मुग़ल सम्राट अकबर से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक भारतीय मसीहियत
द्वितीय विश्व युद्व ने इंग्लैण्ड को कर दिया था कंगाल
1940 के बाद 1947 अर्थात भारत के स्वतंत्र होने तक का कुछ समय ऐसा था, जब देश वासी आपस में बंट गए थे तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले भारतीय नागरिकों में कुछ मतभेद पैदा होने लगे थे और कुछ लोग एक पृथक देश पाकिस्तान की स्थापना की मांग करने लगे थे। वास्तव में ऐसा षड़यंत्र अंग्रेज़ शासक ही रच रहे थे। 1945 में चाहे द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था, परन्तु अन्दर की बात यह थी कि उस युद्ध में लड़ते-लड़ते इंग्लैण्ड आर्थिक तौर पर बहुत कमज़ोर हो चुका था और उसके पास इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह भारत जैसे बड़े देश में अपना शासन चलाता रह सके। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम भी था अपने शिख़र पर दूसरी ओर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम भी अपने शिख़र पर पहुंच चुका था (जिसमें अन्यों के अतिरिक्त भारतीय मसीही समुदाय पूर्णतया सक्रियतापूर्वक भाग ले रहा था, चाहे उस समय अंग्रेज़ों की ख़ुशामद करने वाले भी कुछ मसीही लोग थे। परन्तु ऐसे लोग तो बाकी के सभी धर्मों के समुदायों में भी थे क्योंकि बहुत से हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख भी तो अंग्रेज़ों के चमचे थे। किसी भी समय किसी देश के शासकों के करीब कौन नहीं होना चाहता। अंग्रेज़ों ने सदा ‘उच्च जाति’ के हिन्दुओं को ही सौंपे दीवान व नवाब के पद अंग्रेज़ों ने भारत पर अपना 200 वर्ष अपने अकेले के दम पर तो नहीं चलाया था, वे ऐसा सब स्थानीय शासकों, छोटे राजाओं, नवाबों, व सबंधित राज्यों के दीवानों की सहायता से ही कर पाए थे और उनमें से 85 प्रतिशत तो ब्राह्मण या क्षत्रिय हिन्दु थे तथा 15 प्रतिशत मुस्लिम थे। अंग्रेज़ों ने अपनी सहायता के लिए कभी किसी ईसाई या मसीही व्यक्ति को किसी राज्य के लिए अपना शासक या नवाब नियुक्त नहीं किया था। इसी लिए भी भारत के मसीही समुदाय में रोष था और वे ज़ोर-शोर से ब्रिटिश शासकों का विरोध करते थे। देश के लोग ही अधिक ढाते थे अंग्रेज़ शासकों को ख़ुश करने हेतु अपने भारतीय भाई-बहनों पर अत्याचार आम भारतीय नागरिकों पर अधिकतर अत्याचार अंग्रेज़ों द्वारा नियुक्त किए गए स्थानीय शासक ही ढाते थे क्योंकि उन्होनंे अपने गोरे आकाओं को ख़ुश जो करना होता था। भारत में मसीही समुदाय की संख्या अन्य धर्मों की अपेक्षाकृत कुछ कम थी, इसी लिए वे आम लोगों को, विशेषतया इतिहासकारों को दिखाई नहीं देते थे। कुछ इतिहासकारों ने जानबूझ कर मसीही समुदाय के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बहुमूल्य योगदान संबंधी कोई भी विवरण नहीं दिए) और ब्रिटिश हकूमत पर उसका दबाव भी बढ़ता जा रहा था। भारतीय उप-महाद्वीप पर निरंत नज़र रखने के लिए इंग्लैण्ड ने बनाया था पाकिस्तान ऐसी परिस्थितियों में शातिर अंग्रेज़ शासकों ने सोचा कि अब भारत जैसा विशाल देश अब उनके हाथों से निकलने जा रहा है और उसे एशिया में रूस के नित्य बढ़ते जा रहे प्रभाव की भी चिन्ता थी और अधिकतर भारतीय नागरिक रूस के पक्ष में ही हुआ करते थे। इसी लिए अंग्रेज़ चाहते थे कि वे एक ऐसा नया देश स्थापित कर दें, जहां पर रह कर वे इस क्षेत्र की गतिविधियों पर पूर्ण नज़र रख सकें। इसी लिए अंग्रेज़ों ने तब मोहम्मद अली जिन्नाह का पक्ष लेकर एक नए देश पाकिस्तान को स्थापित करने का तर्क समस्त भारत वासियों के समक्ष रखना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने पाकिस्तान व भारत की सरहद (सीमा) का आकलन करने हेतु एक ‘बाऊण्ड्री कमिशन’ (सीमा आयोग) स्थापित कर दिया। अंग्रेज़ों के षड़यंत्र में फंस गए थे कुछ मसीही नेता भी अंग्रेज़ राजनीतिज्ञों के इस षड़यंत्र में कुछ मसीही नेता भी फंस गए थे। दीवान बहादुर, एस.पी. सिंहा, सी.ई. गिबन एवं फ़ज़ल इलाही जैसे भारतीय मसीही नेताओं ने सीमा आयोग के समक्ष ब्यान दिए कि वे नए देश पाकिस्तान में जाकर बसना चाहते हैं। प्रमुख मसीही नेता व वकील चौधरी चौधरी चन्दू लाल ने तब पाकिस्तान-पक्षीय मसीही लोगों का मामला आयोग में रखा था। परन्तु ऐसे मसीही लोगों की संख्या बहुत कम थी। उस समय भारत में मसीही लोगों की संख्या 80 लाख थी (अब यह संख्या भारत में बढ़ कर 2 करोड़ 78 लाख हो गई है), जबकि पाकिस्तान में यह संख्या आज भी केवल 25 लाख है। मुग़ल सम्राट अकबर के दरबार में मौजूद थे कुछ मसीही लोग दिल्ली में पहली बार किसी मसीही के विद्यमान होने के प्रमाण केवल मुग़ल सम्राट अकबर के युग से ही मिलते हैं, जब 1579 में गोवा के एक जैसुइट पादरी दिल्ली पहुंचे थे। वास्तव में सम्राट अकबर ने स्वयं उन्हें मसीही धर्म संबंधी अधिक जानकारी लेने हेतु बुलाया था। आगरा में सम्राट अकबर ने मसीही क्लीसिया को दिया था चर्च का तोहफ़ा उत्तर प्रदेश के महानगर आगरा का अकबर चर्च, जिसे मुग़ल सम्राट अकबर ने 1598 में बनवाया था। यह आगरा का प्रथम कैथोलिक गिर्जाघर था। 1848 तक इसे कैथेड्रल ऑफ़ आगरा के नाम से जाना गया। इसे सम्राट अकबर के आदेश से जैसुइट पादरी साहिबान ने बनवाया था तथा यह मुग़ल सम्राट अकबर की ओर से उस समय के भारतीय समुदाय एक उपहार था। इस चर्च में मुगल सम्राट, विशेषतया बादशाह जहांगीर प्रार्थना करने आया करते थे। सम्राट अकबर ने तब इस चर्च की स्थापना हेतु बड़ी राशि मसीही समुदाय को दान-स्वरूप दी थी। इसके अतिरिक्त दो प्रमुख कैथोलिक मसीही व्यक्तियों ख्वाजा मार्टिन्स एवं मिर्ज़ा सिकन्दर-जूनियर ने भी इस चर्च के विस्तार हेतु दिल खोल कर राशि दान की थी। बादशाह जहांगीर (सलीम) के समय भारत आया इंग्लैण्ड का पहला राजदूत फिर मुग़ल राजा जहांगीर (जिसका वास्तविक नाम मिर्ज़ा नूर-उद-दीन बेग मोहम्मद ख़ान सलीम था) के समय इंग्लैण्ड के सम्राट जेम्स-प्रथम ने अपने एक राजदूत सर थॉमस रोअ को भारत भेजा था। श्री रोअ को ही भारत में इंग्लैण्ड का प्रथम राजूदत भी माना जाता है। जहांगीर ने अपने पिता सम्राट अकबर की तरह ही ईसाई धर्म के प्रति नर्म व उदार रवैया रखा था। इसी लिए उस समय के दौरान मसीही समुदाय की संख्या बढ़ने लगी थी तथा कुछ गिर्जाघर भी स्थापित किए गए थे। शाहजहां ने ढाह दिया था आगरा का चर्च, पादरी साहिबान को भी न बख़शा 1632 ई. सन् में सम्राट शाहजहान् ने पुर्तगालियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था। 1634 में पुर्तगाली हार गए थे। शाहजहां तब अपने साथ 4,000 कैदी अपने साथ आगरा लेकर आया था अैार वे सभी कैदी मसीही थे। उन पर कारावास में बहुत अत्याचार ढाहे गए। आगरा चर्च के जैसुइट पादरियों को भी उसने नहीं बख़्शा। 1635 ई. में इस शाहजहां ने इस शर्त पर उन पादरी साहिबान को छोड़ा कि वे आगरा के इस गिर्जाघर को ढाह देंगे। और फिर ऐसा ही हुआ। शाहजहां ने करवाया अकबर चर्च का पुनःनिर्माण परन्तु 1636 में सम्राट को जब अपनी ग़लती का अहसास हुआ, तो उसने पादरी साहिबान को वह चर्च पुनः बनाने के आदेश दे दिए। तब पुरानी टूटी-फूटी वस्तुओं से ही उस चर्च का पुनःनिर्माण हुआ। आठ सितम्बर, 1636 को उस पुन-स्थापित चर्च में पहली बार बहुत से लोगों ने एक विशाल प्रार्थना सभा व प्रीति भोज में भाग लिया था। फिर आगामी दो शताब्दियों के दौरान इस चर्च में पुनः बहुत अधिक परिवर्तन हुए। फिर 1758 में जब अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में भारत पर फ़ारसी आक्रमण हुआ, तो मुग़ल राज्य का पतन प्रारंभ हो गया। उस समय भी फ़ारसी सैनिकों ने आगरा के इस चर्च को बर्बाद किया। 1769 में आगरा के किले के तत्कालीन सेनापति वाल्टर रीनहार्डट ने फ़ादर वैण्डल एस.जे. को चर्च के पुनः निर्माण बहुत सहायता की। 1835 में बिशप पेज़ोनी ने सर जौन बैप्टिस्ट फ़िलोस को पश्चिम दिशा में चर्च का और विस्तार करने हेतु दिल खोल कर राशि दान की। बादशाह जहांगीर के तीन शाही राजकुमारों को दिया गया था बप्तिस्मा कुछ अध्य्ययन-रिपोर्टें तो यहां तक बताती हैं कि जहांगीर के शाही ख़ानदान के दो राजकुमारों ने भी स्वेच्छा से मसीही धर्म ग्रहण कर लिया था और वे दोनों जहांगीर के भतीजे थे। उसके बाद जहांगीर ने स्वयं अपने लिए पुर्तगाली महिलाओं की मांग भी रखी थी, जो पूर्ण न हो पाई थी। लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ईसवी सन् 1610 में इसी गिर्जाघर में तीन शाही राजकुमारों व सम्राट जहांगीर के भतीजों को बप्तिस्मा दिया गया था तथा उन्होंने स्वेच्छा से यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता माान लिया था। पादरी कोर्सी एस.जे. एवं पादरी ज़ेवियर एस.जे. ने उन्हें बप्तिस्मा दिया था व प्रार्थना की थी। इसी गिर्जाघर में बेगम जोहाना सुमरू व सरधना की बेगम को भी बप्तिस्मा दिया गया था। 1842 में इसी गिर्जाघर में फ्ऱांस के बहुत से पादरी एवं मिशनरी प्रचारक आए थे, जिनका स्वागत बिश्प बोर्ग़ी ने किया था। औरंगज़ेब के समय मसीहियत कुछ कमी फली-फूली उसके बाद औरंगज़ेब के शासन-काल में मसीही समुदाय में कमी आने लगी थी, शायद कुछ ईसाई परिवारों ने इस्लाम को अपना लिया था। सन 1723 ई. में फ़ादर डीसीदेरी ने मां मरियम को समर्पित एक चर्च की स्थापना दिल्ली में की थी, जिसे 1739 में नादिर शाह ने अपने दिल्ली आक्रमण के दौरान नष्ट कर दिया था। तब जैसुइट पादरियों को एक पुराने मकान के खण्डहर में छिप कर अपनी जान बचानी पड़ी थी। दिल्ली में मुख्यतः ब्रिटिश ही लेकर आए थे मसीहियत दिल्ली में ईसाई धर्म मुख्यतः ब्रिटिश ही ले कर आए थे। ब्रिटिश सैनिकों ने तब अपने लिए कई गिर्जाघरों का निर्माण किया था। चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड ने तब भारत में अपने कई मिशनरियों को भेजा था, ताकि यहां पर जिन्हें यीशु मसीह संबंधी कुछ जानकारी नहीं थी, उन्हें कुछ बताया जा सके। उस समय जो भारतीय मसीही बने थे, उनमें से अधिकतर तो ब्रिटिश सरकार के लिए काम किया करते थे। 1857 के भारतीय ग़दर (बग़ावत) के दौरान जो अनेक सिपाही ईस्ट इण्डिया कंपनी के प्रति वफ़ादार रहे थे, उन्हें भारतीय विद्रोहियों ने मौत के घाट उतार दिया था और उनमें से बहुत से लोग तब मसीही धर्म को मानते थे। इस प्रकार उन दिनों दिल्ली में मसीही समुदाय की संख्या कम होने लगी थी। -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]