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पंजाब में प्रारंभिक मसीही लोगों को सहने पड़े कई सामाजिक अत्याचार



 




 


1857 के ग़दर के उपरान्त तेज़ी से बढ़ी पंजाब में मसीहियत

पंजाब में मसीहियत की शुरुआत न केवल देरी से हुई, बल्कि प्रारंभ यह काफ़ी धीमी गति से भी चली। इसी लिए 1857 तक इस क्षेत्र में मसीही लोगों की संख्या किन्हीं भी परिस्थितियों में 200 से अधिक नहीं थी। परन्तु भारत के पहले क्रांतिकारी विद्रोह के पश्चात् स्वेच्छा से मसीहियत को सदा के लिए ग्रहण करने वालों की संख्या कुछ अधिक तेज़ी से बढ़ी। वर्ष 1881 की जनगणना के अनुसार पंजाब प्रांत (जो तब एक तरफ़ से दिल्ली की सीमा व दूसरी ओर उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत (जो अब पाकिस्तान में है तथा उसकी सीमा अफ़ग़ानिस्तान से लगती है) तक थी) में मसीही समुदाय की संख्या 3,912 हो गई थी और इनमें से भी अधिकतर तो मिशन के कर्मचारी ही हुआ करते थे। इसी लिए तब मसीही मिशनों को प्रचारकों व अध्यापकों की बहुत अधिक आवश्यकता रहा करती थी।

उस समय यदि पंजाब में कोई अपनी मर्ज़ी से मसीही धर्म को सदा के लिए ग्रहण करता था, तो उसे अपने क्षेत्र में सामाजिक बहिष्कार जैसी परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ता था, जिसके कारण वह पहले जो व्यवसाय कर रहा होता था, वह उसे त्यागना पड़ता था और अपना निवास-स्थान कहीं और बनाना पड़ता था। उन दिनों में यदि कुछ लोग लालचवश भी मसीही बनें हों (जैसा आरोप कुछ अज्ञानी किस्म के लोग प्रायः मसीही पादरी साहिबान पर लगाते हैं) तो उन्हें बहुत ज़्यादा निराश होना पड़ता था क्योंकि अंग्रेज़ शासकों ने कभी नए बने मसीही लोगों को कोई लाभ नहीं पहुंचाया। न कभी उन्हें कोई उच्च पद पर आसीन किया क्योंकि उनमें से अधिकतर कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ ही हुआ करते थे।


अंग्रेज़ शासकों ने भारतीय मसीही समुदाय को कभी प्रसन्न करना नहीं चाहा

विशाखापटनम के कोटावीधि क्षेत्र में एक ही पहाड़ी पर मसीही चर्च, हिन्दु मन्दिर व मुस्लिम मस्जिद - एकता की मिसाल

1858 तक के अंग्रेज़ शासक तो सीधे तौर पर व्यापारी लोग ही थे, उन्हें धर्म से कुछ लेना-देना नहीं होता था। फिर जब ईस्ट इण्डिया कंपनी का राज्य समाप्त हो गया और महारानी का राज्य लागू हो गया तो इंग्लैण्ड की सरकार ने बहुत चालबाज़ियां चलीं। वे जानते थे कि भारत में मसीही लोग आटे में नमक के समान हैं, इस लिए उन्हें प्रसन्न करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है (इन्हीं नीतियों पर भारत की वर्तमान सरकारें चलती हैं)।


अंग्रेज़ हकूमत ने भारत के केवल बहु-संख्यकों को ख़ुश किया

यही कारण था कि तब विभिन्न राज्यों में दीवान (जो आज के मुख्य मंत्री पद के समकक्ष हुआ करता था) जैसे पद केवल तथाकथित बहु-संख्यकों में से भी उच्च जाति के कुछ ही लोगों को दिए जाते थे, जो प्रायः ब्राह्मण या क्षत्रिय हुआ करते थे। ऐसे कुछ लोग भी आसानी से अंग्रेज़ शासकों की बात मान लिया करते थे, क्योंकि उनमें से 99 प्रतिशत बहु-संख्यकों को यह लालच भी हुआ करता था कि कभी न कभी तो ये अंग्रेज़ शासक भारत को छोड़ कर जाएंगे और जब जाएंगे, तो हमें ही पूरे देश की बागडोर संभाल कर जाएंगे। ऐसे लालची किस्म के तथाकथित उच्च जाति लोग जब दीवान के पद पर आसीन हो जाते थे, तो वे प्रायः मनमानियां किया करते थे, अपने अधिकार-क्षेत्र में रहने वाले लोगों से दुश्मनियां निकाला करते थे और बिना वजह आम जनता पर अत्याचार ढाया करते थे क्योंकि अंततः नाम तो अंग्रेज़ सरकार का ही बदनाम होना होता था। भारतियों पर विभिन्न तरीकों से अत्याचार ढाहने व नए-नए प्रकार के कर (टैक्स) लगाने की सिफ़ारिशें भी ऐसे ही दीवान लोग किया करते थे। यदि उस समय ऐसे लोग अंग्रेज़ों का साथ न देते, तो अंग्रेज़ शायद 1857 से भी पहले भारत को सदा के लिए छोड़ जाते। विदेशी शासक तभी तक राज्य करते रह सकते हैं, जब तक उन्हें स्थानीय स्तर पर कुछ न कुछ समर्थन मिलता रहे।


पंजाब के आतंकवाद के काले दौर की उदाहरण से समझें ब्रिटिश शासकों के लम्बे शासन-काल का भेद

इस बात को पंजाब के वर्तमान संदर्भ में समझने का प्रयास करते हैं। इस राज्य ने 1970-80 से लेकर लगभग 1995-1996 तक आतंकवाद का सामना किया। दहशतगर्द केवल तब तक ही यहां पर कामयाब होते रहे, जब तक कि उन्हें स्थानीय स्तर पर समर्थन मिलता रहा। वे प्रायः दिन-दिहाड़े व कभी-कभी रातों को भी आम लोगों व कुछ विशेष व्यक्तियों पर हिंसक हमले किया करते थे और रातों को उन्हें प्रायः पंजाब के आम लोग हमदर्दी दिखलाते हुए अपने घरों में पनाह दे दिया करते थे। परन्तु जब उनमें से कुछ मुट्ठी भर नीच किस्म के दहशतगर्दों ने उन्हीं शरण देने वाले लोगों के घरों की बहू-बेटियां पर हाथ डालना शुरु कर दिया, तो आम जनता की आँख जैसे किसी निद्रा से खुलने लगी। दहशतगर्दों का ख़ात्मा होने लगा और दूसरी ओर पंजाब पुलिस ने भी कुछ झूठे या सच्चे मुकाबले किए। परन्तु तब तक पंजाब की आर्थिक स्थिति डावां-डोल होने लगी क्योंकि नित्य-प्रतिदिन के ‘पंजाब बन्द’ के आह्वानों से सारे कारोबार ठप्प हो कर रह गए थे।


1984 का ब्लू-स्टार ऑप्रेशन व तत्कालीन प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी

एक अन्य उदाहरण जून 1984 में अमृतसर स्थित श्री हरिमन्दिर साहिब कम्पलैक्स पर भारतीय सेना के आक्रमण (जिसे ‘ऑप्रेशन ब्लू-स्टार’ का नाम दिया गया था) की दी जा सकती है। भारत के तत्कालीन प्रधान मन्त्री श्रीमति इन्दिरा गांधी पर चाहे प्रायः तानाशाह होने के आरोप लगते थे परन्तु यह एक आम समझ की बात है कि ऐसा ग़लत कदम उठाने से पहले क्या उन्होंने किसी सिक्ख से कोई सलाह नहीं ली होगी। उस समय चाहे बहुत से सैनिकों व अधिकारियों ने इस ऑप्रेशन ब्लू-स्टार का विरोध करते हुए विद्रोह भी कर दिया था; जिन्हें ‘धर्मी सैनिक’ भी कहा जाता है परन्तु क्या तब भी अन्य अनगिनत सिक्ख सैनिक उस ऑप्रेशन को अपना समर्थन नहीं दे रहे थे। क्या उस समय उस ऑप्रेशन के कमाण्डरों में सिक्ख शामिल नहीं थे। क्या उस समय देश के राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह एक सिक्ख नहीं थे। इन सभी सिक्ख लोगों की मूक सहमति के कारण ही प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी की हिम्मत ऐसा ‘दुस्साहस’ करने की हुई। थोड़ा सोच कर देखिए कि यदि उनमें से कोई एक उच्च अधिकारी भी उस कार्यवाही का विरोध करता, तो प्रधान मंत्री को ऐसे कदम के बारे में पुनः सोचना पड़ता। चलो यह बात भी मान लेते हैं कि श्रीमति इन्दिरा गांधी ने कभी किसी की एक भी बात नहीं मानी। परन्तु क्या उस ऑप्रेशन के बाद इन उच्च पदों पर आसीन सिक्ख असतीफ़ा दे कर अपना रोष प्रकट नहीं कर सकते थे; जैसे कि पंजाब के वर्तमान मुख्य मंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने तब संासद के पद से त्याग-पत्र दे कर किया था। फिर उस समय भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जो इस समय भारत में सत्तासीन है, ने भी इस ब्लू-स्टार ऑप्रेशन का खुल कर समर्थन किया था। यदि ऐसे मूक या प्रत्यक्ष समर्थन श्रीमति इन्दिरा गांधी को न मिलते, तो मेरे अपने निजी विचार के अनुसार ऑप्रेशन ब्लू-स्टार कभी नहीं हो सकता था।


कुछ अमीर भारतियों के समर्थन से ही भारत पर राज्य करते रहे अंग्रेज़ शासक

इसी प्रकार जब तक इंग्लैण्ड के अंग्रेज़ शासकों को स्थानीय तथाकथित उच्च जाति के कुछ अमीर भारतीय लोगों का समर्थन मिलता रहा, तब तक ही वे भारत पर धड़ल्ले से राज्य करने में सफ़ल रहे। ऐसी परिस्थितियों में अब यह निर्णय स्वाभाविक रूप से लिया जा सकता है कि वास्तव में देश के ग़द्दार कौन थे, जिनके कारण ब्रिटिश लोग भारत पर सैंकड़ों वर्ष राज्य कर पाए।


यीशु मसीह को उनकी शिक्षाओं को अच्छे से समझ कर ही अपनाते रहे लोग

प्रत्येक धर्म में कुछ न कुछ लोग ऐसे अवश्य होते हैं, जो अपने जीवन से संतुष्ट नहीं होते। वही लोग अपनी वर्तमान परिस्थितियों से कुछ हट कर कोई अन्य विकल्प ढूंढते रहते हैं। जैसे वर्तमान पंजाब के बहुत से सिक्ख लोग अब विभिन्न डेरों में जाने लगे हैं और उनके लिए वे डेरे ही अब सर्वोपरि बनते जा रहे हैं। इसी प्रकार भारत में भी अन्य बहुत से स्थानों पर बहु-संख्यकों में से बहुत से लोग अपने मूल धर्म को पीछे रख कर बहुत से नए ‘बापूओं’ व ‘माँओं’ को अपनाने लगे हैं। ऐसे कथित ‘बापूओं’ व ‘माँओं’ पर चाहे कितने भी आरोप क्यों न लगें, उनके भक्तों का ईमान शीघ्रतया नहीं डोलता। इन भक्तों को अपने इन्हीं ‘बापूओं’ व ‘माँओं’ में ‘ईश्वर’ दिखाई देने लगता है। ऐसी संभावनाएं प्रत्येक समुदाय में सदा बनी रहती हैं। हो सकता है कि अंग्रेज़ शासकों के समय में भी ऐसे ही कुछ लोगों ने स्वेच्छापूर्वक धर्म-परिवर्तन किए हों। परन्तु मसीहियत में निश्चित रूप से अधिक संख्या ऐसे लोगों की ही है, जिन्होंने यीशु मसीह के उपदेशों को पहले अच्छे से समझा, उन्हें बढ़िया जान कर सदा के लिए अपनाया व यीशु को अपना उद्धारकर्ता व मुक्तिदाता स्वीकार किया।

प्रारंभ में पंजाब में मसीही लोग अधिकतर शहरों में ही मिलते थे, गांवों में उनकी संख्या कम ही हुआ करती थी। 1834 से लेकर 1857 तक के आंकड़ों पर एक नज़र डालें, तो उस समय के दौरान पंजाब के मसीही समुदाय में 43 प्रतिशत लोग ऐसे थे, जिन्होंने इस्लाम धर्म को त्याग करके मसीहियत को ग्रहण किया था। ऐसे ब्राह्मण लोगों की संख्या 8 प्रतिशत थी। अन्य कथित उच्च जातियों में से 11 प्रतिशत थे। हिन्दु मूल के नए मसीही लोगों की संख्या तब पंजाब में 22 प्रतिशत थी और सिक्ख 7 प्रतिशत थे। कुछ दलित लोग (जो पहले हिन्दु धर्म को मानते थे) की संख्या तब 7 प्रतिशत थी।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

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