पंजाब सहित समस्त भारत की अनेक सामाजिक समस्याओं का अंत किया विदेशी मसीही मिशनरियों ने
ऐसे अथक प्रयासों से स्थापित हो पाया था जगाधरी का चर्च
पहले विश्व युद्ध के कारण जगाधरी अस्पताल का भवन पूरी तरह न बन पाया और चर्च का बजट इतना अधिक नहीं था कि उससे अस्पताल के स्टाफ़ का ख़र्चा चल पाता। 1915 में न्यू ज़ीलैण्ड की जनरल असैम्बली को बताया गया था कि पांच नए मसीही मिशनरी युद्ध-सेवा में लगे मसीही मिशनरियों को बदलने हेतु चाहिएं, परन्तु कोई आगे नहीं आ रहा था। जगाधरी व बड़िया (वर्तमान यमुनानगर ज़िले में एक कसबा) में जो दो मसीही स्कूल खोले गए थे, वे वित्तीय संसाधनों की कमी के चलते प्रशिक्षित स्टाफ़ न होने के कारण बन्द होने के कगार पर आ गए। 1918 में, न्यू ज़ीलैण्ड यंग वोमैन’ज़ बाईबल क्लास यूनियन ने मिशन कमेटी का कुछ आर्थिक बोझ बंाटा तथा फिर उसी ने एक बंगला बनाने का ख़र्च दिया। फिर आम व्यक्तियों तथा कुछ बड़े गिर्जाघरों ने भी मदद की - उसी सहायता से अस्पताल के बिस्तरे आए और कुछ सहायता इण्डियन बाईबल-वोमैन की ओर से भी आई।
जगाधरी के साथ वर्तमान स्पाटू व खरड़ में भी मसीही मिशनरियों ने किए कल्याण कार्य
उन दिनों दक्षिण पंजाब (अब हरियाणा) के गांवों में धार्मिक पैंफ़लेट्स बांटने, धार्मिक पुस्तकों की बिक्री, रात्रि को लालटेन की रोशनी में संभाषण, गांवों में प्रचार तथा नवम्बर से मार्च तक गांवों में वार्षिक शिविर लगाना जैसी गतिविधियां ही मसीही मिशनरियों हेतु हुआ करती थीं। जगाधरी में भी एक वार्षिक मसीही मेला लगा करता था। मिशन ने इस क्षेत्र में बच्चों को शिक्षा देने तथा मैडिकल कार्य करने जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य किए।
1913 में न्यू ज़ीलैण्ड की इसी मसीही मिशन ने फिर पंजाब के स्पाटू में (अब हिमाचल प्रदेश में) कुष्ट रोगियों की देखभाल के कार्य के लिए प्रयास शुरु किए। वर्ष 1921 में न्यू ज़ीलैण्ड के 8 नए मिशनरी इस क्षेत्र में आए।
फिर जब 1920 तथा उसके बाद भारत में स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलनों में तेज़ी आ गई, तो उन दिनों मसीही प्रचारकों के कार्य कुछ सुस्त पड़ गए थे।
1923 में न्यू ज़ीलैण्ड की मिशन ने जगाधरी से 100 मील उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित खरड़ (अब पंजाब के मोहाली ज़िले में) नामक कसबे में अपना कार्य प्रारंभ किया, जो तब तक अमेरिकन प्रैसबिटिरियिन मिशन के पास था। उन दिनों अमेरिका की यह मसीही मिशन वित्तीय संकट से जूझ रही थी। न्यू ज़ीलैण्ड की मसीही मिशन को पहली अमेरिकन मिशन द्वारा निर्मित कुछ भवन व लड़कों का एक हाई स्कूल मिला।
भारतीयों को अपने पांवों पर खड़े होने के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया मसीही मिशनों ने
न्यू ज़ीलैण्ड की इस प्रैसबिटिरियन मसीही मिशन ने शैक्षणिक योग्यता के साथ-साथ दस्तकारी व व्यवहारिक प्रशिक्षण पर अधिक बल दिया। पहले आद्यौगिक क्षेत्र से जुड़े रहे श्री जॉर्ज ग्रे को 1930 में सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में एक मेन्युल ट्रेनिंग स्कूल स्थापित करने हेतु नियुक्त किया गया था। वहां पर बढ़ई, लोहार का काम, चमड़े का काम, दर्ज़ी एवं मोटर मकैनिक बनने के महत्त्वपूर्ण कार्य सिखलाए जाने थे। ये सभी कार्य आज भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। तब भी यही सोचा गया था कि युवाओं को जब ये उपयुक्त हुनर प्राप्त होंगे, तो वे बड़े होकर अपने स्थान पर कार्यरत रहते हुए भी अपने देश के विकास में अपना योगदान डाल सकेंगे। इस मसीही मिशन ने सदा यही चाहा भारत के मसीही समुदाय में कुछ ऐसा माहौल हो कि सभी सदस्य स्वाभिमान से अपना जीवन जिएं, चर्च को स्वयं अपनी सामर्थ्य व क्षमता से चलाने व आगे ले जाने वाले हों तथा देश के लाभदायक व मिसाली नागरिक सिद्ध हों।
सेवा पहले प्रचार बाद में
विदेशी मसीही मिशनरी चाहे भारत में आते तो मुख्यतः प्रचार करने ही थे, परन्तु वे यहां के आम निर्धन लोगों की हालत देख कर प्रचार उनके लिए पीछे रह जाता था, वे पहले लोगों के जीवन-स्तर को सुधारने में जुट जाते थे। ऐसा करते समय उनमें से अधिकतर के मन में केवल मानवता के भाव ही हुआ करते थे। क्योंकि एक सच्चे मसीही का जीवन ऐसा ही होता है - वह अपने भले व कल्याणकारी कार्यों से जाना जाता है और उसी से अपनी पहचान बनाता है। उसे कभी किसी चीज़ की लालसा नहीं होती। यह बात सर्वदा सत्य रही है और सदा रहेगी।
भारत में जन-साधारण को जागरूक किया मसीही मिशनरियों ने
17वीं से 19वीं शताब्दी, यहां तक कि 20वीं शताब्दी में स्वतंत्रता प्राप्ति तक भी मसीही मिशनरी जब भारत आ कर देखते थे कि अमीर लोग ग़रीब लोगों पर धर्म की आड़ में जाति व वर्णों के आधार पर अत्याचार करते हैं, उन्हें पढ़ने नहीं दिया जाता ताकि उनमें सूझ-बूझ न आ जाए, महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिए गए - उन्हें पढ़ाना तो दूर बड़ी दूर की बात थी, उन्हें कभी घर की चारदीवारी से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था - मायके व ससुराल दोनों ही स्थानों पर, उन्हें सती प्रथा के बहाने मार दिया जाता था, उन्हें जन्म लेते ही मार दिया जाता था, कुछ स्थानों पर बच्चों व नर-बलि की प्रथा भी थी - पशु बलि की तो आज भी है। फिर उस समय भारतीय समाज में वहम-भ्रम भी बहुत अधिक थे। वैसे अमीर लोगों के पास उस समय भी सभी अधिकार हुआ करते थे, केवल ग़रीबों के लिए नहीं थे। मसीही मिशनरियों ने सब से पहले भारत की ऐसी सामाजिक समस्याओं का समाधान ढूंढने का बीड़ा उठाया। उन्होंने जन-साधारण को शिक्षित करना प्रारंभ कर दिया, ताकि प्रत्येक व्यक्ति में जागरूकता उत्पन्न हो सके तथा वह स्वयं अपने प्रयत्न से प्रगति पथ पर अग्रसर हो सके। फिर उन्होंने देखा कि आम लोग छोटी-छोटी सी बीमारियों से मर जाते हैं। छोटी सी बीमारी भी महामारी का विकराल रूप धारण कर लेती है। इसी लिए उन्होंने छोटे-छोटे स्वास्थ्य केन्द्र तथा कुछ बड़े अस्पताल भी खोलने प्रारंभ किए। इन दोनों ही बातों से भारतीय समाज को एक बड़ी राहत मिली। अमीर व तथाकथित उच्च वर्गों का एकाधिकार समाप्त होने लगा। फिर उन्हीं लोगों को जब कुछ और न सूझा, तो उन्होंने धर्म की आड़ में अपने घटिया तीर चलाने शुरु कर दिए; क्योंकि आमने-सामने वाली परिस्थतियों में या तो कमज़ोर व्यक्ति धर्म का सहारा लेता है या फिर जब सभी राह बन्द दिखाई दें, तो ऐसा पथ अपनाया जाता है। देश के बहु-संख्यकों के केवल कुछ मुट्ठी भर लोगों, जो स्वयं को नेता मानते थे परन्तु असल में नहीं थे, ने मसीही मिशनरियों पर ग़रीबों के ‘धर्म-परिवर्तन’ करवाने के आरोप लगाने प्रारंभ कर दिए।
अच्छी तरह से समझ लें वास्तविकता बरसाती मेंढक
हम आज के उन मुट्ठी भर बरसाती मेंढकों, चूहों व गीदड़ों जैसे उन तथाकथित नेताओं को यह समझाना चाहते हैं, जो आज कल लोगों में राष्ट्रवाद के नाम पर आम लोगों को सर्टीफ़िकेट बांट-बांट कर आम लोगों को गुमराह कर रहे हैं तथा भारत की राष्ट्रीय एकता, अखंडता व सांपद्रायिक एकता के लिए बड़ा ख़तरा बने हुए हैं। ये लोग देश को एक बार फिर सांपद्रायिकता व बिना वजह के ख़ून-ख़राबे की ओर ले जाना चाहते हैं। देश हित के नाम पर ये लोग देश को कमज़ोर करने पर तुले हुए हैं। इतिहास में ऐसे समयों को केवल ‘काले युग’ के तौर पर ही याद किया जाएगा।
मसीही मिशनरियों ने स्कूल खोले, प्रैस लगाई
सन् 1900 के बाद मसीही समुदाय में अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने का एक जज़्बा पैदा होने लगा। इसी लिए मसीही मिशनों ने अपने स्कूल खोलने प्रारंभ किए। ये स्कूल कई स्थानों पर खोले गए। खरड़ (ज़िला मोहाली, पंजाब) स्थित लड़कों के हाई स्कूल में विदेशी मिशनरियों ने एक प्रिटिंग प्रैस भी स्थापित की थी, ताकि वहां पर मसीही साहित्य प्रकाशित किया जा सके।
1930 के दश्क में समस्त संसार एक महामन्दी में जकड़ लिया था, यह दौर 1929 से लेकर 1939 तक चला था। फिर उसके तुरन्तु बाद द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया था, जो 1945 तक चला था। उन दिनों में कोई अधिक स्टाफ़ न्यू ज़ीलैण्ड से बाहर नहीं गया तथा मिशन के बजट बहुत घटा दिए गए थे तथा कर्मचारियों के वेतन भी कम कर दिए गए थे। न्यू ज़ीलैण्ड की सरकार ने उन दिनों विदेश भेजी जाने वाली राशि पर 25 प्रतिशत टैक्स लगा दिया था।
कम वेतन में विदेशी मसीही मिशनरियों का गुज़ारा मुश्किल हो गया
मसीही मिशनरियों के वेतन तो पहले भी कोई अधिक नहीं हुआ करते थे। बस इतने होते थे कि दो वक्त की रोटी मुश्किल से खाई जा सकती थी। अब न्यू ज़ीलैण्ड के मिशनरियों के लिए भारत आ कर इतने कम बजट में गुज़ारा करना असंभव हो गया था। ऐसी परिस्थितियों में 1939 तक ऐसी रिपोर्टें न्यू ज़ीलैण्ड व अमेरिकन मुख्यालयों तक गईं थीं कि नए-नए मसीही बने लोग अपने-अपने धर्मों में वापिस जाने लगे थे।
1936 में फ़ॉरेन मिशन्ज़ कमेटी के सदस्य पादरी हैनरी गिल्बर्ट ने 16 मिलीमीटर की 1,500 फ़ुट लम्बी एक दस्तावेज़ी फिल्म भी पंजाब में मसीही मिशन के कार्यों पर बनाई थी। वर्ष 1914 से ऐसी एक फ़िल्म बनाने का प्रस्ताव चला आ रहा था। परन्तु अफ़सोस की बात है कि अब उस मसीही दस्तावेज़ फ़िल्म का कोई भी प्रिन्ट कहीं पर उपलब्ध नहीं है।
फिर जब द्वितीय विश्व युद्ध में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने भारत के सैनिकों को विभिन्न देशों में युद्ध के मोर्चों पर भेजा, तो समूह भारतियों में अंग्रेज़ सरकार के प्रति घृणा का भाव और भी बढ़ गया। ऐसी परिस्थितियों में विदेशी मसीही मिशनरियों के लिए काम करना बहुत कठिन हो गया था परन्तु उन्होंने किसी न किसी तरह से अपने जन-कल्याण कार्य जारी रखे।
मसीही मिशन ने पंजाब में किए थे कई विकास कार्य
इसी दौरान 1931 से मिशन का प्रचार कार्य धीरे-धीरे उत्तर भारतीय चर्च के पंजाब सिनोड के हाथों में दिया जाने लगा था। तभी से क्षेत्रीय चर्च काऊँसिलें (प्रैसबिटीरीज़) स्थापित करने की बात भी चलने लगी थी। फिर धीरे-धीरे भारतीय मसीही लोग मिशन काऊँंसिल के साथ जुड़ने लगे। इसी लिए 1944 में मिशन काऊँसिल सारे अधिकार भारतीय मसीही समुदाय के हाथों में सौंपने की योजना बनाई गई थी परन्तु भारतीय मसीही अभी और अनुभव लेना चाहते थे, इसी लिए अभी इतना बड़ा उत्तरदायित्त्व संभालने हेतु तैयार नहीं थे। परन्तु फिर भी इस नीति को क्रियान्वित किया जाने लगा था। जैसे खरड़ के हाई स्कूल का तब यदि एक प्रिंसीपल न्यू ज़ीलैण्ड का गोरा हुआ करता था, तो उसके साथ एक उच्च-शिक्षित भारतीय मसीही भी समानांतर प्रिंसीपल हुआ करता था। ऐसा ही परीक्षण जगाधरी के कन्या स्कूल तथा जगाधरी के अस्पताल में भी किया गया था। फिर जब देश आज़ाद हो गया, तो उसके बाद तो ऐसी प्रक्रिया का संपूर्ण क्रियान्वयन भी स्वाभाविक ही था।
1950 के दशक के प्रारंभ में न्यू ज़ीलैण्ड मिशन के कार्य को युनाईटिड चर्च ऑफ़ नॉर्दरन इण्डिया की अम्बाला चर्च काऊँसिल के साथ संगठित कर दिया गया था। वर्ष 1956 में अमेरिकन प्रैसबिटिरियन चर्च ने अपने सभी अधिकार सिनड को सौंप दिए थे। वर्ष 1969 में न्यू ज़ीलैण्ड प्रैसबिटिरियन चर्च द्वारा पंजाब में मसीही मिशनरी सेवा के 60 वर्ष संपन्न हो गए थे। तब तक इस मसीही मिशन ने तीन अस्पतालों, तीन स्कूलों, एक मैडिकल कॉलेज, एक युनिवर्सिटी कॉलेज, एक साहित्यिक कार्यक्रम, एक छात्रवृति कार्यक्रम, पादरी साहिबान को वित्तीय सहायता तथा सिनड प्रशासन हेतु सहायता देनी प्रारंभ कर दी थी।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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