ही एक बात तब प्रचलित हुई थी किः ‘‘संत थॉमस के चमत्कार देख कर ही वर्तमान तामिल नाडू के कुछ ब्राह्मणों ने यीशु मसीह को अपना मुक्तिदाता मान लिया था। तब कुछ यूं हुआ था कि गांव पलूर में कुछ ब्राह्मण पुजारी हवा में जल उछाल रहे थे। यह उनकी शुद्धिकरण की रीति व प्रार्थना थी। उन्हें देखकर संत थॉमस ने भी अपने हाथों से जल को हवा में उछाला, तो वह जल हवा में टंग गया व फूलों में बदल गया। तभी वहां मौजूद बहुत से ब्राह्मणों ने मसीहियत को अपना लिया और शेष ब्राह्मण उन्हें ऐसा करते हुए देखकर वहां से चले गए थे। इसी लिए आज भी कोई कट्टर ब्राह्मण कभी पलूर के जल से नहीं नहाता।’’
संत थॉमस से जुड़ी इन बातों के कोई लिखित प्रमाण नहीं हैं। यह बातें दक्षिण भारत में दंत-कथाओं के रूप में ही चलती रही हैं। कोई प्रमाण हो या न हो, इन बातों से उस समय की संस्कृति व रीति-रिवाजों का अवश्य पता चलता है।
भारत में विभिन्न समुदायों ने स्वागत किया था सन्त थोमा का, मसीहियत उन सभी की ऋणी
भारत के मसीही समुदाय को यह तथ्य मानना पड़ेगा कि यहां के स्थानीय हिन्दु, बौद्ध व जैनी सभी धर्मों के अनुयायियों ने तब मसीही धर्म का पूर्ण सुस्वागतम् किया था और ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत पर चलते हुए तब नव-स्थापित ईसाई/मसीही धर्म को भी फलने-फूलने का सुअवसर प्रदान किया था। अतः संपूर्ण भारतीय मसीही समुदाय यीशु मसीह के शिष्य सेंट थॉमस व मसीही धर्म का स्वागत करने वाले उन भारतीय पूर्वजों का ऋणी है व सदैव उन्हें कोटि-कोटि प्रणाम करना चाहता है। सन्त थोमा को भारतीय मसीहियत का पितामह भी माना जाता है।
यीशु मसीह के एक अन्य शिष्य नथानियेल भी आए थे भारत
संत थॉमस के कुछ ही समय के पश्चात् यीशु मसीह के एक अन्य शिष्य नथानियेल (जिन्हें बार्थलम्यु भी कहते हैं व जिन्हें एक अन्य शिष्य फ़िलिप ने यीशु मसीह से पहली बार मिलवाया था) भी भारत आए थे। नथानियेल तब मुंबई के कल्याण क्षेत्र में आए थे। कल्याण-पूर्वी में स्थित सेंट बार्थलम्यु चर्च आज भी उनकी याद दिलाता है।
‘तलवे-चाट प्रकृति’ वाले लोग कर रहे भारतीय मसीहियत के प्रति दुष्प्रचार
हमारे इस संदर्भ का तात्पर्य यह समझाने से है कि प्रारंभ से यह बात सभी जानते हैं कि पश्चिमी देशों द्वारा सामूहिक रूप से यीशु मसीह व मसीही धर्म को अपना लेने से यीशु मसीह का मूल कोई अंग्रेज़ी नहीं हो जाता। अज्ञानी प्रकार के कुछ लोग (भारत के केवल कुछ मुट्ठी भर व ऐसे तथाकथित नाथ तथा जोगी (सभी ऐसे कदापि नहीं), जो केवल दो-तीन पुस्तकें पढ़ लेने के पश्चात् स्वयं को समस्त विश्व के महान् ज्ञाता व सर्वे-सर्वा होने का भ्रम पाल लेते हैं) आज कल ऐसा मानने लगे हैं और यह केवल सोशल मीडिया में ऐसे तथाकथित संत-महात्माओं के चमचों व ‘तलवे-चाट प्रकृति’ वाले लोगों द्वारा किए जा रहे प्रचार के कारण है। परन्तु ऐसी बातों से सच्चाई कभी बदल नहीं जाती। वह विगत दो हज़ार वर्षों से सबके सामने है।
भारत में कुछ स्वार्थी किस्म के मूलवादी नेताओं ने राजनीति की अपनी दुकान को चलाए रखने के लिए देश के मसीही समुदाय को जानबूझ कर तिरस्कृत (अपमानित) करने का ठेका लिया हुआ है। इसी लिए कुछ (सभी नहीं, केवल कुछ) अल्प-बुद्धि के तथाकथित स्वामी, योगी, साधु, साधवियां इत्यादि जानबूझ कर भारत के अल्प-संख्यकों, विशेषतया मसीही भाईयों-बहनों को कभी धर्म-परिवर्तन के नाम पर तथा कभी उनका धर्म ‘विदेशी’ होने के नाम पर तथा अन्य कोई बहाना लगा कर अपमानित करते रहते हैं।
यीशु मसीह कभी नहीं आए भारत
ऐसे ही कुछ लोगों ने यह भ्रांतियां भी फैला रखी हैं कि यीशु मसीह मुर्दों में जी उठने के पश्चात् स्वयं भारत आए थे तथा यहां के किसी प्राचीन विश्वविद्यालय से भारतीय विद्या व संस्कृति संबंधी अध्य्यन किया था। ऐसा कु/दुष्प्रचार पूर्णतया ग़लत है तथा मसीही धर्म को कमज़ोर करने की बाकायदा एक साज़िश है। दो-चार प्राचीन ग्रन्थ पढ़ लेने के उपरान्त इतिहासकार बने कुछेक अफ़वाहकार कुछ ऐसा झूठा दावा भी करते हैं कि ‘यीशु मसीह की कब्र तो कश्मीर में है।’ यीशु मसीह संबंधी सभी तथ्य संपूर्ण विश्व भलीभांति जानता है, इसी लिए ऐसी बातों को कभी बल नहीं मिला और मान्यता मिलना तो बहुत दूर की बात है।
यीशु की कब्र भारतीय कश्मीर में होने का किया जाता है झूठा दावा
दरअसल, अब यह तथ्य सर्वज्ञात है कि कश्मीर के कुछ स्वार्थी लोगों ने पश्चिमी देशों के पर्यटकों (टूरिस्ट) अपनी ओर खींचने के लिए ऐसी भ्रांतियां फैला दी थीं। अब पश्चिमी देशों के पर्यटक ऐसे दुष्प्रचार पर अधपका विश्वास करके कश्मीर में उस स्थान पर आने भी लगे हैं। वास्तव में विदेशी पर्यटकों से स्थानीय लोगों को मोटी कमाई/आमदन हो जाती है और किसी न किसी प्रकार से उनका समय निकल जाता है।
अंग्रेज़ शासकों की मसीही सिद्धांतों विरुद्ध हरकतों के कारण भारत में ईसाईयत के प्रति पनपी घृणा
पहले हम ने यह भी वर्णन किया है कि अंग्रेज़ शासकों ने कभी किसी भारतीय मसीही को उच्च पद पर आसीन नहीं किया, क्योंकि वे जानते थे कि भारत में आम जनता को शांत करने व बागडोर संभालने के लिए स्थानीय बहुसंख्यकों में से अधिकतर किसी अमीर या योद्धा को ही चुना था। ऐसे नवाबों, स्थानीय शाासकों व दीवानों ने तत्कालीन अंग्रेज़ शासकों को प्रसन्न करने हेतु भारतीय लोगों पर जी भर कर अत्याचार ढाहे। अंग्रेज़ शासकों (जिन्होंने कभी यीशु मसीह की शिक्षाओं पर चलना पसन्द नहीं किया, वे ऐसा दिखावा भले ही करते रहे हों) ने भी अपने ऐसे चमचों को पूरी छूट दे रखी थी। उनकी ऐसी ग़लतियों व अन्य अत्याचारों व दमन के कारण ही बहुत से भारतीयों के मन में ईसाई धर्म के प्रति कड़वाहट बढ़ती चली गई। ऊपर से रही-सही कसर हमारे ही कुछ मसीही भाईयों ने भी ऐसे अंग्रेज़ शासकों की दासता को स्वीकार करके पूरी कर दी। अधिकतर लोग अपने समय के शक्तिशाली राजा के सामने सर झुका कर चलने वाले ही होते हैं, विद्रोह/बग़ावत करने वाले बहुत कम लोग होते हैं।
अंग्रेज़ केवल ग़ैर-मसीही लोगों के कारण कर गए 200 वर्ष भारत पर शासन
अंग्रेज़ शासकों के समक्ष सर झुका कर चलने वाले केवल मसीही लोग ही तो नहीं थे, उनसे कई हज़ार गुना संख्या अन्य जातियों के लोगों की थी, जो ऐसे शासकों के इशारों पर नाचते व भारतीयों को नचवाते थे और वास्तव में अंग्रेज़ों के 200 वर्ष के शासन को सफ़ल या असफ़ल बनाने में उन्हीं स्थानीय प्रशासकों का अधिक बड़ा हाथ था। अंग्रेज़ों की नीतियां उनके भारतीय चमचे व दीवान जैसे पदों पर आसीन ग़ैर-मसीही लोग ही लागू करवाते थे।
अंग्रेज़ शासकों की क्रूरता का सदा विरोध किया जागरूक मसीही लोगों ने
ऐसे क्रूर अंग्रेज़ शासकों का विरोध करने में भारतीय मसीही समुदाय कभी पीछे नहीं हटा और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़ कर अपना योगदान दिया। ऐसे लोगों की प्रेरणाओं के कारण ही भारत में मसीही समुदाय की संख्या नित्य बढ़ती जा रही है। इससे पूर्व मुग़ल सम्राटों अकबर व जहांगीर के समय में भी मसीही धर्म ख़ूब समृद्ध हुआ था।
यीशु मसीह की झूठी कब्र के चित्रः वैश्णव न्यूज़ नैटवर्क, फ़्लिक्र डॉट कॉम एवं ट्रिप एडवाईज़र
-- -- मेहताब-उद-दीन
-- [MEHTAB-UD-DIN]
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें
-- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]