Tuesday, 25th December, 2018 -- A CHRISTIAN FORT PRESENTATION

Jesus Cross

यह है मसीही लोगों पर धर्म-परिवर्तन के आरोपों की वास्तविकता - पंजाब के संदर्भ में



 




 


1857 के ग़दर के दौरान कुछ सिपाहियों ने पहली बार दिखलाई थी मसीही धर्म में दिलचस्पी

पंजाब में जब कुछ लोक अधिक संख्या में मसीही बनने लगे, तो उसकी शुरुआत 1857 के विद्रोह के बाद से मानी जा सकती है। ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध देश की उस पहली सशस्त्र बग़ावत के दौरान उसी वर्ष जब असम से लेकर पेशावर तक दंगे भड़क गए थे और 8 जून से लेकर 21 सितम्बर तक जब दिल्ली शहर पूरी तरह बन्द पड़ा रहा था; ऐसे समय में 24वीं नेटिव इनफ़ैन्ट्री के कुछ मज़हबी सिक्ख सैन्य-सिपाहियों ने अपनी इच्छा से मसीही धर्म में पहली बार अपनी दिलचस्पी दिखाई थी क्योंकि वे अपने कुछ गोरे अधिकारियों से बहुत प्रसन्न थे। अधिकारियों ने उन सैनिक-सिपाहियों की ऐसी इच्छा को देखते हुए चर्च मिशन सोसायटी के कुछ मिशनरियों को अपने पास बुला लिया। उन्होंने कुछ सिपाहियों को बपतिस्मा दिया।


जब अंग्रेज़ जनरल ने स्वयं रुकवाई थी रैजिमैन्ट में होने वाली मसीही प्रार्थना

बाद में 24वीं नेटिव इनफ़ैन्ट्री रैजिमैन्ट जब पेशावर चली गई, तो अंग्रेज़ अधिकारियों ने अपनी स्वयं की मर्ज़ी से ही उस रैजिमैन्ट में मसीही रीति के अनुसार प्रार्थना सभा का सिलसिला जारी रखा, जब कि उसमें मसीही सिपाहियों की संख्या तो केवल 16 थी। फिर जब यह बात जनरल बर्च तक पहुंची, तो उन्होंने तुरन्त रैजिमैन्ट में मसीही प्रार्थना रुकवाई।

स्यालकोट (अब पाकिस्तान में) ज़िले में ज़फ़रवाल के समीपस्थ बहुत से गांवों में मेघ जाति के लोगों ने 1866 ई. में स्वेच्छापूर्वक बपतिसमा लिया था। 1884 तक उन गांवों में मसीही लोगों की संख्या 59 हो गई थी परन्तु उन्हीं दिनों मेघ जाति के हज़ारों अन्य लोग आर्य-समाज को मानने लगे थे।


पंजाब के दलित लोगों ने अधिक अपनाया मसीहियत को

उसके बाद अगले 50 वर्षों में पंजाब में मसीही लोगों की संख्या बहुत अधिक तेज़ी से बढ़ने लगी। वर्ष 1881 की जन-गणना के अनुसार पंजाब क्षेत्र में मसीही लोगों की संख्या 3,912 थी, परन्तु 1931 तक यह बढ़ कर 3 लाख 95 हज़ार 629 हो गई थी। दरअसल, उन दिनों दलित लोग समाज में मान-सम्मान प्राप्त करने के लिए अधिक मसीही बने। यह शुरुआत 1873 में स्यालकोट के गांव शहाबदीके के एक अनपढ़ निवासी दित्त के मसीही बनने से हुई थी, जो मृत जानवरों की खाल उतार कर उसे साफ़ करके बाद में बेचने का कार्य किया करते थे। उन्होंने ही बाद में अपने बहुत से रिश्तेदारों व जानकारों को मसीही बनने हेतु प्रेरित किया। खालों के व्यापार से जुड़े होने के कारण उन्हें बहुत दूर-दूर तक जाना पड़ता था, वह जहां भी जाते - अपने उद्धारकर्ता यीशु मसीह का डट कर प्रचार किया करते और उनकी सच्ची कहानी बताते। ऐसे बहुत से लोग उनसे प्रभावित होते चले गए। गुजरांवाला व गुरदासपुर ज़िलों में दलित लोगों के मसीही बनने की लहर उन दिनों बड़े ज़ोरों से चली। बहुत सी मिशनों ने जब इस क्षेत्र में सक्रियता देखी, तो उनके प्रचारकों का भी पंजाब क्षेत्र में आना स्वाभाविक था।


....तो इस लिए लगाए तथाकथित उच्च जातियों ने मसीही लोगों पर धर्म-परिवर्तन के आरोप

1911 में पंजाब के जनगणना आयुक्त (कमिशनर) पण्डित हरिकृष्ण कौल ने भी यही बात कही थी कि राज्य के दलित लोग केवल मान-सम्मान व समाज में एक आदरणीय रुतबा प्राप्त करने के लिए मसीही बन रहे हैं - इसके पीछे और कोई कारण नहीं है।

दरअसल, यह बात वही लोग समझ सकते हैं, जिन्हें अनेक शताब्दियों तक बहु-संख्यकों की तथाकथित उच्च जातियों ने दबा कर रखा हो। परन्तु इन उच्च-जातियों के कुछ निम्न दर्जे के नेताओं ने जब उस समय के धर्म-परिवर्तन की बात अपने ऊपर आती देखी, तो उन्होंने यह आरोप लगाने प्रारंभ कर दिए कि ‘‘ग़रीब लोगों को लालच दे कर ज़बरदस्ती मसीही बनाया जा रहा है।’’ ऐसे निम्न दर्जे के कथित उच्च जाति के नेताओं के पास न तो और कोई दलील होती है तथा न ही ऐसा कोई प्रमाण होता है, परन्तु वे अपनी बात आज तक ऐसे ही पेश करते आ रहे हैं - जबकि असलियत बिल्कुल उल्ट है। यदि भारत में बहु-संख्यकों के कथित उच्च जाति के लोग अत्याचार न ढाते, जाति-वर्ण के भेदभाव न करते, तो कोई कारण नहीं था कि कोई भी व्यक्ति अपना धर्म-परिवर्तन करता।


असंतुष्टि के कारण ही करते हैं लोग धर्म-परिवर्तन

असंतुष्टि पहले से थी, इसी लिए लोगों ने अपनी मर्ज़ी से धर्म-परिवर्तन किए। कोई संतुष्ट व्यक्ति कैसे ऐसा कदम उठा सकता है? जब कोई असंतुष्ट व्यक्ति यीशु मसीह का उपदेश पहली बार सुनता है, तो वह प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकता। दूसरी बात यह कि कोई मसीही प्रचारक या पादरी किसी को ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन के लिए कह नहीं सकता। यदि भारत में ऐसा कुछ पुर्तगालियों या कुछ अन्यों ने कभी किया, तो हम उसकी घोर निंदा करते हैं और इस पुस्तक में भी कई स्थानों पर उनकी भर्तसना कर चुके हैं। क्योंकि यीशु मसीह ज़ोर-ज़बरदस्ती वाले रुहानी बादशाह नहीं हैं, उनका सिद्धांत तो यह था कि ‘यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा भी आगे कर दो’। इसी लिए हमारा यह मानना है कि यदि कोई हिंसक ढंग से कोई भी कार्यवाही करता है, तो वह किसी भी प्रकार से मसीही कहलाने का हकदार नहीं है।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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