स्वतंत्रता सेनानियों में लोकप्रिय थीं मराठी कवि नारायण वामन तिलक की कविताएं
अपनी कविताओं से हिन्दु-ईसाई एकता मज़बूत की नारायण वामन तिलक ने
प्रसिद्ध मराठी कवि श्री नारायण वामन तिलक ने अपने समय में अपनी कविताओं द्वारा हिन्दु एवं मसीही धर्मों के अनुयायियों को आपस में जोड़ने का महान् कार्य किया था। उन्होंने 1895 में यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण कर लिया था। देश के उस समय के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी उन्हीं के गीत गा कर देश में सांप्रदायिक एकता व अखंडता का प्रचार लोगों में किया करते थे। पण्डिता रमाबाई ने जो मसीही भजनों का प्रथम संपादित संग्रह प्रकाशित करवाया था, उस में उन्होंने अपने कुछ भजनों के साथ-साथ श्री तिलक के ही अधिक भजन दिए थे। तिलक पर था मराठी भक्ति लहर के संतों का बहुत अधिक प्रभाव 6 दिसम्बर, 1861 को बम्बई प्रैसीडैंसी के रत्नागिरी ज़िले के कराझगांव में पैदा हुए नारायण वामन तिलक पर मराठी भक्ति लहर के संतों का बहुत अधिक प्रभाव था। श्री तिलक के समीपस्थ नगर कल्याण में अपनी शिक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने आगामी चार वर्षों तक नासिक में मुख्यतः संस्कृत भाषा सीखी थी। 1877 से लेकर 1889 तक उन्होंने अंग्रेज़ी व विद्यालय के अन्य विषयों की पढ़ाई की। फिर उन्हें जब एक अध्यापक की नौकरी मिल गई तो उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। ‘औपचारिक रूप से अनपढ़’ पत्नी लक्ष्मीबाई ने लिखी थी स्व-जीवनी उनका विवाह 1880 में मनाकर्णिका गोखले के साथ हुआ था, विवाह के पश्चात् श्री नारायण वामन तिलक ने उन्हें लक्ष्मीबाई नाम दिया था। लक्ष्मीबाई ने कोई औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी परन्तु अपने पति की प्रेरणा से वह मराठी पढ़ना व लिखना सीख गईं थीं। फिर इस भाषा पर उन्होंने इतनी सुविज्ञता प्राप्त कर ली कि बाद में उन्होंने जब अपनी स्व-जीवनी ‘स्मृति चित्रे’ लिखी, तो उसे आज तक मराठी भाषा की सभी स्व-जीवनियों में एक मील-पत्थर माना जाता है। पहले हिन्दु मन्दिर के पुजारी थे, फिर अध्यापक, प्रिन्टिंग प्रैस में कम्पोज़िटर, पत्रिका के संपादक, अंततः - कवि व फिर पादरी बने श्री नारायण वामन तिलक को अपने जीवन में विभिन्न नौकरियां करने के लिए महाराष्ट्र के कई नगरों में जाना पड़ा था। वह अध्यापक भी रहे, पहले एक हिन्दु मन्दिर के पुजारी भी रहे थे एवं फिर एक प्रिन्टिंग प्रैस में कंपोज़िटर भी रहे। 1891 में उन्हें नागपुर में संस्कृत भाषा का साहित्य अनुवाद करने का काम मिल गया। वह कार्य करने के बाद अगले वर्ष ही उन्होंने संस्कृत भाषा में कविताएं रच डाली थीं। अप्पासाहेब बुटी के संरक्षण में उन्होंने ‘ऋषि’ नामक पत्रिका का संपादन भी किया। उस पत्रिका में हिन्दु धर्म के मुद्दों पर विचार होता था। रेल-गाड़ी में मिले यात्री अर्नैस्ट वार्ड से मुलाकात ने बदल दी ज़िन्दगी 1893 में जब श्री तिलक जब एक रेल-गाड़ी द्वारा नागपुर से राजनंदगांव की यात्रा कर रहे थे, तो उन्हें अर्नैस्ट वार्ड नामक एक यात्री मिले, जो वास्तव में फ्ऱी मैथोडिस्ट चर्च के प्रोटैस्टैंट मिशनरी थे और उन्होंने उन्हें यीशु मसीह व मसीही धर्म संबंधी उनको बताया और श्री तिलक को पढ़ने के लिए एक बाईबल भी दी। उस घटना के दो वर्षों अर्थात 1895 में उन्होंने स्वयं अपनी इच्छा से ईसाई धर्म को ग्रहण कर लिया। परन्तु इस धर्म में आने की उनकी यात्रा कुछ कठिन भी नहीं रही थी। उन्होंने पहले एक अज्ञात व्यक्ति के तौर पर एक मसीही मिशनरी पत्रिका को पत्र लिख कर अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर जानने चाहे थे। अपनी पूर्ण मानसिक संतुष्टि के पश्चात् ही उन्होंने बप्तिसमा लेने का मन बनाया था। नारायण वामन तिलक ने जब यीशु मसीह को अपनाया, तो पत्नी क्रोधित हो कर अपने मायके चली गईं थीं 10 फ़रवरी, 1895 को जब उन्होंने बप्तिसमा लेकर औपचारिक रूप से मसीही धर्म ग्रहण किया, तो इस बात की जानकारी उनकी पत्नी सहित उनके किसी भी रिश्तेदार को नहीं थी। जब श्रीमति लक्ष्मीबाई को यह बात मालूम हुई तो वह क्रोधित हो कर अपने मायके चली गईं। परन्तु चार वर्षों के पश्चात् वह भी पूर्ण रूप से मसीही बन गईं। उन्हें समझा-बुझा व मना कर वापिस श्री तिलक के घर लाने में पण्डिता रमाबाई का बहुत बड़ा योगदान रहा। अहमदनगर सैमिनरी में अध्यापक बने उधर श्री नारायण वामन तिलक अहमदनगर (महाराष्ट्र) स्थित एक मसीही धार्मिक स्कूल (सैमिनरी) में अध्यापक नियुक्त हो गए तथा उन्हें 1904 में एक चर्च का पादरी नियुक्त कर दिया गया। 1912 में वह एक मिशनरी पत्रिका ‘दन्यानोद्या’ के मराठी अनुभाग के संपादक बन गए तथा 9 मई, 1919 में अपने निधन तक इसी पद पर कार्यरत रहे। उन्होंने अपने जीवन में महाराष्ट्र के वार्करी हिन्दु संप्रदाय की काव्य शैली व स्थानीय लोकोक्तियों व मुहावरों का प्रयोग करते हुए अनेक कविताएं लिखीं। उनकी अधिकतर कविताएं यीशु मसीह की महिमा करती दिखाई देती हैं। सृजित की थी एक नई मसीही धारणा, पर... श्री तिलक पारंपरिक तौर पर मसीही धर्म को नहीं अपितु एक नई धारणा से मानते थे। उन्होंने अपने अन्तिम दो वर्षों में बप्तिसमा वाले व ग़ैर-बप्तिसमा वाले दो मसीही समुदाय एकत्र करना प्रारंभ कर दिए थे। उन सभी को वे यीशु मसीह के शिष्य कहते थे। परन्तु उनके निधन के कारण यह धारणा अधिक फल-फूल न सकी। 100 से अधिक मसीही भजन मराठी भाषा में लिखे, महाकाव्य भी रचा जो पत्नी लक्ष्मीबाई ने पूर्ण किया श्री नारायण वामन तिलक ने सौ से अधिक मसीही भजन मराठी भाषा में लिखे। वह सभी ‘अभंगजली’ नाम से प्रकाशित हुए। उन्होंने 1909 में यीशु मसीह पर एक महा-काव्य ‘क्रिस्तायन’ भी लिखना प्रारंभ किया था। उसके 10 अध्याय उन्होंने परिपूर्ण कर लिए थे, परन्तु इसी बीच उनका देहांत हो गया। उसके बाद उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई ने अपनी ओर से 64 अन्य अध्याय जोड़ कर उस महाकाव्य को संपन्न किया था। श्री तिलक की 2,100 से भी अधिक कविताएं हैं। श्री तिलक के पुत्र देवदत्त नारायण तिलक ने ‘क्रिस्तायन’ को बाद में संपादित करके उसे प्रकाशित भी करवाया था। श्री नारायण वामन तिलक के पौत्र अशोक देवदत्त तिलक, जो कि स्वयं एक इतिहासकार थे, उन्होंने ‘स्मृति चित्र’ को आलोचनात्मक रू से संपादित किया था। फिर उन्होंने अपने दादा श्री नारायण वामन तिलक की जीवनी ‘चलता बोलता चमत्कार’ भी लिखी थी। -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - 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