डांडी मार्च के मसीही महानायक फ़ादर थेवराथुन्दीयिल तीतुस
डांडी मार्च में भाग लेने वाले एकमात्र मसीही थे फ़ादर तीतुस
यह ‘11-मूर्ति’ चित्र 1930 में महात्मा गांधी जी द्वारा किए गए डाँडी मार्च को दर्शाता है। तो आप कहेंगे कि इसमें नई बात क्या हो गई, अब तक हम 500 रुपए के पुराने नोट (जो भारत सरकार ने 8 नवम्बर, 2016 को बन्द कर दिया था) पर यह चित्र हमने हज़ारों बार देखा है। महात्मा गांधी जी के सभी आन्दोलनों और भारत को स्वतंत्रता दिलवाने में उनके महान् योगदान को हम कोटिन-कोटि नमन करते हैं। स्वतंत्रता संग्राम में कूदने वाले अधिकतर हमारे मसीही सेनानी भाई-बहन गांधी जी से ही प्रभावित रहे हैं। इस चित्र को थोड़ा ध्यान से देखेंगे तो जिस स्थान पर हमने आपको केवल दिखाने के लिए लाल रंग किया है, उसके ऊपर जो बुत्त है, वह वास्तव में फ़ादर थेवराथुन्दीयिल तीतुस जी का है (और उनका चित्र हमने यहां पर इसी चित्र में गांधी जी के बुत के नीचे इन्सैट में दिया है)। श्री तीतुस एकमात्र मसीही थे, जिन्होंने गांधी जी के प्रसिद्ध डाँडी मार्च में भाग लिया था। इसी आन्दोलन के बाद फिर असहयोग आन्दोलन प्रारंभ हुआ और अंग्रेज़ शासक तब भारत को छोड़ कर जाने व इस देश को आज़ाद करने को तैयार हुए थे। जानबूझ कर नज़रअंदाज़ किया गया फ़ादर तीतुस के योगदान को परन्तु अफ़सोस की बात यह है कि इस बहुसंख्यकों ने कभी श्री तीतुस के इस योगदान को मान्यता नहीं दी। उन्हें जानबूझ कर नज़रअंदाज़ कर दिया गया तथा केन्द्र सरकार ने या स्वतंतत्रा सेनानियों की ऐसोसिएशनों ने भी कभी उन्हें पैन्शन तक नहीं दी। डाँडी मार्च को दर्शातीं यह 11 मूर्तियां अब दिल्ली के सरदार पटेल मार्ग पर स्थित हैं। इसमें श्री तीतुस को एक पादरी साहिब के वेष में दिखलाया गया है, यह बात उनके गले में लटकती दिखाई रही मसीही सलीब से भी ज्ञात होती है। गंाधी जी उन्हें कहते थे ‘तीतुस जी’ 18 फ़रवरी, 1905 को पैदा हुए श्री तीतुस ,‘मारथोमा मसीही मिशन’ से संबंधित थे। वह मध्य प्रदेश राज्य की राजधानी भोपाल में रहते थे, बाद में उन्हीं के घर पर मारथोमा चर्च भी स्थापित हुआ था। परन्तु अफ़सोस की बात यह भी है कि उस चर्च में भी श्री तीतुस की यादों को सही ढंग से कभी सहेज कर नहीं रखा गया कि आने वाली पीढ़ियां कुछ सीख ले सकें। डाँडी मार्च में भाग लेते समय श्री थेवराथुन्दीयिल तीतुस जी को ज़्यादातर ‘तीतुस जी’ के नाम से ही बुलाया जाता था। यह नाम उन्हें और किसी ने नहीं, स्वयं महात्मा गांधी जी ने दिया था। उन्होंने विशेष तौर पर श्री तीतुस को अपने उस मार्च में बुलाया था, ताकि सभी धर्मो का प्रतिनिधित्व डाँडी मार्च में हो सके। तब उन्होंने हिन्दु, सिक्ख, मुस्लिम, ईसाई एवं महिलाओं सभी लोगों को बुलाया था और क्रूर अंग्रेज़ शासकों को यह संकेत दिया था कि देश की आज़ादी के मामले में हम सब एकजुट हैं। गांधी जी की मूर्ति सब से आगे है और वे डाँडी मार्च में नेतृत्व करते हुए दिखाई दे रहे हैं। गांधी जी के साबरमती आश्रम की गौशाला संभाली श्री तीतुस जी वास्तव में केरल के नगर मारामौन के पास के गांव थेवराथुन्दीयिल के किसान परिवार से थे। वह मारामौन के मारथोमा चर्च से संबंधित थे। हाई स्कूल की पढ़ाई संपन्न करने के पश्चात् उन्होंने अपने निवास स्थान से 20 किलोमीटर दूर एक गांव वड़ासेरिकारा स्थित स्कूल में पढ़ाना प्रारंभ किया था। फिर वह अलाहाबाद कृषि विश्वविद्यालय चले गए जहां उन्होंने ‘इण्डियन डेयरी डिप्लोमा’ की पढ़ाई उतीर्ण की। वह गांधी जी के सादा जीवन व उच्च विचारों से सदा प्रभावित रहे। इतने प्रभावित कि उन्होंने उनके साबरमती आश्रम में जाकर वहां की गौशाला की सेवा करने का निर्णय लिया था। श्री तीतुस जी इतने सादा और सरल स्वभाव के इन्सान थे कि उसकी शीघ्रतया अन्य कोई उदाहरण देनी कठिन है। वह आश्रम में प्रातः मसीही प्रार्थना करते थे तथा फिर दो घन्टे चरखा कातने में बिताते थे। आश्रम के सभी लोग ऐसा ही करते थे। गांधी ने फ़ादर तीतुस को नियुक्त किया दूध परियोजना का सचिव महात्मा गांधी जी ने अहमदाबाद (गुजरात) के बाहर स्थित अपने साबरमती आश्रम में श्री तीतुस को अपनी दुग्ध परियोजना का सचिव नियुक्त किया था। श्री गुलज़ारी लाल नन्दा (जो बाद में स्वतंत्रत भारत के दो बार कार्यकारी प्रधान मंत्री बने) तब उसी आश्रम में एक अन्य युनिट के सचिव (सैक्रेटरी) थे। श्री तीतुस व श्री नन्दा जी गांधी जी के बहुत करीबी मित्र हुआ करते थे। विवाह के गहने भी साबरमती आश्रम को दान कर दिए थे फ़ादर तीतुस की पत्नी अन्नमा जी ने तीतुस जी का विवाह 1933 में सुश्री अन्नमा जी से हुआ था। विवाहोपरान्त अन्नमा जी भी साबरमती आश्रम में आ गईं थीं। उन्होंने तो विवाह समय दहेज के रूप में मिले गहने भी साबरमती आश्रम को ही दान कर दिए थे। तब वे सारा दिन गांधी जी के साथ मिल कर देश आज़ाद करवाने व देश वासियों को इस मामले सशक्त बनाने की ही बातें किया करते थे। गांधी जी द्वारा चुने गए डांडी मार्च के 80 सत्याग्रहियों में से एक थे फ़ादर तीतुस उससे पूर्व गांधी जी ने अंग्रेज शासकों के नमक कानून को तोड़ने हेतु 12 मार्च 1930 को डाँडी मार्च अर्थात नमक सत्याग्रह करने का निर्णय लिया था, जिसमें 80 सत्याग्रहियों को चुना गया था। डाँडी नामक स्थान साबरमती आश्रम से 240 मील दूर है। मार्च के दौरान अंग्रेज़ हकूमत की पुलिस ने उन पर लाठियां बरसाईं व सभी को ग्रिफ़्तार कर लिया गया। तीतुस जी को तब उसी मार्च के दौरान धारासाना नमक डीपो की ओर जाते हुए ग्रिफ़्तार किया गया था। पहले उन्हें जलालपुर जेल में रखा गया तथा फिर उन्हें महाराष्ट्र में नासिक जेल भेज दिया गया। डांडी मार्च के समय गांधी जी ने तीतुस जी के समर्थन में लिया था स्टैण्ड डांडी मार्च के दौरान एक और बात बहुत दिलचस्प यह हुई कि सभी सत्याग्रहियों ने गांधी टोपियां पहनी हुईं थीं, परन्तु केवल स्वयं गांधी जी तथा तीतुस जी ने वे टोपियां नहीं पहनी थीं। अन्य सत्याग्रहियों ने तीतुस जी पर ऐतराज़ किया कि वे भी टोपी पहनें और पूर्ण अनुशासन व भारतीयों की एकजुटता अंग्रेज़ हकूमत को दिखाएं। परन्तु तब गांधी जी ने तीतुस जी के समर्थन में स्टैण्ड लेते हुए कहा था कि हमें किसी को कुछ भी पहनने हेतु विवश नहीं करना चाहिए। जेल से रिहाई के पश्चात् तीतुस जी साबरमती आश्रम लौट आए। 1932 में गांधी जी ने श्री तीतुस जी को एक बार फिर आश्रम की गौशाला (डेयरी फ़ार्म) पूर्ण कार्यभार संभालने के लिए कहा। तीतुस जी की बड़ी बेटी अलेयम्मा का जन्म साबरमती आश्रम में ही हुआ था। जब फ़ादर तीतुस ने अकेले संभाली गांधी जी की सभी गायें व उनके बछड़े, तबेले में रहे 1933 में जब गांधी जी ने अचानक आश्रम को बन्द करने का निर्णय लिया तो उन्होंने तीतुस जी को निर्देश दिए कि वह सभी मवेशियों को आश्रम से बाहर कहीं सुरक्षित स्थान पर ले जाएं। तब तीतुस जी ने वैसा ही किया वह सभी गायों व बछड़ों सहित एक ‘मवेशी आश्रय’ में शरण ली। तब बरसात का मौसम था और तीतुस जी को दिन व रात सारा समय तबेले में ही रहना पड़ता था। वहां गौशाला की व्यवस्था संभालने में उन्हें बहुत सख़्त परिश्रम करना पड़ता था। परन्तु तीतुस जी ने कभी उफ़ तक नहीं की। मल्याली लोगों को किया स्वतंत्रता संग्राम में कूदने हेतु प्रेरित एक बार त्रावनकोर (केरल) के कोटायम नगर में तीतुस जी ने इंग्लैण्ड में बने अर्थात विदेशी कपड़े जलाए थे, तब वहां पर उन्होंने हज़ारों मल्याली भाईयों के समक्ष ख़ूब गर्मा-गर्म भाषण दिया था और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में कूदने की सलाह दी थी। 1934 में जब महात्मा गांधी जी मारामौन आए थे तब वह चेंगान्नूर के समीप अरनमूला स्थित मन्दिर भी गए थे। तब उन्हें श्री तीतुस जी के पिता को विश्वास दिलाया था कि उनका पुत्र उनके पास पूर्णतया सुरक्षित व सही-सलामत है। तीतुस को अपनी भारत यात्राओं के दौरान भी सदा पत्र लिखते थे गांधी जी गांधी जी तो उस समय पूरे देश का भ्रमण करते रहते थे परन्तु वह कभी तीतुस जी को पत्र लिखना नहीं भूलते थे। वास्तव गांधी जो अपनी गौशाला का बहुत ख़्याल रहता था, इसी लिए वह तीतुस जी को लिखते थे कि वह सभी मवेशियों का पूर्ण ध्यान रखें तथा गौशाला की सफ़ाई का ख़ास ख़्याल रखें। गांधी जी ने फ़ादर तीतुस को समस्त भारत के अपने डेयरी फ़ार्मों का बनाया मैनेजर 1935 में गांधी जी ने अपना साबरमती आश्रम हरिजन सेवक संघ को देने का निर्णय ले लिया, इसी लिए तब उस आश्रम में स्वतंत्रता आन्दोलन संबंधी कोई कार्य तो हो नहीं सकता था। तब गांधी जी ने तीतुस को अपना प्रबन्धक अर्थात मैनेजर बनाया तथा उन्हें भारत के विभिन्न भागों में स्थित डेयरी फ़ार्मस का कार्य देखने हेतु भेजा। तब तीतुस जी त्रावनकोर में अपने रिश्तेदारों के पास भी रहे। वह भी गांधी जी की तरह पूरे देश में जाते थे, इसी लिए उनके बच्चों अलेयम्मा, तीतुस व ईसऊ को त्रावनकोर में रहने वाले रिश्तेदारों के पास ही रहना पड़ता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय वह कैवेन्टर्स डेयरी के मैनेजर थे। जब फ़ादर तीतुस पर टूटा मुसीबतों का पहाड़ तीतुस जी 1950 के दश्क में पहले जबलपुर तथा फिर भोपाल जाकर भी रहे। उनके परिवार में तब तक चार अन्य पुत्र जोसेफ़, जॉर्ज, जौन एवं थॉमस भी जन्म ले चुके थे। उनकी एक सुपुत्री व छः पुत्र थे। वह काफ़ी समय मध्य प्रदेश के भोपाल में स्थित बैरागढ़ डेयरी के मैनेजर रहे। कुछ समय के पश्चात् वह डेयरी फ़ार्म बन्द हो गया तथा फिर तीतुस जी के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। अपने स्वतंत्रता सेनानी होने का कभी कोई सरकारी लाभ नहीं लिया फ़ादर तीतुस ने अपनी कार तथा केरल के मारामौन में अपनी संपत्ति तक बेचनी पड़ी। परन्तु उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी की तरह कभी किसी से दान का एक पैसा भी नहीं लिया या कभी कोई अन्य लाभ नहीं उठाया। फिर ओबेदुल्लाहगंज के संस्थान में सरकारी नौकरी मिल गई, जहां उन्हें गांव स्तर के श्रमिकों को प्रशिक्षण देना होता था। यह उनके पसन्द का कार्य थे। वह वहां पर अकेले ही रहते थे तथा केवल शनिवार व रविवार को ही भोपाल स्थित घर लौटते थे। फ़ादर तीतुस को बहुत पसन्द था मोहम्मद रफ़ी का गाया गीत ‘सुनो सुनो ए दुनिया वालो बापू की यह अमर कहानी...’ उन दिनों भारत के प्रसिद्ध गायक मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाया एक गीत ‘सुनो सुनो ए दुनिया वालो बापू की यह अमर कहानी, वह बापू जो पूज है इतना जितना गंगा मां का पानी ...’ तीतुस जी को बहुत अधिक पसन्द था। वह सारा दिन समय मिलते वही गीत गुनगुनाते रहते थे। वह अपने संस्थान में इस गीत को विशेष तौर पर चला कर अपने विद्यार्थियों को भी सुनाते थे। भोपाल में ऋण लेकर ख़रीदा अपना प्लॉट, फिर बनाया मकान भोपाल में तीतुस जी किराये के मकान में रहते थे। फिर किसी तरह उन्हें 16,000 रुपए का ऋण मिल गया, जिससे उन्होंने भोपाल के नूर महल क्षेत्र में ज़मीन का एक टुकड़ा ख़रीद लिया। वहां पर उन्होंने मकान भी निर्मित कर लिया फिर 1956 वह वहां पर परिवार सहित रहने लगे, जिसका नाम उन्होंने ‘लेक व्यु कॉटेज’ रखा, जहां से भोपाल की झील का दृश्य बहुत शानदार दिखाई देता था। 1962 में उन्हें भिलाई स्टील प्लांट में नौकरी मिल गई। उन्हें भिलाई स्टील प्लांट टाऊनशिप में स्थित एक डेयरी युनिट का कार्यभार संभाला गया। उन्होंने समीपवर्ती गांवों से दूध एकत्र करने का इन्तज़ाम करवाया तथा पहली बार विदेशी मशीनों द्वारा पास्चुराईज़ेशन एवं ऐलूमीनियम के फ्वायल में दूध की बोतल तैयार करने का प्रबन्ध करवाया। वे बोतल-बन्द दूध तब टाऊनशिप के सभी क्षेत्रों तक पहुंचाया जाता था। सेवा-निवृत्त हो कर चले गए पश्चिमी बंगाल भिलाई स्टील प्लांट से सेवा-निवृत्त होने के पश्चात् तीतुस जी पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी नगर में स्थित एक मसीही संगठन के साथ जुड़ गए। बाद में वह पश्चिम बंगाल के ही 24 परगना में जाकर रहने लगे, फिर कलकत्ता में उन्होंने वर्ल्ड काऊँसिल ऑफ़ चर्चेज़ की बंगाल शरणार्थी सेवाओं के लिए कार्य किया। कई दुःखदायी झटके सहे 2 दिसम्बर, 1964 को उनके दूसरे पुत्र जॉय का दिल का दौरा पड़ने से केवल 24 वर्ष की आयु में निधन हो गया। 12 अप्रैल, 1965 को उनकी पत्नी अन्नमा का भी देहांत हो गया। वह अपैंडिसाईटिस रोग से ग्रस्त थीं, उनका ऑप्रेशन हुआ था परन्तु वह पूर्णतया ठीक न हो सकी और चल बसीं। ऐसे झटकों के बावजूद तीतुस जी सदा कार्यरत रहे। फिर कलकत्ता (कोलकाता नाम 2011 में पड़ा) के समीप उत्तरपाड़ा में बिरला ग्रुप की हिन्दुस्तान मोटर्स की एक डेयरी में वह कार्य करने लगे। वह 1972 में अपने बच्चों व पोते-पोतियों सहित भोपाल वापिस आ गए। ‘क्राईस्ट प्रेम कुलम मिशन फ़ील्ड’ की स्थापना तीतुस जी को ईश्वर व यीशु मसीह पर पूर्ण विश्वास था। अक्तूबर 1954 में उन्हीं के घर में रविवार को चर्च लगता था। वहां पर जब मसीही श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ने लगी, तो प्रार्थना सभा बड़े हॉल्स में की जाने लगीं। चर्च भवन बाद में बना। भोपाल नगर से 25 किलोमीटर दूर सागर नगर को जाने वाले मार्ग पर स्थित सेहतगंज में ‘क्राईस्ट प्रेम कुलम मिशन फ़ील्ड’ की स्थापना में तीतुस जी की बड़ी भूमिका रही। इस आश्रम के लिए भूमि तीतुस जी ने ही बहुत कम कीमत पर प्रदान की थी। यह मिशन अब भी पूर्णतया सक्रिय है तथा अपने क्षेत्र के गांवों के निवासियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के कार्य करती रहती है। वह अन्त तक मारथोमा सीरियन चर्च के सदस्य रहे। एक पुस्तक भी लिखी 1970 में तीतुस जी ने एक पुस्तक ‘दा भारत ऑफ़ माई ड्रीम्स’ (मेरे सपनों का भारत) प्रकाशित करवाई। आठ अगस्त, 1980 को तीतुस जी का देहांत भोपाल के कस्तूरबा अस्पताल में हुआ। फ़ादर तीतुस के चित्रः नैल्लूर लाईब्रेरी -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]