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एकजुट भारतीय चर्च के मुद्दई काली चरण (के.सी.) बैनर्जी



‘कलकत्ता क्रिस्टो समाज’ के संस्थापक काली चरण बैनर्जी

पश्चिम बंगाल में इस समय साढ़े छः से सात लाख के लगभ मसीही रह रहे हैं। माना जाता है कि यहां नीचे दिए गए चित्र में दिखाई देने वाले श्री कृष्ण पाल (1764-1822) ने बंगाल में सब से पहले यीशु मसीह को अपनाया था। वह बढ़ई थे। उनके द्वारा लगाया गया पौधा आज भी बंगाली मसीही समुदाय की एक समृद्ध फुलवारी के रूप में फलता-फूलता हुआ संपूर्ण विश्व में अपनी महक फैला रहा है। आज उसी बंगाली मसीही फुलवारी के एक फूल श्री काली चरण बैनर्जी (1847-1902) के जीवन से कुछ प्रेरणा लेने का प्रयत्न करते हैं, जिन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपने योगदान के कारण आज भी याद किया जाता है। श्री काली चरण एंग्लीकन चर्च से जुड़े थे तथा उन्होंने ‘कलकत्ता क्रिस्टो समाज’ की स्थापना की थी। एक समय ऐसा भी आया था, जब इस संगठन को भारत में आर्य समाज के ब्रह्मो समाज के समानांतर माना जाने लगा था।


अंग्रेज़ों को भारत से भगाने के लिए 1885 में कांग्रेस के सदस्य बने थे काली चरण बैनर्जी

KC Banerji कांग्रेस पार्टी के सत्रों में उनके भाषण अत्यंत वर्णनीय रहते थे और उनके भाषणों की सब से अधिक प्रशंसा हुआ करती थी। भारत से अत्याचारी ब्रिटिश शासकों को खदेड़ने के लिए देश के स्वतंत्रता सेनानियों ने 1885 में इण्डियन नैश्नल कांग्रेस की स्थापना की थी। अपने समय के वकील श्री के.सी. बैनर्जी अर्थात श्री काली चरण बैनर्जी तभी अर्थात 1885 में ही कांग्रेस के सदस्य बन गए थे। उस प्रारंभिक सत्र में पण्डिता रमाबाई (मुख्य सूची में ढूंढ कर पढ़ें), लाहौर के श्री जी.सी. नाथ तथा मद्रास के श्री पीटर पॉल पिल्लै जैसे मसीही लोग में सम्मिलित हुए थे। श्री के.सी. बैनर्जी वास्तव में अपने समय के एक अन्य प्रमुख मसीही ब्रह्मदेव उपाध्याय (मुख्य सूची में ढूंढ कर पढ़ें) के करीबी रिश्तेदार थे तथा उन्होंने ही श्री उपाध्याय को पढ़ाया-लिखाया भी था।


ब्रिटिश सरकार के समक्ष रखे थे सुधार प्रस्ताव

श्री के.सी. बैनर्जी तब कुछ प्रशासकीय सुधारों हेतु कलकत्ता की औप-निवेशिक ब्रिटिश सरकार के समक्ष बहुत से प्रस्ताव रखने में सफ़ल रहे थे। उन समयों में यह भी बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि तब तो कोई भारतीय शीघ्रतया अंग्रेज़ शासकों के सामने बोलने की हिम्मत भी नहीं कर पाता था।


अत्याचारी अंग्रेज़ शासकों की नहीं की कभी कोई परवाह

दरअसल 1857 में भारत को स्वतंत्र करवाने का जो प्रयत्न हुआ था, वह असफ़ल रह गया था। उसके बाद अंग्रेज़ शासकों ने भारत वासियों पर अपनी सख़्तियां व अत्याचार कुछ अधिक ही बढ़ा दिए थे, इसी लिए सामान्य जन कुछ डरे हुए थे। परन्तु श्री के.सी. बैनर्जी जैसे लोगों ने कभी ब्रिटिश शासकों की कोई अधिक परवाह नहीं की। वे तो देश की स्वतंत्रता के अपने लक्ष्य को किसी भी हद तक जाकर पाना चाहते थे।


अंग्रेज़ों के प्रतिबन्धों का किया ज़ोरदार विरोध

श्री के.सी. बैनर्जी चाहते थे कि ब्रिटिश हकूमत देश में उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार लाए। उन दिनों राष्ट्रीय आन्दोलनों में अध्यापकों के भाग लेने पर अंग्रेज़ों ने प्रतिबन्ध लगा दिया था परन्तु श्री के.सी. बैनर्जी इस प्रतिबन्ध का ज़ोरदार विरोध करते थे। 1889 में इसी विरोध हेतु प्रारंभ किया उनका अभियान वर्णनीय रहा है।


‘दि इण्डियन क्रिस्चियन हैराल्ड’ नामक अख़बार निकाला

श्री के.सी. बैनर्जी ने अपनी बात जन-साधारण तक पहुंचाने हेतु ही 25 वर्ष की आयु में ही ‘बंगाल क्रिस्चियन हैराल्ड’ नामक एक समाचार-पत्र भी प्रकाशित करना प्रारंभ किया था, जिसका नाम उन्होंने बाद में ‘दि इण्डियन क्रिस्चियन हैराल्ड’ रखा था।

बंगाल क्रिस्चियन ऐसोसिएशन के भी सक्रिय सदस्य रहे श्री के.सी. बैनर्जी का जन्म मध्य प्रदेश के नगर जबलपुर में हुआ था, बाद में उनका परिवार सदा के लिए कलकत्ता आ कर बस गया था।


19वीं शताब्दी में कम थे के.सी. बैनर्जी जैसे मसीही

कांग्रेस पार्टी से जुड़े रहने के कारण बंगाल के तत्कालीन अंग्रेज़ शासक तब श्री के.सी. बैनर्जी को नज़रअंदाज़ भी नहीं करते थे। श्री बैनर्जी का कहना था कि उनके मसीही बन जाने का अर्थ यह हरगिज़ नहीं है कि उन्होंने भारत की राष्ट्रीयता भी त्याग दी है, इस लिए ब्रिटिश शासक इस मामले को लेकर किसी भ्रम में न रहें। हम अपने देश की स्वतंत्रता के मामले में पूर्णतया भारत के अपने सभी शेष नागरिकों के साथ हैं। ऐसी स्पष्ट बात कहने वाले मसीही भी उस समय कम ही थे।


‘बंगाली क्रिस्चियन’ कान्फ्ऱेंस का आयोजन

1877 में उन्होंने जे.जी. शोम के साथ मिल कर ‘बंगाली क्रिस्चियन’ कान्फ्ऱेंस का आयोजन करवाया था, जिसमें उन्होंने कुछ ऐसे अंग्रेज़ी मसीही मिशनरी प्रचारकों का ज़ोरदार विरोध किया था, जो स्थानीय मसीही समुदाय को भारत से तोड़ना चाहते थे। श्री बैनर्जी चाहते थे कि हमने यीशु मसीह (जो कि एशियाई हैं) को अपनाया है, इंग्लैण्ड के अंग्रेज़ों (जिन्होंने भारत से लगभग 520 वर्ष बाद ईसाई धर्म को बाकायदा अपनाया था) को नहीं।


भारतीय रीति से करना चाहते थे मसीही प्रार्थना

श्री बैनर्जी यह भी चाहते थे कि मसीही प्रार्थना भारतीय रीतियों से ही की जाए, अंग्रेज़ों के हिसाब से नहीं। इसी अभियान के दौरान ही श्री के.सी. बैनर्जी एवं श्री जे.जी. शोम के नेतृत्व में बंगाल के बहुत सारे क्रिस्चियनों ने उस समय के चर्चों में जाना छोड़ दिया था और अपने एक संगठन ‘कलकत्ता क्रिस्टो समाज’ की स्थापना कर ली थी। वे चाहते थे कि भारत के सभी स्थानीय चर्च एकजुट हो जाएं। प्रारंभ में उनके पास कोई पादरी नहीं था, परन्तु फिर भी वे अपने हिसाब से यीशु मसीह के लिए डटे रहे थे।


अज्ञानी मसीही भाईयों-बहनों का किया भारतीयकरण

श्री के.सी. बैनर्जी का मानना था कि भारत का मसीही समुदाय खड़े पानी की भांति हो चुका है, इसी लिए यदि उस में भारत के स्थानीय साहित्य की सहायता से एक नई रूह न फूंकी गई, तो यह शीघ्र ही सड़ जाएगा। इस प्रकार श्री बैनर्जी ने बहुत से ऐसे अज्ञानी मसीही भाईयों-बहनों का भारतीयकरण करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया था, जो उस समय के ब्रिटिश शासकों के प्रभाव के कारण स्वयं को अंग्रेज़ ही समझने लगे थे।


भारतीय मसीही समुदाय को समझाने हेतु बनाया सन्यासी वेष

श्री के.सी. बैनर्जी ने देश के ईसाईयों को अपनी बात कुछ और भी अधिक अच्छे ढंग से समझाने के लिए स्वयं विशुद्ध भारतीय सन्यासी जैसा वेष अख़्तयार कर लिया था। आज अफ़सोस इस बात का भी है कि उनके चित्र आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। उनके ‘विशुद्ध भारतीय मसीही समुदाय’ के विचारों से दक्षिण भारत में बसने वाले मसीही लोग भी बहुत प्रभावित हुए थे।


सदा चाहा कि भारतीय चर्च हों एकजुट

1892 में जब बंबई में एक बड़ी मसीही कान्फ्ऱेंस हुई थी, तब भी श्री के.सी. बैनर्जी ने वहां पर बंगाली मसीही समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हुए यही कहा था कि भारत के मसीही समुदाय का केवल एक ही एकजुट चर्च होना चाहिए तथा मसीही शुद्ध भारतीय संस्कृति से ही जुड़े रहने चाहिएं। श्री बैनर्जी के ऐसे प्रभाव के कारण ही 1886 में नैश्नल चर्च ऑफ़ मद्रास, 1888 में मारथोमा इवैंजलिकल ऐसोसिएशन ऑफ़ केरल तथा 1903 में तिन्नेवेल्ली में ‘दि हिन्दु चर्च ऑफ़ दि लॉर्ड जीसस’ की स्थापना हो पाई थी।


अंग्रेज़ों के चर्च के समक्ष टिक न पाया बैनर्जी का ‘कलकत्ता क्रिस्टो समाज’

Krishan Pal अफ़सोस की बात यह भी है कि श्री के.सी. बैनर्जी का ‘कलकत्ता क्रिस्टो समाज’ बहुत अधिक देर तक चल न पाया, क्योंकि अंग्रेज़ शासकों के चर्च अत्यंत संगठत थे, क्योंकि उनके पास धन की बड़ी शक्ति थी। श्री बैनर्जी का ऐसा सपना कभी साकार न हो पाया कि भारत के सभी मसीही एक चर्च की छत तले आ जाएं। दरअसल विचारों के मतभेद बहुत अधिक हैं।


महात्मा गांधी स्वयं गए थे काली चरण बैनर्जी के घर

महात्मा गांधी जी जब दक्षिण अफ्ऱीका में थे, तब उन्होंने अपने कुछ मसीही मित्रों से यह कहा था कि वह भारत में रहने वाले मसीही लोगों से मिल कर उनके विचार जानेंगे। गांधी जी ने जब गोपाल कृष्ण गोखले के निवास स्थान पर शरण ली हुई थी, तब उन्होंने श्री काली चरण बैनर्जी के घर जा कर उन्हें मिलने का निर्णय लिया था। गांधी जी वास्तव में श्री बैनर्जी का बहुत आदर करते थे, क्योंकि उन्हें इस बात की जानकारी थी कि श्री बैनर्जी कांग्रेस पार्टी के प्रारंभिक सत्रों में सक्रियतापूर्वक भाग लेकर ख़ूब धुंआधार भाषण भी करते रहे थे। जब गांधी जी श्री के.सी. बैनर्जी के घर पहुंचे, तो श्री बैनर्जी की पत्नी मृत्यु शैय्या पर थीं। गांधी जी ने उस मुलाकात का वर्णन करते हुए लिखा था - ‘‘मैंने के.सी. बैनर्जी से मिलने का समय मांगा था, जो उन्होंने तत्काल दे दिया था। जब मैं वहां गया, तो मैंने देखा कि उनकी पत्नी की हालत काफ़ी ख़राब थी। उनका घर बहुत सादा था। कांग्रेस के सत्रों में मैंने उन्हें देखा था, तब उन्होंने पैंट व कोट पहना हुआ था। परन्तु मुझे यह देख कर प्रसन्नता हुई कि उन्होंने अपने घर में बंगाली धोती व कुर्ता पहने हुए थे। मुझे उनके यह सादा वस्त्र अच्छे लगे, जब कि उस समय मैंने स्वय पारसी कोट व पैंट पहने हुए थे। मैंने उनसे कोई औपचारिक बातचीत करने के स्थान पर अपनी कुछ कठिनाईयां श्री बैनर्जी के सामने रखीं। श्री बैनर्जी ने मुझसे पूछा कि क्या आप ‘मूल पाप के सिद्धांत’ में विश्वास रखते हैं। मैंने उत्तर दिया कि मैं इस बात पर तो विश्वास रखता हूँ। परन्तु हिन्दु धर्म में कोई पुजारी अपने किसी श्रद्धालु के पाप क्षमा नहीं कर सकता परन्तु कुछ मसीही समुदायों में पादरी ऐसा कर सकताा है। पाप की मज़दूरी मृत्यु है, यह बात दरुस्त है। मैंने श्री बैनर्जी को भक्ति मार्ग व भगवद् गीता की बातें बताईं। मैंने तब श्री बैनर्जी को यह भी स्पष्ट किया था कि वह किन्हीं धार्मिक मामलों पर बात नहीं करने आए हैं। बात संतुष्टि की थी और श्री बैनर्जी मेरी कुछ कठिनाईयों के मामले में मुझे संतुष्ट न कर सके परन्तु उस मुलाकात का मुझे लाभ बहुत हुआ।’’


गांधी जी को मिल नहीं पाए थे के.सी. बैनर्जी से कुछ प्रश्नों के उत्तर

गांधी जी 1925 में जब कुछ मसीही प्रचारकों से बात कर रहे थे, तो उन्होंने श्री के.सी. बैनर्जी से की अपनी मुलाकात संबंधी उन्हें बताया था। तब उन्होंने यह भी कहा था कि उन्होने 1901 में एक बार स्वयं से यह प्रश्न पूछा था कि क्या उन्हें पूर्ण तौर पर मसीही बन जाना चाहिए। परन्तु मुझे तब कुछ प्रश्नों के ईसाई धर्म में मिल न पाए, जिसके कारण उन्होंने अपना यह विचार त्याग कर हिन्दु धर्म में ही रहने का निर्णय लिया था।

Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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